पत्रकारिता के नए मापदंड गढ़े जा रहे हैं। हर मालिक संपादक बनता जा रहा है। संपदाक किसी कंपनी का सीईओ। रण फिल्म अभी तक देखी नहीं है. लेकिन इसको लेकर जितनी बहस हुई और हो रही है, वह काफी कुछ कहती है. मीडिया के लोग कह तो रहे हैं कि हम आत्ममंथन कर रहे हैं. पर कर कोई नहीं रहा है. यहां भी अपनी चालाकी से लोगों को बेवकूफ बनाकर टीआरपी बटोरने की कोशिश चल रही है. जो लोग स्वर्ग की सीढ़ी और रावण की रणनीति आज भी दिखा रहे हैं, वह भी प्राइम टाइम में वही इसके खिलाफ़ अखबारों और बहस-चर्चाओं में इसकी मुखालफत कर रहे हैं. भूत प्रेत दिखलाने वालों की तो बात ही छोड़ दीजिए. किसी ने सच ही कहा है कि, मैं ही सही हूं का एहसास बहुत दुख देता है. लेकिन आजकल इन्हीं लोगों का बोलबाला है. सबसे बड़ी बात कि ये ख़ुद को सही साबित करने में भी सक्षम हैं. बड़ी होशियारी से ख़ुद की बातों को दुनिया के सामने पेश करने की कला इन्हें खूब आती है. आख़िर आए क्यों नहीं इतने सालों तक यही तो सीखा और किया. हमारे पहचान के एक जनाब है. जब पहली बार उनसे मिला तो जानकर अचंभित हो गया कि आखिर कोई आदमी भला हर विषय की इतनी बड़ी समझ कैसे रख सकता है. वाक़ई आप उनसे किसी मुद्दे पर बात कर लीजिए. मेरा यकीन ही नहीं दावा आपका ब्रेन वॉश करनेकी कुव्वत तो वह रखते ही हैं. यह मैं किसी की तारीफ़ या वकालत नहीं कर रहा हूं. न ही किसी के सामने अपनी बुद्धिमत्ता को घुटने टेक रहा हूं. लेकिन यदि आप किसी काबिलियत के कायल हो जाते हैं तो एक ईमानदार इंसान होने के नाते उसे उसकी क्रेडिट तो देनी ही चाहिए. इतना समझ लीजिए कि अंग्रेज़ी में एक कहावत है...जैक्स ऑफ ऑल ट्रेड एंड मास्टर ऑफ नन. इन जनाब के लिए मास्टर ऑफ नन की जगह मास्टर ऑफ ऑल का फार्मूला सटीक बैठता है. हर लिहाज से उचित.
पहले यह जनाब किसी मीडिया हाउस में काम करते थे. वहां इन्होंने काया पलट कर दिया. सकारात्मक अर्थों में. लेकिन उसूलों के साथ जो खिलवाड़ किया उसका कोई सानी नहीं है. मुझे मालूम है...यहां मुझे बकायदा उदाहरण देना चाहिए. उनके नाम का खुलासा करना चाहिए...पर नहीं कर सकता...यही आजकल ईमानदारी का उसूल हो गया है. और समझ लीजिए कि मैं भी ईमानदार हो गया हूं. आज भी उन जनाब के बारे में मेरी राय वहीं है. अभी भी वह बहुत बड़े ज्ञानी पुरुष हैं. लेकिन उनके ज्ञान का एंगल बदल गया है. पहले भी बदला हुआ था. पर काफी करीब से किसी को देखने के बाद ही किसी के बारे में एक स्थाई राय बन पाती है. अब या तो मेरी राय बदल गई है या उनको समझने में मैंने ही कहीं ग़लती कर दी. इतनी ज़्यादा फिलॉसफी करने के बाद मन करता है. सारी हकीकत आपके सामने बयां कर दूं. करूंगा भी ज़रूर. लेकिन मैं खु़द को परखना चाहता हूं कि मेरा ज़मीर अभी भी ज़िंदा है या नहीं.मैं कितना उसकी वहमपरस्त विचारों का शिकार बन सकता हूं. इसका इम्तिहान आख़िर मैं भी कब तक दे सकता हूं. ज़रा मुझे मोहलत दीजिए मैं अपने अंदर की आवाज़ को दुनिया और मीडिया की मक्कारी से बाहर निकाल सकूं.
