साल 1967 के दौर में नक्सलबाड़ी से जो चिंगारी उठी, उसने भारत को अपनी आगोश में ले लिया. आज हालात ऐसे हैं कि बंगाल कि यह चिंगारी आंध्रप्रदेश के गांवों तक पहुंच चुकी है. लेकिन सत्ता की मंशा कभी इसे सुलझाने की नहीं रही. देश में जब जनता पार्टी की सरकार थी तब उसी दौर में पिपरा, पारस बीघा, मसौढ़ी अरवल, कंसारा से लेकर बेलछी जैसे दर्जनों कांड हुए जिसमें दलित और कमज़ोर लोगों की सामूहिक हत्याएं की गईं. जब बेलछी कांड हुआ तो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हाथी पर चढ़कर बेलछी पहुंची थीं. आज भी ऐसे हालातों में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया है, कत्लेआम होती रहती हैं, नेता मुआवजा की घोषणा करते रहते हैं, मानों ये कह रहे हों कि बस यही लाख- दो लाख आपके जान की क़ीमत है. नक्सलवाद की समस्या को टटोलें तो कभी आंध्र, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ तो कभी बिहार झारखंड में यह हमेशा अपना सर उठाता रहा है. सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए शुरू हुआ यह आंदोलन आज जिस मुकाम तक पहुंच चुका है, उससे यह कतई नहीं माना जा सकता कि यह वही नक्सलवादी आंदोलन है, जो बंगाल के नक्सबाड़ी से शुरू हुआ था. जिसकी अगुवाई चारू मजूमदार और कानू संन्याल जैसे नेताओं ने की. एक वक़्त ऐसा था जब देश का पूरा अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी वर्ग भी इस आंदोलन के पक्ष में खड़ा दिखाई देता था. ग़रीब-गुर्बा से लेकर समाज में हाशिए पर जीने को मजबूर लोगों का हमेशा से इसे जन समर्थन मिलता रहा. यहां तक कि सरकार के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ने वाले नक्सलियों के कुछ समर्थक तो सरकार में भी थे. लेकिन, आज नक्सलवाद की वही स्थिति जानना है तो आप उन लोगों के बीच जाइए, जो हररोज़ इनके संगीनों का शिकार हो रहे हैं. उस मां से पूछिए जो अपने बेटे का चिता सामने देखती है, उस पिता से पूछिए जो अपने बेटे को ही अपना कंधा दे रहे हैं. हाल में, नक्सलियों के हाथों मारे गए पुलिस अधिकारी फ्रांसिस के बेटे से पूछिए. इस तरह जवाब तलाशने के लिए आपको कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. ऐसे अनगिणत उदाहरण हैं जो नक्सलवाद के बदलते स्वरूप की तस्वीर आपकी आंखों के सामने घूमने लगेंगे.
हालांकि, एक बात तो तय है कि सरकारी नीति-निर्धारक तय नहीं कर पा रहे हैं, इस हालात के लिए कौन सी स्थितियां ज़िम्मेदार हैं. नक्सलवाद को लेकर सरकारें जिस तरह से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकती रही हैं, इसे समझना कतई मुश्किल नहीं है. आज देश के सात से भी अधिक राज्यों में नक्सली अपना क़हर बरपा रहे हैं. देश के क़रीब दर्जन भर राज्यों में इन माओवादियों ने सत्ता को खुलेआम चुनौती दे रखी है. चाहे वह छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, ओडीसा, बिहार, बंगाल उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे राज्य ही क्यों न हों. कुछ इलाक़ों या कहें कि कुछ राज्यों में में तो इनकी समानांतर सरकारें भी चल रही हैं तो कतई ग़लत न होगा. क्या यह बुरा होगा कि नक्सलवाद का मसला सुलझा लिया जाए. यह मसला सुलझ भी सकता है, लेकिन इससे नक्सलवाद पर चलने वाली कुछ लोगों की दुकानें बंद हो जाएंगीं. ये कौन लोग हैं. कौन हैं, जो हर समस्या को उसके उसी रूप बरकरार रखना चाहते हैं. आख़िर, ये क्यों चाहते हैं कि समाज के हाशिए पर और विकास के नाम जो लोग पिछड़ गए हैं, उनके अधिकारों के लिए लड़ने वाले उनका ही ख़ून बहाए. जब तक इस सवाल को हम नहीं समझ लेते तब तक किसी भी समस्या की तरह नक्सलवाद को भी नहीं सुलझा सकते. चाहे सरकार कोई नीति बनाए, नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर सलवा जुड़ूम बनाए गए, लेकिन पिसता तो वही आम आदमी है. जिसकी आवाज़ देश के हुक्मरानों तक नहीं पहुंचती.
आप की बात से सहमति है।
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