दो ज़िदगी का अंतर

एक ज़िंदगी आपके सामने तस्वीरों में है...दूसरी आपकी जेहन में शशि थरूर और एस एम कृषणा की...जो सरकारी आवासों मे न रहकर होटलों में रह रहे थे। मतलब सरकार द्वारा दी गई व्यवस्था से वह भी संतुष्ट नहीं थे। जब एक मंत्री ही ख़ुश नहीं तो जनता की बात न ही की जाए तो बेहतर फिर भी ज़िदगियों की तुलना देख लीजिए आप....ख़ैर अचानक से ख़र्च कटौती की मुहिम सी चल पड़ी है, सरकार द्वारा। इसलिए रहा नहीं गया। सोचा चलिए हर तरफ़ चर्चा-ए-आम यही है, तो कुछ बहस मैं भी कर लूं। ताकि उन सभ्य और कम ख़र्चीले मंत्रियों की भीड़ में कम से कम मैं भी समझदार तो लगूं। ख़र्च कम भले ही न करूं तो कम से कम उस पर बहस तो कर ही सकता हूं। मुझे मालूम है कि शशि थरूर और एस एम कृष्णा जैसी हैसियत नहीं है, मेरी कि उनकी जैसी जिंदगी जीने की सोचूं भी। जनाब को सरकार द्वारा दिया गया गेस्ट हाउस पसंद नहीं आया। यहां तो कई जिंदगियां फुटपाथ पर बीत जाती हैं। यक़ीन न हो तो अपने आसपास ही देख लीजिए, ज़्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। शशि थरूर इन्होंने जितना समय विदेशों मे गुजारा है, शायद उसी को ध्यान में रखते हुए उन्हें इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। लेकिन सरकार शायद यह भूल गई कि विदेशों में मंत्रियों का रहन सहन शानो-शौकत वाला होता है। जिसका इंतजाम वह नहीं कर सकी। मसलन, सरलता, सादगी और कमख़र्च का दंभ भरनेवाली सरकार के दो मंत्रियो को क़रीब तीन माह तक दिल्ली के सबसे महंगे पांच सितारा होटल में रहना पड़ा। हालांकि वो दोनों कहते हैं कि अपने ख़र्चे पर होटल में रह रहे थे...लेकिन इसका यक़ीन कैसे हो, ये भी वही तय करते हैं। ख़ैर ये भी सही है कि वो कुछ भी करें हमेशा हमें उनके पीछे नहीं पड़ना चाहिए। आख़िर उनकी भी निजी ज़िंदगी है। लेकिन हमें यह भी याद रखने की जरूरत है कि ऐसे ही निजी ज़िंदगीं के नाम पर ये नेता न जाने कितने लोगों की निजी ज़िदगी से खिलवाड़ करते हैं, दरअसल हक़ीक़त यह है कि ग़रीबों के वोटों से बनी सरकार अमीरों की अमीरी बढ़ाने का काम करती है और इसे देश की तरक़्क़ी बताने से फूले नहीं समाती। ख़ैर चिंता की बात नहीं है अब वित्त मंत्री प्रणव दा की झिड़की के बाद सारे नेताओं में कॉस्ट कटिंग और सादा जीवन, उच्च विचार अपनाने की होड़ सी मच गई है। हालांकि यह तात्कालिक है, यह सभी जानते हैं। और तात्कालिक क्यों है, इसकी भी असलियत मालूम है। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों को इसका सारा क्रेडिट दिया जाना चाहिए। किसी ने सही ही कहा कि, यदि भारत की जनता वोटर नहीं होती और चुनाव के मौसम नहीं होते तो जनता की खोज ख़बर भी लेने वाला कोई नहीं होता। जनता भी वैसे ही नाचने लगती है जैसे नेता नचाने लगता है। अब ये जुमला भी बड़े ज़ोर शोर से उठने लगा है कि वह क्या करे उसे तो सबसे बुरे में से कम बुरे को चुनना है। अरे भाई ऐसा क्यों ? कौन बनता है नेता, बनाता कौन है, किसके बीच से चुन के आता है, तो यह सब बहाना अब पुराना हो चुका। दरअसल यह सारा जुमला अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी वर्ग के द्वारा सामने लाया जाता है। उन्हें भी डर लगता है, यदि जनता सही में जागरूक हो जाए तो उनकी अय्यास ज़िदगी का क्या होगा। इसी वजह से ये सब इस तरह का माहौल क्रियेट करते हैं कि असली और जनता के मुद्दे को हाईजैक ही कर लेते हैं और उसे अपने हिसाब से सामने लाते हैं। ज़रूरत है इन सबको सबक सीखाने की, नहीं तो ज़िदगी इसी तरह कीड़ों की माफिक चलती रहेगी। इसके कसूरवार भी हम ही होंगे।

3 comments:

  1. chandan ji aap jo post laate hai hamare liye wah .......vicharo ko awshay mathata hai ......jaari rahe

    ReplyDelete
  2. सच्चाई को उकेरती लाजवाब रचना।

    ReplyDelete
  3. बहुत बढ़िया लिखा है आपने! सच्चाई का बयान करते हुए बहुत ही सुंदर रूप से प्रस्तुत किया है !

    ReplyDelete