लोकतंत्र के चार स्तंभों में चौथा स्तंभ माना जाता है-मीडिया। मीडिया, जिससे लोकतंत्र की नींव मज़बूत होती है, आम आदमी की आवाज़ बुलंद होती है और जो राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय परिघटनाओं को निष्पक्ष रूप से हमारे सामने लाती है। यह सभी परिस्थितियों में अपनी निष्पक्षता, विश्वसनीयता को प्रमाणित भी करती आई है। आज टी.वी. और प्रिंट मीडिया के बढते दायरे से दुनिया की छोटी-से-छोटी ख़बर से भी हम वाकिफ़ हो जाते हैं। ग्लोबलाइजेशन और पूंजीवादी सोच ने आज हर क्षेत्र को व्यवसायिक रंग में रंग दिया है। जिसमें मुनाफ़ा कमाना एकमात्र लक्ष्य है। यही वजह है कि इस क्षेत्र में भी आज निजी कंपनियां धड़ल्ले से आ रही हैं। उनका मक़सद भी मात्र मुनाफ़ा कमाना होता है, तभी तो आज हर न्यूज़ चैनल मनोरंजन और विज्ञापन चैनल बनता जा रहा है। कमोबेश यही स्थिति प्रिंट क्षेत्र में भी है। आप किसी भी अख़बार को उठाकर देख लें, पहले पन्ने से आख़िरी तक आप विज्ञापन ही पाएंगे। समाचारपत्र या ख़बरिया चैनल होने से इनकी साख पर इन सबसे नुकसान भी पहुंचता है तो कभी-कभी खानापूर्ति के लिए अपनी ज़िम्मेदारी का ख़्याल भी आ जाता है।
आज चैनलों की जो हालत है, साफ़ पता चलता है कि न्यूज़ विज्ञापन की तरह दिखाए जा रहे हैं और विज्ञापन न्यूज़ की तरह। साथ में कंटेंट के नाम पर क्या परोसा और थोपा जाता है, ये हम सभी जानते हैं। उपर से इल्ज़ाम की पब्लिक यही देखना चाहती है तो हम क्या करें। जैसे ये अपना धंधा पब्लिक से पूछ कर चलाते हैं। हांलाकि कुछ चैनल अपनी गरिमा बनाए हुए हैं, लेकिन इससे भी कुछ नहीं होनेवाला, वजह हम आपको बताते हैं, अकेला चना भांड़ नहीं फोड़ता और साथ में जौ के साथ घुन भी पिसता है।
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