आज पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था की जो हालत है, वह सबके सामने है। इसकी जड़ें इतनी हिल चुकी हैं, कि एक के बाद एक राहत पैकेज दिए जाने के बावजूद संभलते नहीं संभल रही। तमाम पूँजीवादी राष्ट्रों ने समाजवाद की राह पकड़ ली। मतलब सरकारें निजी कंपनियों को बचाने में लग गईं। आम लोगों के पैसे का इस्तेमाल पूँजीपतियों की पूँजी बचाने में लगाने लगी। लेकिन वो अभी भी बेख़बर है, इस मर्ज़ की हक़ीकत से और जनता का पैसा बेहिचक लुटाए जा रही है।
लेकिन आज मसला फिर जुड़ा है, सेंसेक्स के चंचल रवैये से। काफी दिनों के बाद फिर बाज़ार ने बुलंदियों को छूना शुरू कर दिया है। एक बार फिर इसने ग्यारह हज़ार का आँकड़ा छुआ। इस ऊँचाई तक पहुँचने में इसने अक्तूबर से अप्रैल तक यानी छह महीने का वक़्त लिया। जबकि अक्तूबर से पहले चंद दिनों में ही इसने बीस हज़ार का आँकड़ा पार कर लिया था। उसके बाद तो वैश्विक आर्थिक मंदी की ऐसी आंधी चली कि इसने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को धाराशायी कर दिया। और ये संकट दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से सेंसेक्स में ज़बरदस्त उछाल देखने को मिल रहा है। विश्लेषक छानबीन में लगे हैं, हक़ीकत का पता लगाने के लिए।
लेकिन एक बात साफ़ है, इस चुनावी माहौल में सेंसेक्स की सांस कब तक थमी रहती है, ये तो चंद दिनों में ही पता चल जाएगा। आख़िर कब तक इस सट्टेबाज़ी की पतंग आसमान में उड़ती रहती है, क्योंकि चंद लोग ही इस खेल में शामिल हैं और उन्हें मालूम है, कब ढिल देनी है और कब डोर काटनी है ?
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