कंगारूओं का दबदबा बरकरार
एक तरफ चर्चा है कि विश्व क्रिकेट से ऑस्ट्रेलिया का दबदबा ख़त्म हो रहा है तो दूसरी ओर ऑस्ट्रेलियाई टीम इस बहस को झूठा साबित करने में जुटी है. एक तरफ जहां कंगारूओं ने पाकिस्तान को टेस्ट और एकदिवसीय दोनों में मात दी, वहीं दूसरी ओर ऑस्ट्रेलिया की अंडर नाइनटीन टीम ने भी पाकिस्तान को धूल चटाई. लेकिन सबसे खास बात यह है कि जूनियर कंगारू टीम ने विश्वकप में अपनी जीत सुनिश्चित की. यह तीसरी बार है जब जूनियर ऑस्ट्रेलियाई टीम ने अंडर नाइनटीन के विश्वकप का खिताब अपने नाम किया है. ऑस्ट्रेलियाई टीम ने यह जीत फाइनल में पाकिस्तानी टीम को शिकस्त देकर हासिल की है. उसने पाकिस्तान को 25 रनों से मात दी. यह बेहद ही दिलचस्प है कि पाकिस्तान टीम फाइनल मुक़ाबले को छोड़कर सभी मैचों में विजयी रही थी. इस दौरान आईपीएल में चल रहे विवादों के दौरान पाकिस्तानी टीम ने भारत को भी पटखनी देकर उसे विश्वकप से बाहर का रास्ता दिखाया था. यानी एकबार फिर ऑस्ट्रेलियाई टीम ने विश्व क्रिकेट में अपनी बादशाहत बरकरार रखी है. सिर्फ सीनियर टीम ने ही नहीं, बल्कि जूनियर खिलाड़ियों ने भी जीत की राह पकड़ी है. यदि सीनियर टीम ने चार विश्वकप जीते हैं तो अंडर नाइनटीन टीम का तीसरा विश्व खिताब है.
मयखाने की अभी भी तलाश है
दिल तो हर पल उदास रहता है
कोई इसे समझाए भी तो कैसे,
भूलकर उस लम्हे को,
भला कोई जीने की सोचे भी तो कैसे,
तूफानों से,
कई कश्तियां बचा लेते हैं लोग,
लेकिन जब अपने ही बेगाने हो जाए
तो भला कोई जी पाए भी तो कैसे।
सब कहते हैं, शराबी मुझे,
पर अभी मुझे है मयखाने की तलाश,
साकी का सहारा नहीं चाहिए,
सब्र करने का साहस है मुझमें,
अभी भी जीने का जज़्बा कायम है,
उम्मीदों की बात नहीं करता मैं,
लोग कहते हैं, उम्मीदों पर तो दुनिया टिकी है,
पर ये उम्मीद किसी पर टिकी है....
कोई इसे समझाए भी तो कैसे,
भूलकर उस लम्हे को,
भला कोई जीने की सोचे भी तो कैसे,
तूफानों से,
कई कश्तियां बचा लेते हैं लोग,
लेकिन जब अपने ही बेगाने हो जाए
तो भला कोई जी पाए भी तो कैसे।
सब कहते हैं, शराबी मुझे,
पर अभी मुझे है मयखाने की तलाश,
साकी का सहारा नहीं चाहिए,
सब्र करने का साहस है मुझमें,
अभी भी जीने का जज़्बा कायम है,
उम्मीदों की बात नहीं करता मैं,
लोग कहते हैं, उम्मीदों पर तो दुनिया टिकी है,
पर ये उम्मीद किसी पर टिकी है....
