मीडिया की भाषा

मीडिया की भाषा ऐसी होनी चाहिए की राष्ट्रपति से लेकर रेल मंत्री ( रिकशावाला) तक समझ सके। हमारे पत्रकार ऐसी भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं। मसलन कुत्ते, कमीने जल्दी ये पैकेज करके लाओ। सा...........ले कब से बोल रहा हूँ तुम्हे अब तक तुमने ये करा नहीं। आप और हम बाहर से जो देखते हैं हकीक़त कुछ और ही होती है। ज़रा-ज़रा सी बात पर ये एक दूसरे को गलियों से ही बात करते हैं। कहते हैं काम का प्रेशर बहुत ही ज़्यादा होता है इस फील्ड में। इसलिए ये सब चलता है लोग आपस में बुरा मानते भी नहीं। थोडी देर पहले जो किसी को गली दे रहा था आप देखेंगे की वही अब उसके साथ हंसगुल्ले के मज़े ले रहा है कैंटीन में। सिगरेट का कश ले रहा है। दुनिया को तमाम तरह के उपदेश देने वाले ख़ुद कितने पानी में होते हैं इसका अंदाजा तो उन्हें भी होता होगा । बात-बात पर भो.............री के और ब.........न के , माँ.............द जैसे अलंकारों का इस्तेमाल करने वाले , हमारी लोकतंत्र के चौथे खम्भे की हिफाज़त करने वाले ये वीर सपूत अड़ पड़ते है किसी भी न्यूज़ को लेकर। इनकी भाषा को सुनकर मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है, जिसे मैंने हाल ही में कहीं सुना था...........................
"वो जो लोग थे बदजुबान यहाँ,
बाँटते फ़िर रहे हैं ज्ञान यहाँ........."
मेरी समझ में ये बात नहीं आती, आख़िर बिना गाली -गलौज के काम नहीं चल सकता क्या? ये कोई ज़रूरी नहीं आप या हम किसी को गाली दे तभी काम ठीक से कर सकता है।
ये तो कुछ महज़ नमूने ही थे.........पूरी फ़िल्म तो अभी बाकी है मेरे दोस्त। इन्ही वजहों से आजकल एक ऐसा क्रेज़ बन पड़ा है की स्टुडेंट फ्रैंक बनने के लिए बेझिझक गलियों का इस्तेमाल करते हैं। हम और आप करते हैं। अगर आप नहीं करते हैं तो आप फत्तू हैं। ऐसा हम नहीं आपके ही वो दोस्त कहेंगे जो इस मामले में आपसे ज़्यादा माडर्न होंगे। एक फैशन बन गया है गाली देना। रेपुटेशन की बात हो गई है। जो जिसको जितना गाली देता है उसे उतना ही प्यार करता है। ये कैसी सोच है हमें तो भाई समझ में नहीं आता । कैसा वर्क कल्चर है समझ से पड़े है। फ़िर भी है तो है। तो चलिए हम भी एक न्यूज़ पैकेज बनाते हैं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,ओये देख एक आधे घंटे की स्टोरी करनी है ज़ल्दी से स्टोरी एडिट वगैरह करके फाइनल कर दे टाइम नहीं है । थोडी देर बाद, क्या हुआ बे........तेरी समझ में बात नहीं आती क्या भोस...........................के। यहाँ क्या अपना ..............कराने बैठा है। आ जाते हैं सा...........ले.............कराने ,ह........मी ,,,बहा......के । अपने......................बा......का.....समझ रखा है क्या....????????????????

जय हो ऐसी भाषा की ??????

3 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  2. बहुत ही अच्छा लिखा है भाई. पढ़कर दिल खुश हो गया. अगर इसी तरह लिखते रहे तो तुम्हारी जॉब पक्की है. एक बात और थीम बिलकुल नयी है. जय हो आपकी भाषा की.

    ReplyDelete
  3. विषय अच्छा था पर मीडिया की भाषा पर व्यंग कुछ और अच्छे शब्दों में किया जा सकता था....

    ReplyDelete