भारत-पाकिस्तान... दो मुल्क, पर राजनीति एक!


पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान... इस पाकिस्तान की कोई बात नहीं करना चाहता। चाहता भी है, तो बस तोप-बंदूकों की जुबान में। कोई पाकिस्तान की बर्बादी का जश्न मनाना चाहता है, तो कोई पाकिस्तान का नाम भर लेकर ही हिंदुस्तान में राष्ट्रवाद की अलख जगाना चाहता है। उसका नाम लेकर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के सिवा पाकिस्तान से उसका कोई और राब्ता नहीं।
कमोबेश यही हालात सरहद के उस ओर भी हों! यहां के हुक्मरानों की तरह वहां भी सत्तानशीं के लिए हिंदुस्तान की फिक्र बस इसलिए होती है कि पावर पॉलिटिक्स में कहीं से कमजोर न नजर आएं। उनके ख्यालों में जनता हमेशा से इन सबके बाद की प्राथमिकताओं में रही है, अगर रही भी है तो! 
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डॉन वेबसाइट के मुताबिक, पाकिस्तान में कोरोना वायरस के कुल मामले तकरीबन दो लाख के आंकड़े तक पहुंच चुकी है। चार हजार से ज्यादा की मौत हो चुकी है। हिंदुस्तान में यही संख्या पांच लाख से अधिक है और यहां 15 हजार से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। सीमा के दोनों तरफ आर्थिक हालात किसी से छिपी नहीं है। पाकिस्तान की थोड़ी ज्यादा खस्ती होगी। लेकिन दोनों मुल्कों में राजनीति अजीब ही करवट ले रही है।
वरिष्ठ पाकिस्तानी कॉलमनिस्ट खालिद अहमद इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि जब इमरान खान ने 2018 में देश की बागडोर संभाली तो अर्थव्यवस्था की हालत बहुत ही खराब थी। उन्हें विरासत में मिली इस खस्ताहाल अर्थव्यवस्था से निपटने की चुनौती मिली। लेकिन इमरान के करिश्मा यानी उनकी पर्सनैलिटी से उनकी चुनौती और कई गुना बढ़ गई। वह एक तेज गेंदबाज की तरह आक्रामक थे, बतौर कप्तान काम पूरी तरह खत्म करना चाहते थे, लेकिन राजनीति समझौतों और वक्त के साथ तालमेल बिठाने का नाम है। आज लगभग दो साल बाद भी हालात कम नहीं हुए हैं। विपक्ष कहीं दिख नहीं रहा है, लेकिन कोरोना वायरस महामारी और टिड्डियों के हमले से उनकी पार्टी पाकिस्तान-तहरीके-इंसाफ जबरदस्त दबाव में है। अंदरखाने पार्टी में सिरफुटौव्वल चल रहा है। कई मंत्रियों के विभाग छीने जा रहे हैं, तो कई को सख्त निर्देश दिए जा रहे हैं। फवाद चौधरी के नाम से सभी वाकिफ हैं। पहले सूचना मंत्री थे, लेकिन ओहदा छीन लिया गया और साइंस एंड टेक्नॉलजी मंत्रालय की जिम्मेदारी दे दी गई। उनके बिना सुरताल की बोली ने इमरान की छवि बहुत खराब की है। इमरान की दो सबसे बड़ी ताकते हैं उनकी दोनों विपक्षी पार्टियां- पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी)। लेकिन सेना और नेशनल अकांउटबिलिटी बिल (नैब) की वजह से पूरे परिदृश्य से नदारद हैं।