गंभीर यानी रन मशीन
भारत बांग्लादेश के साथ दो टेस्ट मौचों की सीरीज़ जीत गया। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एकदिवसीय सीरीज़ में हमें मात मिली थी। वह भी श्रीलंका के हाथों, जिसे हमने अपने घर में हराया था। लेकिन इन सबके बीच गंभीर एक अहम खिलाड़ी साबित हुए हैं। वह भले ही डॉन ब्रेडमैन का रिकॉर्ड नहीं तोड़ पाए। लेकिन उससे भी ज़्यादा उपलब्धि हासिल कर दिखाया। हालांकि द्रविड़ का जबड़ा टूटने से दुख हुआ। मुमकिन है वह अफ्रीका के साथ होने वाले अहम टेस्ट मुक़ाबले में टीम का हिस्सा न बन पाएं। यूं तो युवराज भी चोट से जूझ रहे हैं।
2010 में भारत का पहला टेस्ट। सामने बांग्लादेश की फिसड्डी जैसी टीम। फिर भी भारतीय बल्लेबाजों को एक एक रन बनाने के लिए लंबी जद्दोजेहद करनी पड़ी। हालांकि भारत किसी भी तरह मैच जीतने में सफल रहा। लेकिन बांग्लादेश के साथ भारतीय टीम का मुक़ाबला का़फी कुछ कह गया। पर इन सबमें जो सबसे ख़ास बात रही, वह भारतीय टीम के नए भरोसेमंद खिलाड़ी का शतक बनाना। जी हां, बात स़िर्फ टेस्ट मैचों की ही नहीं है। भारतीय टीम का यह खब्बू बल्लेबाज़ क्रिकेट के हर स्वरूप में अव्वल है। चाहे वह एकदिवसीय हो या टी-20। शांत और संयम दिखने वाले गौतम गंभीर पिच पर क़दम रखते ही बल्ले से रनों का अंबार लगाने लगते हैं. तभी तो गंभीर को आजकल भारतीय टीम की नई रन मशीन कहा जाने लगा है. खब्बू बल्लेबाज़ के तौर पर भारतीय टीम में अमिट छाप छोड़ने वाला इस खिलाड़ी ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा बोला, तो हर किसी ने कहा कि अब शायद ही भारतीय टीम को गांगुली जैसा बल्लेबाज़ नसीब हो. लेकिन भारतीय टीम को ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा. गांगुली के संन्यास के बाद एक ऐसा खिलाड़ी उभर कर सामने आया, जिसने न स़िर्फ प्रिंस ऑफ कोलकाता की खाली जगह की भरपाई की, बल्कि ख़ुद को उससे भी बेहतर साबित किया. हम बात कर रहे हैं, टेस्ट रैंकिंग में पहले पायदान पर क़ाबिज़ गौतम गंभीर की. गंभीर ने पिछले दो साल यानी टी २० का विश्वकप जीतने के बाद जो भारतीय टीम के लिए योगदान दिया है...वह काबिलेतारीफ़ है.
महंगाई यानी ग़रीबों पर लगने वाला टैक्स
महंगाई अभी भी कम होने का नाम नहीं ले रही है। जब जब मंत्री साहब इसकी चर्चा करते हैं...यह आसमान छूने लगती है। लेकिन एक बात जो ध्यान देने वाली है....ख़ासकर कांग्रेस को वह यह कि दिल्ली की गद्दी उसे महंगाई के मुद्दे पर ही मिली थी...भाजपा की सरकार प्याज की क़ीमतों को काबू नहीं रख सकी तो लोगों ने भी अपना फ़ैसला सुना दिया...जनता को प्याज की आंसू रूलाने वाली भाजपा की सरकार आज तक सत्ता से बाहर आंसू बहा रही है। यही बात कांग्रेस को ध्यान में रखने की ज़रूरत है...यह सही है कि हाल के चुनावों में लोगों ने जनादेश कांग्रेस पार्टी को दी है, पर इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वह सर्वशक्तिमान हो गई है। वह कुछ भी कर सकती है। ज़रूरी चीज़ों के दाम बेतहाशा बढ़ा सकती है...क्योंकि लगता तो कुछ ऐसा ही है...एक के बाद एक वह हर चीज़ों का दाम बढ़ाते जा रही है...चाहे वह दाल की क़ीमत हो या दूध की...