कभी यूं भी

दूसरों की बातें करते-करते,
खुद को कितना पीछे छोड़ देते हैं,
जब दुःख का एहसास होता है,
तो चुपके से रजाई में रो लेते हैं,
रोने के लिए भी रात का वक़्त चुनते हैं,
कि कहीं बगल में सोया दोस्त न जग जाये,
अगर वह पूछा तो क्या कहूँगा,
कि बिना बात के रोये जा रहा हूँ,
या कहूँगा बीमार हूँ,
उसे नहीं बताऊंगा कि मैं
अब वो नहीं जो कभी था...
जब सोचता हूँ इस बारे में,
तो डूबने लगता हूँ भवंर जाल में,
बहार निकलने की जद्दोजहद
और खुद को समझने की उलझन
आजकल यही मेरे दो सवाल हैं,
सवाल जिन्दगी के हैं,
और जवाब उलझनों में हैं...
सवाल अकेलेपन का है,
तो जवाब अपनों से विलगाव का...

1 comment:

  1. अपने बारे में न सोचकर दूसरे के बारे में सोचते रहना, बहाकर ले जाता है वास्तविकता से परे।

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