पत्रकारिता के नए मापदंड गढ़े जा रहे हैं। हर मालिक संपादक बनता जा रहा है। संपदाक किसी कंपनी का सीईओ। रण फिल्म अभी तक देखी नहीं है. लेकिन इसको लेकर जितनी बहस हुई और हो रही है, वह काफी कुछ कहती है. मीडिया के लोग कह तो रहे हैं कि हम आत्ममंथन कर रहे हैं. पर कर कोई नहीं रहा है. यहां भी अपनी चालाकी से लोगों को बेवकूफ बनाकर टीआरपी बटोरने की कोशिश चल रही है. जो लोग स्वर्ग की सीढ़ी और रावण की रणनीति आज भी दिखा रहे हैं, वह भी प्राइम टाइम में वही इसके खिलाफ़ अखबारों और बहस-चर्चाओं में इसकी मुखालफत कर रहे हैं. भूत प्रेत दिखलाने वालों की तो बात ही छोड़ दीजिए. किसी ने सच ही कहा है कि, मैं ही सही हूं का एहसास बहुत दुख देता है. लेकिन आजकल इन्हीं लोगों का बोलबाला है. सबसे बड़ी बात कि ये ख़ुद को सही साबित करने में भी सक्षम हैं. बड़ी होशियारी से ख़ुद की बातों को दुनिया के सामने पेश करने की कला इन्हें खूब आती है. आख़िर आए क्यों नहीं इतने सालों तक यही तो सीखा और किया. हमारे पहचान के एक जनाब है. जब पहली बार उनसे मिला तो जानकर अचंभित हो गया कि आखिर कोई आदमी भला हर विषय की इतनी बड़ी समझ कैसे रख सकता है. वाक़ई आप उनसे किसी मुद्दे पर बात कर लीजिए. मेरा यकीन ही नहीं दावा आपका ब्रेन वॉश करनेकी कुव्वत तो वह रखते ही हैं. यह मैं किसी की तारीफ़ या वकालत नहीं कर रहा हूं. न ही किसी के सामने अपनी बुद्धिमत्ता को घुटने टेक रहा हूं. लेकिन यदि आप किसी काबिलियत के कायल हो जाते हैं तो एक ईमानदार इंसान होने के नाते उसे उसकी क्रेडिट तो देनी ही चाहिए. इतना समझ लीजिए कि अंग्रेज़ी में एक कहावत है...जैक्स ऑफ ऑल ट्रेड एंड मास्टर ऑफ नन. इन जनाब के लिए मास्टर ऑफ नन की जगह मास्टर ऑफ ऑल का फार्मूला सटीक बैठता है. हर लिहाज से उचित.पहले यह जनाब किसी मीडिया हाउस में काम करते थे. वहां इन्होंने काया पलट कर दिया. सकारात्मक अर्थों में. लेकिन उसूलों के साथ जो खिलवाड़ किया उसका कोई सानी नहीं है. मुझे मालूम है...यहां मुझे बकायदा उदाहरण देना चाहिए. उनके नाम का खुलासा करना चाहिए...पर नहीं कर सकता...यही आजकल ईमानदारी का उसूल हो गया है. और समझ लीजिए कि मैं भी ईमानदार हो गया हूं. आज भी उन जनाब के बारे में मेरी राय वहीं है. अभी भी वह बहुत बड़े ज्ञानी पुरुष हैं. लेकिन उनके ज्ञान का एंगल बदल गया है. पहले भी बदला हुआ था. पर काफी करीब से किसी को देखने के बाद ही किसी के बारे में एक स्थाई राय बन पाती है. अब या तो मेरी राय बदल गई है या उनको समझने में मैंने ही कहीं ग़लती कर दी. इतनी ज़्यादा फिलॉसफी करने के बाद मन करता है. सारी हकीकत आपके सामने बयां कर दूं. करूंगा भी ज़रूर. लेकिन मैं खु़द को परखना चाहता हूं कि मेरा ज़मीर अभी भी ज़िंदा है या नहीं.मैं कितना उसकी वहमपरस्त विचारों का शिकार बन सकता हूं. इसका इम्तिहान आख़िर मैं भी कब तक दे सकता हूं. ज़रा मुझे मोहलत दीजिए मैं अपने अंदर की आवाज़ को दुनिया और मीडिया की मक्कारी से बाहर निकाल सकूं.