दाल के दामों में जहां सौ फ़ीसदी तक का इजाफ़ा हुआ तो आटा का दाम भी दोगुना हुआ...सरकार यहीं तक रूकी...उसने डीटीसी बसों का किराया भी बढ़ाया...पहले जो टिकट सात रुपये में मिला करती थी...वह १५ रुपये की हो गई...अब तो नए साल में दिल्ली की सरकार ने दिल्लीवासियों को पानी की क़ीमत बढ़ाकर एक नया ही तोहफा दिया...यानी सरकार ने एक के बाद एक ऐसे फैसले लिए जिसने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी...ऐसा लगता है आम आदमी का जीना दूभर हो गया है...और सरकार उच्छृंखल हो गई है...सरकार फ़ैसले अपनी मनमर्जी से ले रही है...और फ़ैसले वही ले रही है...जो देश की पचानवे फ़ीसदी आबादी के प्रतिकूल है...सरकार कितनी निष्ठुर और निर्दयी हो गई है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब राज्यसभा में चीनी की बढ़ती क़ीमतों पर वित्त मंत्री से सवाल पूछा गया तो वह आग बबूला हो गए...और गुस्से में कहा कि मैं किसी के भी किसी सवाल का जवाब नहीं दूंगा...यह है हमारे देश के ज़िम्मेदार वित्त मंत्री का ज़िम्मेदराना रवैया...वह भी तब जब आम आदमी महंगाई के बोझ तले दबती जा रही है...एक बात यहां यह भी सामने आती है कि यदि मद्रास्फिति की दर बढ़ती है अथवा महंगाई बढ़ती है त इसका सीधा असर उन आम लोगों पर पड़ता है, जो इसके लिए कतई ज़िम्मेदार नहीं होते हैं...जबकि संपन्न वर्ग पर इसका कुछ ख़ास असर होता ही नहीं है...इसीलिए महंगाई को यदि ग़रीबोंपर लगने वाला टैक्स कहा जाता है तो इसमें कुछ भी ग़लती नहीं है...
महंगाई का यह आलम तब है, जबकि आर्थिक सुधारों को उन्नीस सौ इक्यानवे में लागू करने वाले वित्तमंत्री आज देश के प्रधानमंत्री हैं...जिस पार्टी का नारा रहा है, कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ...उसी कांग्रेस के वित्तमंत्री आम आदमी के मले पर आग बबूला हो रहे हं। आंखें दिका रहे हैं...शायद अभी चुनावों का मौसम नहीं है, तो आम आदमी पर महंगाई का बोझ डाला जा सकता है........
महंगाई का यह आलम तब है, जबकि आर्थिक सुधारों को उन्नीस सौ इक्यानवे में लागू करने वाले वित्तमंत्री आज देश के प्रधानमंत्री हैं...जिस पार्टी का नारा रहा है, कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ...उसी कांग्रेस के वित्तमंत्री आम आदमी के मले पर आग बबूला हो रहे हं। आंखें दिका रहे हैं...शायद अभी चुनावों का मौसम नहीं है, तो आम आदमी पर महंगाई का बोझ डाला जा सकता है........
ख़बर बन रहे ख़बरनवीस
ख़बर बन रहे हैं अब ख़बरनवीस,
ख़ुद पर बहस कर रहे हैं...
क्या दिखाएं, क्या न दिखाएं,
इस ऊहापोह में फंसे हैं हमारे ख़बरनवीस...
ख़बर बनाते बनाते थक गए
चले हैं अब ख़ुद ख़बर बनने
न कोई राजा न कोई रानी
न स्वर्ग की सीढ़ी और न ही दिखाएंगे हम भूत प्रेत
प्रण कर लिया है ख़बरनवीसों ने
ख़बर बन रहे हैं, ख़बरनवीस
इस बार बदल के रहेंगे
ख़ुद के गिरेबां में झांक के रहेंगे,
फिर भी संभल न सके तो
एकबार फि ख़बर बना देंगे ख़बरनवीस
टूट गया सपना...ख़बरों को दिखाने का,
छूट गया वह दौर जब जमाना था ख़बरों का..
ख़ुद पर बहस कर रहे हैं...
क्या दिखाएं, क्या न दिखाएं,
इस ऊहापोह में फंसे हैं हमारे ख़बरनवीस...
