जंपिंग जसवंत की राजनीतिक चाल

जिस दिन जसवंत सिंह को बीजेपी से निकाला गया, उसी दिन लग गया कि जसवंत सिंह राजनीति महत्वकांक्षा को आख़िर कब तक दरकिनार करके रखते हैं। कांग्रेस तो जा नहीं सकते थे, इसलिए राजस्थान की गद्दी जिसके लिए वसुंधरा से पंगा लेते रहे, वहां इन्हें मिल नहीं सकती थी. सो कांग्रेस का दरवाज़ा उन्होंने ख़ुद बंद कर रखी थी. दूसरा विकल्प, बीजेपी के मसले पर आरएसएस की दिलचलस्पी के बाद घर वापसी की तो वो भी मुमकिन नहीं हो पाया.
तीसरा विकल्प उनके पास दरअसल विकल्प नहीं, ये प्रस्ताव था. अमर सिंह की तरफ़ से समाजवादी पार्टी के लिए. इसकी संभावना प्रबल थी क्योंकि बीजेपी से निकाले गए या ख़ुद निकल गए कल्याण सिंह भी वहीं हैं. साथ ही, सपा दूसरे दलों के बाग़ियों को कुछ ज़्यादा ही सम्मान करती आई है. लेकिन जसवंत वहां भी नहीं गए. मतलब इरादा साफ़ था. दोयम दर्ज़े के राजनेता बनना उन्हें पसंद नहीं, हो भी क्यों ? जो सिपाही भारतीय सेना में हमेशा फ्रंट से मुक़ाबला किया हो वो भला दूसरों के कंधे पर बंदूक रख गोली चलाने लगे. ऐसे में एक ही विकल्प बचता था, जसवंत सिंह के पास. अपनी ख़ुद की पार्टी बनाएं. इसके लिए उनकी कवायद बहुत दिनों से चल रही थी. और अब उनकी मेहनत परवान चढ़ गई. ख़बरों में ऐसा कहा जा रहा है कि वो एंटी बीजेपी और एंटी कांग्रेस समूह की अगुआई करते नज़र आएंगे. इस समूह का नाम लोक मोर्चा है. जिसके संयोजक जदयू से निकाले गए नेता और पूर्व विदेश राज्य मंत्री दिग्विजय सिंह को बनाया गया है. सिंह ने ख़ुद बताया कि लोक मोर्चा को लेकर चर्चा बहुत पहले से ही हो रही थी. अगस्त में इसकी बैठक मुंबई में हुई भी थी. एक तरह देखा जाए इसमें तमाम बाग़ी हुए नेता ही सक्रिय भूमिका में नज़र आ रहे हैं. मसलन, झारखंड के पूर्व विधानसभा भी इस समूह में शामिल हैं. मुंबई के ही एक नेता राज शेट्टी भी इसके सदस्य बने हैं. यदि दिग्विजय सिंह की माने तो कई बुद्धिजीवियों का भी उन्हें समर्थन हासिल है. अब कितने अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी इनके साथ हैं, इसका ख़ुलासा तो वक़्त आने पर ही होगा. फिलहाल सिंह के मुताबिक़ प्रभाष जोशी और एम जे अकबर जैसे हस्ती का नाम वो बता रहे हैं. जिनका सहयोग और समर्थन लोक मोर्चा को मिल रह है. बताया तो ये भी जा रहा है कि यह समूह महाराष्ट्र विधानसभा में भी अपने उम्मीदवार उतारने जा रही है. मतलब, अभी से ही सक्रियता दिखाने की पुरजोर कोशिश चल रही है. लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि इस तरह के समूह कब तक अपना अस्तित्व बचा कर रख पाते हैं, इतिहास भी इस बात का गवाह है कि इस तरह कई समूहों आए और कई गए भी. ऐसे में इसका क्या हस्र होता है, यह देखना भी काफी दिलचस्प होगा.

2 comments:

  1. यही तो राजनीति है यहाँ कुछ भी हो सकता है .......पावर और पैसे का खेल मे बहुत ही नशा होता है ..........एक बढिया पोस्ट!

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  2. राजनीति का एक सिद्धांत है " अरि अरि मित्र " याने शत्रु का शत्रु अपना मित्र . तो इस तरह समूह तो बनते ही रहेंगे ।

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