देश के दिल में आग

हमारा मुल्क हिंदुस्तान एक गैर-मजहबी देश है। मतलब धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। साथ ही लोगों को अपनी बात कहने की आजादी भी दी गई है। कुछेक हालातों को छोड़ दें तो यह बात हमेशा लागू होती है। मसलन आपातकाल जैसी स्थितियों में। राइट टू इन्फोर्मेशन से लेकर वो तमाम सुविधाएँ हमें यहाँ दी गई है जो एक स्वतंत्र नागरिक को चाहिए। अपने नेता को ख़ुद चुनने की आज़ादी, भले ही हम ग़लत नेता चुनते हों, तो ये हमारी गलती है न की व्यवस्था या संविधान की। खैर, मुद्दे की बात की जाए तो कई दफा ऐसा होता है कि हम अपने अधिकारों की बात तो करते है, कई दफा क्या, प्रायः हमेशा। लेकिन जब बात कर्तव्यों की आती है तो हम बेशर्मों की तरह अपना चेहरा झुका लेते हैं। छोडिये आज हम इस पर भी बात नहीं करेंगे। आज बात उस मुद्दे की जिस पर मुझे लगता है काफी सोचने की जरूरत है। हमारे नेता तो वोट बैंक और सत्ता की लालच में इसे कोई मुद्दा नहीं बनाते, पर यकीं मानिये जब आप ठंडे दिमाग से सोचेंगे तो लगेगा की हाँ, आख़िर हम ही ऐसे क्यों हैं, जबकि दुनिया की तमाम मुल्कों के लोग अपने देश से तो बेपनाह मोहब्बत करते हैं। चलिए अब ज़्यादा सस्पेंस न रखते हुए असल मुद्दे पर लौटते हैं।
जी हाँ, हम अपने भारत की बात करते हैं, यह एक ऐसा मुल्क है जो विविधताओं से भरा हुआ है। उन तमाम नागरिक सुविधाओ के बावजूद हम अपने ही मुल्क को गाली देते हैं, दी हुई आज़ादी का नाजायज फायदा उठाते है। जब भी कोई बात आती है तो, चाहे हमें नेताओं की नीतियाँ पसंद नहीं आती हो, सरकारी पॉलिसी में खामी नज़र आती हो, सरकार का विरोध करना हो, आदि बहुत - सी बातें हैं , जिन पर अपना विरोध जताने के लिए सडकों पर निकल पड़ते है, यहाँ तक तो ठीक है। लेकिन जब राष्ट्र के सम्मान को ठेस पहुंचाते है, जब तिरंगे को जलाते हैं तो इसे देख कर बहुत दुःख होता है।
जब इतनी ही नाराज़गी है तो व्यवस्था के खिलाफ हम एक जुट क्यों नहीं होते?, जब वक्त आता है उन नेताओं को सबक सिखाने का तो क्यों अपने घरों बैठे होते हैं ? उन्हें क्यों मौका देते हैं दुबारा सत्ता में आने का। लेकिन हम ऐसा कभी नहीं करेंगे, और बैठे - बैठे गलियां देंगे और देश की सम्पत्ती को नुकसान पहुंचाएंगे । चुनाव के दिन को सरकारी छुट्टी समझ कर चादर तान कर सो जायेंगे। आख़िर ऐसा कब तक चलेगा???? शायद हम आज़ादी की कीमत नहीं जानते तभी ऐसा करते है। खैरात में मिली हुई चीज़ की अहमियत कोई नहीं समझता है ठीक उसी तरह। शायद हम गांधी, तिलक , गोखले के त्याग को भूल चुके है? अबुल कलाम आजाद की संघर्षो को दरकिनार कर चुके हैं? भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की कुर्बानी याद नहीं?
सबसे बड़ी बात हम चर्चिल की उस बात को सही साबित कर रहे हैं जब उन्होंने कहा था " हिन्दुस्तानी आज़ादी के काबिल नहीं, उन्हें गुलाम ही रखा जाना चाहिए, नहीं तो ये बिखर जायेंगे " इसलिए जरूरत है वक्त की नजाकत को समझने की और इस विविधता की एकता को सही मायनों में कायम करने की । अब वक्त आ गया है बदलाव का। और साथ ही इस बदलाव के बयार में ख़ुद को साबित करने का भी ।
जय हिंद !!!!!

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