अब हिंदुस्तान लौटते हैं। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ताकत क्या है? सोचिए... कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार। महात्मा गांधी नहीं, गांधी परिवार मतलब नेहरू, सोनिया और राहुल गांधी। जब भी कोई संकट या समस्या आती है तो क्या हमारे देश के प्रधानमंत्री नेहरू और गांदी परिवार पर हमला बोलना शुरू नहीं करते। क्या बीजेपी नेहरू और गांधी परिवार के पीछे नहीं पड़ जाती है? हालिया उदाहरण ही ले लीजिए। चीन से सीमा विवाद चरम पर है। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से लेकर सारे प्रवक्ता तक नेहरू-गांधी परिवार के पीछे नहीं पड़ गए हैं। अब गांधी परिवार ने 45 साल से ज्यादा वक्त तक देश पर शासन किया है तो जनता का मिजाज भी उनसे खफा-खफा है। वह पिछले छह साल से सत्ता में काबिज बीजेपी सरकार की जगह अब भी विपक्ष से ही सारे सवालों के जवाब की उम्मीद करती है। या ऐसा कहें कि जनता के दिमाग को इस तरह फीड कर दिया गया है कि वह सरकार से सवाल पूछने की हिमाकत ही नहीं कर सकती।
इसकी मिसाल यह है कि जब चीन हम पर बार-बार चढ़ रहा है, तो प्रधानमंत्री से लेकर बीजेपी के सारे आला नेता उसे जवाब देने की जगह नेहरू-गांधी परिवार का झुनझुना जनता के अहं को संतुष्ट करने के लिए बेच रही है। सरेआम झूठ बेचा जा रहा है। प्रधानमंत्री जी सर्वदलीय बैठक में कहते हैं कि लद्दाख में झड़प हुई। हमारे 20 जवान शहीद हो गए, लेकिन कोई हमारी सीमा में घुसा ही नहीं। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा कहते हैं कि मौजूदा समस्या की जिम्मेदारी नेहरू की है। बीजेपी अध्यक्ष कहते हैं कि एक परिवार की गलतियों के कारण 43 हजार स्क्वेयर किलोमीटर (यह कितना सही है कोई फैक्ट चेकर ही बताए) भूमि चली गई। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि राजीव गांधी फाउंडेशन को चीन से 90 लाख की फंडिंग की गई। लद्दाख से बीजेपी सांसद जमयांग सेरिंग नामग्याल का मानना है कि कांग्रेस के शासन में चीन ने डेमचोक सेक्टर के उसके इलाके तक कब्जा कर लिया।मतलब चीन ने भारत से जंग जैसे हालात छेड़ रखे हैं और सारी लड़ाई कांग्रेस के खिलाफ लड़ी जा रही है।
पाकिस्तान में इमरान खान देश की बर्बाद होती अर्थव्यवस्था पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। आतंकवाद को शह देने के कारण अबी एफएटीएफ की लिस्ट में वह बना हुआ है। बिजली संकट सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है, जिससे उद्योग धंधे चौपट हो रहे हैं। पिछले महीने पाकिस्तान में एक विमान हादसे में 97 लोगों की जान चली गई, तो पता चला कि यह किसी तकनीकी खामी नहीं, बल्कि पायलट आपस में कोरोना महामारी की चर्चा कर रहे थे। इस कारण वह विमान संभाल नहीं पाए और हादसा हो गया। फिर पता चला कि पाकिस्तान का हर तीसरा पायलट फर्जी डिग्री और लाइसेंस लेकर फ्लाइट उड़ा रहा है। आसमान में विमान उड़ाते हुए पायलट कोरोना की चर्चा कर रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान का प्रधानमंत्री कोरोना के मामले में खामोश हैं। वह पाकिस्तानी असेंबली में बोलते भी हैं, तो ओसामा बिन लादेन को शहीद तक बता जाते हैं। कश्मीर पर बाज नहीं आते।