ख़बर बनाते बनाते थक गए
चले हैं अब ख़ुद ख़बर बनने
न कोई राजा न कोई रानी
न स्वर्ग की सीढ़ी और न ही दिखाएंगे हम भूत प्रेत
प्रण कर लिया है ख़बरनवीसों ने
ख़बर बन रहे हैं, ख़बरनवीस
इस बार बदल के रहेंगे
ख़ुद के गिरेबां में झांक के रहेंगे,
फिर भी संभल न सके तो
एकबार फि ख़बर बना देंगे ख़बरनवीस
टूट गया सपना...ख़बरों को दिखाने का,
छूट गया वह दौर जब जमाना था ख़बरों का..
टीआरपी और मीडिया पर नई बहस.......
इसके पहले वाला लेख मैंने महंगाई पर लिखा था...उसके बाद वाला भी महंगाई पर ही तैयार किया है...लेकिन उसे ड्रॉप करना पड़ रहा है....कोई मजबूरी नहीं है...दरअसल मीडिया का विद्यार्थी हूं....बहस भी आजकल मीडिया पर शुरू हो गई है...जाने माने पत्रकार, जिन्हें हम आदर्श नहीं तो कम से कम पत्रकार की कसौटियों पर खड़ा उतरने वाला पत्रकार मानते रहे हैं, ने एक बसह छेड़ दी है...टीआरपी का मसला....सबसे पहले हिंदुस्तान में आशुतोष का लेख पढ़ा...दिल को तसल्ली मिली...अब पत्रकारिता बदलेगी...उसकी रुपरेखा नहीं तो कंटेट के मामले में बदलाव तो ज़रूर होना चाहिए...लेकिन दर्द का एहसास होता है...ये लोग जब बदलाव या मीडिया के पतन पर कुछ लिखते हैं...मैनेजिंग एडीटर हैं...मेरे पसंदीदा एंकर्स में एक हैं...वह आज उस पद पर क़ायम हैं....जहां से फ़ैसले लिए जाते हैं...स्वर्ग की सीढ़ी कार्यक्रम की आलोचना की उन्होंने...लेकिन दिखाया किस चैनल ने उन्हें यह भी सोचना चाहिए...कहते हैं प्राइम टाइम यानी शाम के सात बजे से दस-ग्यारह बजे तक लोग ख़ूब चैनल देखते हैं...इस दौरान किस चैनल ने क्या दिखलाया....कहने की ज़रूरत नहीं है...बस अपने गिरेबां में झांकने की ज़रूरत है...मैं अभी नाम लेकर भी बता सकता हूं कि किस चैनल ने क्या-क्या दिखलाया....जो नहीं दिखलाने चाहिए थे....पर डर लगता है....आशुतोष सर ने यह कहा कि आज हिंदी के लोग मीडिया में इस गिरावट-पतन के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोलते....बोलने से उनको भी मेरी तरह डर लगता है...मैं भी इसी मीडिया का हिस्सा हूं....कल को नौकरी की ज़रूरत पड़ेगी उन्हीं के पास जाना होगा...नहीं देंगे....क्यों....तो उनकी आलोचना जो की मैंने....लेकिन जो लोग इस बहस की शुरूआत कर रहें हैं वे मीडिया के शीर्ष पदों पर हैं....फ़ैसला लेने वाले लोग हैं...न्यूज़ रूम में ख़बरें तय करने वाले...तो वे क्यों नहीं फ़ैसला लेते हैं......बस अब एक नया तरकीब निकाल लिया है....काग़ज़ काला करने का.....कम से कम उन्हें यह सब नहीं करना चाहिए....आइडिया का बेहतरीन एड आया है...उन्हें तो कम से कम उससे सीख लेनी चाहिए....उनकी जगह है टीवी, उन्हें कहने के बजाय करना चाहिए.....वह भी लिखने लगे तो अखबारों में ज़्यादा स्पेस लगेगा....उसके लिए ज़्यादा काग़ज़ चाहिए....फिर पेड़ काटना पड़ेगा.......यानी आइडिया के एड की हम सिर्फ़ तारीफ़ करना चाहते हैं....अमल नहीं.....
कभी कभी मुझे लगता है कि अखबारों में लिखने का मतलब कहीं ख़ुद को धीर-गंभीर और आदर्श का योद्धा बताना तो नहीं....क्योंकि लोग टीवी पर उनकी ख़बरें देखते देखते उनकी हक़ीक़त से वाक़िफ़ हो चुके हैं....
