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लाल सलाम के क़त्लेआम की वजह
हाल में, छत्तीसगढ़ का दंतेवाड़ा ज़िला हो, या महाराष्ट्र का गढ़चिरौली इलाक़ा कत्लेआम का खेल यहां ख़ूब खेला गया. हम केवल इन्हीं इलाक़ों की बात क्यों करें, देखा जाए तो नक्सलियों का प्रभाव क्षेत्र दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है, जहां नक्सलियों का तांडव सर चढ़ कर बोला रहा है. लोग इतने ख़ौफ़जदा हैं कि घर से निकलना भी उनके लिए जान गंवाने ले कम नहीं है. पुलिस प्रशासन पर नक्सलियों का क़हर इस क़दर आजकल टूट रहा है कि हर 10-15 दिन में कोई न कोई बड़ी वारदात सुनने को मिल ही जाती है, जिसमें पुलिस वाले थोक के भाव में मारे जा रहे हैं.
लाल सलाम को सलामी
हालांकि, एक बात तो तय है कि सरकारी नीति-निर्धारक तय नहीं कर पा रहे हैं, इस हालात के लिए कौन सी स्थितियां ज़िम्मेदार हैं. नक्सलवाद को लेकर सरकारें जिस तरह से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकती रही हैं, इसे समझना कतई मुश्किल नहीं है. आज देश के सात से भी अधिक राज्यों में नक्सली अपना क़हर बरपा रहे हैं. देश के क़रीब दर्जन भर राज्यों में इन माओवादियों ने सत्ता को खुलेआम चुनौती दे रखी है. चाहे वह छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, ओडीसा, बिहार, बंगाल उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे राज्य ही क्यों न हों. कुछ इलाक़ों या कहें कि कुछ राज्यों में में तो इनकी समानांतर सरकारें भी चल रही हैं तो कतई ग़लत न होगा. क्या यह बुरा होगा कि नक्सलवाद का मसला सुलझा लिया जाए. यह मसला सुलझ भी सकता है, लेकिन इससे नक्सलवाद पर चलने वाली कुछ लोगों की दुकानें बंद हो जाएंगीं. ये कौन लोग हैं. कौन हैं, जो हर समस्या को उसके उसी रूप बरकरार रखना चाहते हैं. आख़िर, ये क्यों चाहते हैं कि समाज के हाशिए पर और विकास के नाम जो लोग पिछड़ गए हैं, उनके अधिकारों के लिए लड़ने वाले उनका ही ख़ून बहाए. जब तक इस सवाल को हम नहीं समझ लेते तब तक किसी भी समस्या की तरह नक्सलवाद को भी नहीं सुलझा सकते. चाहे सरकार कोई नीति बनाए, नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर सलवा जुड़ूम बनाए गए, लेकिन पिसता तो वही आम आदमी है. जिसकी आवाज़ देश के हुक्मरानों तक नहीं पहुंचती.
नक्सलवाद की राम कहानी
उनके सामने सब छोटे हो जाते.
जुबां ख़ामोश ही रखो अपनी
बरख़ुरदार हो जाओगे बर्बाद नहीं तो.
चारों ओर हा-हाकार मचा है, नक्सलवाद का.
पीएम, सीएम सब सर खपा रहे हैं
फिर भी कुछ हो नहीं पाता है.
सुबहो-शाम इसी मगन में रहते हैं,
कि कब कसेगा नकेल नक्सलवाद पर.
लाखों-करोड़ों के होटल में रहने वाले,
पॉलिसी बनाते हैं फकीरों की.
शहीद हो गया फ्रांसिस झारखंड में,
लड़ते-लड़ते नक्सलियों से,
नहीं मिली थी उसको लेकिन
सैलरी 6 महीने से.
कैसे कहते हैं हम लड़ पाएंगे
ऐसे नक्सलवाद से.
इसी विषमता के लिए लड़ रहे हैं नक्सलवादी,
पुलिस भी है शिकार उसी विषमता का.
फिर भी हो गया शहीद फ्रांसिस
करके नेताओं को आबाद. बनने लगी हैं फिर से नीतियां,
लड़ने नक्सलवाद से, देखें क्या-क्या होता है.
यह नकस्लवाद कितना बढ़ाता है.
क्योंकि, जब-जब होता हैं कुर्बान कोई
नेता करते हैं ऐलान कोई.
सुना दिया है फरमान इन्होंने,
नहीं करेंगे बर्दाश्त अब,
ऐसे नक्सलवाद को.
अमां मियां पहले करलो काम कोई.