अब एक और बात रवीश कुमार ने भी अपने ब्लॉग पर इस संदर्भ में बहुत ही बढ़िया लिखा....पढ़कर अच्छा लगा...लेकिन पढ़कर ही अच्छा लगा...बाक़ी कुछ नहीं....उन्होंने बताया उनका चैनल भी टीआरपी की अंध भागदौड़ में पड़ चुका है....भले ही आपत्ति हो उन्हें मेरी बातों पर...लेकिन उनका अंदाज़ बताता है...किस तरह से ख़ुद को डिफेंड किया जाता है....फैन हो गया में उनकी लेखना का....अंधेर नगरी में रहते हुए ख़ुद के घर में किस तरह उजाला लाया जाता है...कालिख की कोठरी से बेदाग़ किस तरह कोई निकलता है...इसकी बेहतरीन मिसाल है....रवीश सर का वह लेख...पढ़िएगा ज़रूर....लेकिन माफ़ कीजिएगा सर अभी बच्चा हूं...हमें क्लास में जो पढ़ाई गईं.....उसी के हिसाब मैं अपनी बात रख रहा हूं...मैं आपकी विचारों का अभी भी कायल हूं......आप मना भी करेंगे तो भी रहूंगा.....लेकिन तकलीफ़ ज्यादा होती है.......पत्रकारिता के सभी पुरोधाओं को यह कहते हुए कि बदलाव की ज़रूरत है...जबकि बदलाव करने वाली जगहों पर वही लोग क़ाबिज़ हैं.......आगे जारी.....
महंगाई यानी ग़रीबों पर लगने वाला टैक्स
कांग्रेस ने 1991-९६ में आर्थिक सुधारों को लागू किया और बीजेपी ने एनडीए के अगुवा दल के तौर पर उनको आगे बढ़ाया। शायद यही वजह है कि बीजेपी भी महंगाई के मुद्दे पर कुछ नहीं बोल रही है। पिछले दिनों ही इस मसले पर उसने सरकार को घेरने की कोशिश की, लेकिन लिब्रहान रिपोर्ट लोकसभा में आने के बाद वह ख़ुद घिरी लगती है या कहें कि जिस पार्टी की हालत खस्ता बनी हुई थी, उसमें जान आ गई है। इसीलिए वह भी महंगाई यानी आम आदमी के मसले को छोड़कर, लिब्रहान के पीछे पड़ गई। जबकि महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। विपक्षी पार्टी होने के नाते उसे सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करनी चाहिए थी, ताकि सरकार पर आम आदमी के लिए ज़रूरी दैनिक चीज़ों की क़ीमतों पर क़ाबू पाने के लिए दबाव बनाया जा सके। महंगाई की स्थिति यह है कि पिछले दो तीन वर्षों में ही ज़रूरी खाद्य पदार्थों मसलन चावल, दाल, आटा, सब्ज़ी की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। फिर भी सरकार इन पर क़ाबू पाने के लिए कुछ भी नहीं कर रही है। हां, अगर कुछ किया भी है तो बस इतना कि दिल्ली की सरकार सरकारी स्टॉलों और मदर डेयरी के स्टॉलों पर दाल बेचना शुरू किया। लेकिन जब पानी सर के ऊपर से गुज़र गया तो उसे भी पता चला कि दाल बेचना कितना मुश्किल है। दरअसल, दाल के दामों की स्थिति यह है कि इसकी क़ीमतें दिन दोगुनी और रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। ऐसे में महंगाई नियंत्रण से बाहर हो जाए तो आम आदमी की हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यदि अरहर समेत कई दाल सौ से भी अधिक रुपए प्रति किग्रा की दर से मिले तो देश की सतहत्तर फ़ीसदी आबादी जो हर रोज़ महज़ बीस रुपए कमाती है, उसकी दाल कैसे गलेगी?
दरअसल सरकार को चाहिए कि वह दाल बेचने के बजाय दाल की क़ीमतों पर लगाम लगाए। पर सरकार किन किन चीज़ों की क़ीमत क़ाबू में रखने की असफल कोशिश करेगी। यहां बात महज़ दाल की नहीं है। दाल के साथ-साथ आटा भी गीला होने लगा है। पहले जो आटा दस रुपए प्रति किग्रा मिला करता था, उसकी क़ीमत भी दोगुनी हो गई है। यानी पहले जो आम जनता दाल रोटी खाकर प्रभु का गुण गाया करती थी, सरकारी नीतियों एवं उसकी वजह से बढ़ती महंगाई के कारण वह न तो दाल रोटी खा पा रही है और न ही उससे प्रभु का गुणगान करते बन रहा है। क्योंकि भूखे पेट भजन न होत गोपाला...........शेष जारी..........
नये साल में चेहरे नए यादें पुरानी
नया साल...नई उम्मीदें। कई लोगों की बधाइयां मिली...अच्छा लगा बुरा भी...नए साल की बधाई का बुरा क्या लगेगा...यह ऐसा शहर है कि दिल मिले न मिले लोग हाथ ज़रूर मिलाते हैं...साल की शुरुआत श्रीलंकाई टीम पर आतंकवादी हमले से हुई...आख़िर में भी २६/११ बरसी हम मनाते रहे। प्रधानमंत्री अमेरिका से कोपेनहेगन तक घूमते रहे...जनता महंगाई में पिसती रही...वह कहते रहे आर्थिक मंदी का भारत पर कोई असर नहीं पड़ा...लोगों को नौकरी से बाहर का रास्ता दिखाता जाता रहा...टीम इंडिया वनडे में बिना कुछ किए नंबर एक पर पहुंच गई...टेस्ट में उसकी मेहनत रंग लाई यहां भी पहले पायदान पर वह पहुंची... बिना मेहनत से ख़ून भी पानी हो जाता है...टीम इंडिया के वनडे के नंबर एक का ख़िताब भी छिन गया...सचिन वनडे में सत्रह हज़ारी बने पर १७५ रनों की ऐताहिसक पारी खेलने के बावजूद कंगारूओं के ख़िलाफ़ टीम को जीत नहीं दिला सके फिर भी वह एक महान खिलाड़ी हैं...इसी साल क्रिकेट करियर में उन्होंने २० साल का सफ़र तय किया...प्रभाष जोशी शायह सचिन की हार्ट अटैक वाली पारी से ही गुज़र गए...हमने अभी तक जीवित एकमात्र सही और सच्चे पत्रकार को भी गंवा दिया...मीडिया में मायाजाल चलता रहा...राखी का स्वयंवर...सच का सामना....और अब राज़ पिछले जन्म का चल रहा है....राठौर ने रुचिका को आत्महत्या करने पर विवश किया...पर वह १९ सालों बाद भी जेल नहीं पहुंच सका...सरकार उसका सत्कार करती रही...मीडिया में ख़बरे इस साल बनी नहीं बनाई गई...कोई घटना घटी नहीं उसे घटने दी गई...पूर्वोत्तर इस साल भी हिंसा की आग में जलता रहा...सरकार सोई रही...हम भी खामोश रहे...साल के आख़िर में सबसे अधिक युवा वाले देश में एक ऐसी फिल्म आई जिसने युवाओं को झकझोड़ दिया...भाजपा का भी युवा चेहरा सामने आ गया...गडकरी ने गद्दी संभाल ली...हत्या, भ्रष्टाचार के आरोप में सोरेन का इस्तीफ़ा मांगने वाली बीजेपी झारखंड में आदर्शों और जनता को ठेंगा दिखाते हुए सोरेन के साथ हो गई...आख़िर दुनिया में आबादी बढ़ती जा रही है...ग्लोबल वार्मिंग का मसला छाया रहा लोग बढ़ते जा रहे हैं...समस्याएं भी बढ़ीं....फिर भी उम्मीद है नया साल ख़ुशियों की नई सौगात लेकर आएगा.....मीडिया में बनाई गई और घटाइ गई ख़बरे नहीं देखने को मिलेंगी...अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री देश के सभी लोगों की ज़िम्मेदारी उठाएंगे...
नए साल की ढेर सारी शुभकामनाएं.........
नए साल की ढेर सारी शुभकामनाएं.........
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