जंपिंग जसवंत की राजनीतिक चाल
गांधी उपनाम का जलवा
लेकिन, इस गांधी उपनाम में भी ग़जब का जादू है। इसी उपनाम की बदौलत नेहरू वंशज भारत पर अभी तक शासन कर रहे हैं। यदि इसमें हक़ीक़त नहींहै तो क्यों फिरोज़ गांधी गुमनामी के अंधेरे में खो गए। बावजूद इसके कि वो भी एक राजनीतिक शख्स थे। लोकसभा के सांसद थे। लेकिन, उनका नामोनिशान सत्ता के गलियारे तक नहीं है। आख़िर, क्यों। इसकी सबसे बड़ी वजह यह भी हो सकती है, कांग्रेस पार्टी यह बख़ूबी जानती है कि या कहें कि नेहरू परिवार कि गांधी (महात्मा) के उपनाम के मोहजाल से इस देश की जनता का निकलना काफी मुश्किल है, जब तक यह देश भारत रहेगा, गांधी का जलवा बरकरार रहेगा। इसी का फंडा कांग्रेस अपना रही है।
बापू, तुम ऐसे क्यों थे !
ख़ैर, क्या आपने कभी सोचा है कि गांधी, गांधी क्यों थे। हो सकता है आपको ये थोड़ा अटपटा लगे। लेकिन इसमें बहुत बड़ा रहस्य छुपा हुआ है। वह भी आज के गांधी परिवार की। हमारे भविष्य के प्रधानमंत्री की। सबसे पहले आज का एक अजीब वाकया मैं आपको सुनाता हूं। आज मेरी मुलाक़ात एक ऐसे इंसान से हुई जिसे आप आम आदमी कह सकते हैं। मैंने गांधी जी की बात उनसे छेड़ दी। वह भी मेरे साथ न्यूज़ चैनल देखने में मशगूल थे। बापू की कुछ दुर्लभ तस्वीरें दिखाईं जा रही थीं, जो वाकई दुर्लभ थीं। मैं आश्चर्य कर रहा था कि कैसे एक इंसान बस एक धोती में अपनी ज़िंदगी गुजार सकता है। वह काम बापू ने किया। नेहरू की कांग्रेस पार्टी आज सादगी का खेल खेल रही है, लेकिन गांधी ने इसे दशकों तक जिया। (नेहरू की कांग्रेस पार्टी इसलिए क्योंकि गांधी उसे भंग कर जनता की सेवा में लगाना चाहते थे, पर नेहरू ने उसे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का अचूक हथियार बना लिया.) कैसे कोई बस सच बोलकर इतनी बड़ी क्रांति कर सकता है। कैसे दूसरों पर बग़ैर हाथ उठाए ही उसे परास्त कर सकता है। जब देश आज़ादी की जश्न मना रहा हो तो, वह इंसान जिसने वाक़ई में आज़ादी दिलाई हो, वह तब भी लोगों के ज़ख्म भरने का काम कर रहा हो। (जब सारा देश और आज़ादी की लड़ाई के ज़्यादातर अगुवा आज़ादी की ख़ुशिया मना रहे थे, उस वक़्त बापू हिंदू-मुस्लिम दंगे रोकने में लगे थे, उनकी सेवा और लोगों की जान बचाने का काम कर रहे थे। उस भीषण दंगे ने बापू अंदर तक हिला दिया था, ऐसी आज़ादी की उम्मीद तो कतई नहीं चाह रहे थे। जबकि नेहरू सहित कई पुरोधा सत्ता की बंदरबांट में लगे थे ) इन्हीं सब ख़ूबियों की वजह से गांधीजी मुझे एक विचित्र और एक अद्भुत शक्ति नज़र आते हैं। जिसे समझन के लिए बेहद सरल और साधरण समझ की ज़रूरत है। जिसे आज हम भूलते जा रहे हैं।
हां, तो मैं बात कर रहा था उस विचित्र वाकये की। मुझे उन्होंने बताया कि गांधी जल्दी चले गए, मतलब गोडसे ने मार दिया अच्छा हुआ। नहीं तो देश का और कबाड़ा कर दिया होता। ये सोच आज के टुवाओं की है,। लेकिन सोचने वाली बात है कि यदि कुछ लोग भी ऐसा सोचते हैं तो आख़िर क्यों...क्या ये भी गोडसे मानसिकता वाले लोग हैं। या फिर अब के संघी मिजाज़ वाले...या कहीं ये कांग्रेसी तो नहीं, जो बस गांधी के नाम को भुना कर आज भी सत्ता की चाबी अपने पास ही रखना चाहते हैं। जब राहुल गांधी ये बयान देते हैं कि आज भी आम लोगों तक १० पैसा भी नहीं आम लोगों तक नहीं पहुंचता तो मुझे शक़ होता है कि कांग्रेसी भी वही कर रहे हैं, जो बाक़ी संघी या गोडसे मानसिकता वाले लोग कर रहे हैं।
अगले अंक में आपके बताएंगे कि कैसे नेहरू का परिवार गांधी परिवार बना...........क्यों...क्या थी कहानी....मजबूरी थी....या कोई और वजह.........