यह कुछ ऐसा मसला है कि जनता भूखे मर जाएगी, लेकिन इन मुद्दों पर सरकार से सवाल नहीं करेगी। ठीक उसी तरह जैसे हिंदुस्तान में जनता राष्ट्रवाद और विपक्ष का नाम आते ही मोदी सरकार के खिलाफ सवालों को सुनने से पहले कान बंद कर लेती है। आखिर पाकिस्तान हमारा पड़ोसी देश ही तो है। 1947 से पहले तो हमारा ही हिस्सा था। क्या हुआ जो दो अलग-अलग मुल्क बन गए। एक ही परिवार को दो भाई भी अलग होता ही है, लेकिन इस अलगाव या बंटवारे के बावजूद दोनों की फितरत तो वही रहती है। पाकिस्तान-हिंदुस्तान की भी यही हालत है। दोनों मुल्कों के नेताओं की नब्ज भी वही है।

इकोनॉमी, कोरोना अब चीन-नेपाल, हमारा लीडर बजा रहा बस गाल

नरेंद्र मोदी... नाम तो सुना ही होगा... देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। उनका सबसे बड़ा हथियार है, उनकी सोच। सार्थक या घातक, उसका फैसला जनता कर चुकी है। जनता से वह कुछ इस तरह पेश आते हैं, “जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे...लेकिन जनता को जो चाहिए, उसके लिए जरूरी है, वह नहीं कहते। मौजूदा समय और संकट कुछ ऐसा ही है। देश नेतृत्व संकट से गुजर रहा है, लेकिन वह जनता को अभी भी नए रैपर में राष्ट्रवाद और कांग्रेस विरोध की पुरानी टॉफी खिलाते जा रहे हैं।
अब ज़रा याद करिए भारतीय क्रिकेट का वह दौर... जब सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, सदगोपन रमेश, आकाश चोपड़ा, नयन मोंगिया जैसे खिलाड़ी किसी देश के खिलाफ उतरते थे, तो कागजों पर टीम हमेशा बीस ही नजर आती थी। लेकिन मैदान में उतरते ही सारी गलतफहमी ढेर हो जाया करती थी। देश की हालत भी कुछ वैसी ही है। 56 इंच के कप्तान प्रधानमंत्री से लेकर तेजतर्रार गृहमंत्री और आर्थिक मोर्चे पर आग उगलने वालीं वित्त मंत्री सीतारमण जी। बीच में कभी रोबिन सिंह ऑलराउंडर के तौर पर आए थे...
इसमें कोई शक नहीं कि आज रिपब्लिक ऑफ इंडिया यानी भारत नेतृत्व के गंभीर संकट से गुजर रहा है। देश की हालत उसी दौर के क्रिकेट की तरह हो चुकी है।
PM Modi with Chinese President. Photo: Internet
हमारे सामने अभी तीन बड़ी समस्याएं हैं। कोरोना महामारी, चीन से तनाव और आर्थिक संकट। बाकी सारी समस्याएं इनकी बाई-प्रोडक्ट हैं। हालांकि, अगर आप क्रमवार देखेंगे तो सबसे पहली समस्या आर्थिक मोर्चे पर थी। इस मोर्चे पर सरकार लगातार नाकामयाब साबित रही। जब सारे तीर-तुक्के असफल साबित हुए, तो जीडीपी से लेकर बेरोजगारी के आंकड़ों में हेरफेर से भी बाज नहीं आई। इसका चर्चा खूब हो चुकी है। इन असफलताओं के बावजूद मोदी की सरकार लगातार दूसरी बार सत्ता में आने में सफल रही। तो इस मोर्चे पर बात करना एक तरह से बेमानी या फिर जनता ही इस काबिल है कि वह सामने खाई देखकर भी उसमें छलांग लगाने को एंडवेंचर का नाम देती है।
दूसरे मोर्चे की बात करते हैं। करोनो महामारी। इस मोर्चे पर भी सरकार नोटबंदी की तरह बिना किसी तैयारी के मैदान में उतर गई। लाखों लोग सड़कों पर आ गए। पैदल ही अपने घरों को कूच करने लगे। कई जान गई, तो कई की जान ली गई। लेकिन यहां भी गलतियों से सीखने की जगह पुराने ट्रिक्स के भरोसे सरकार काम करती रही। जब कोरोना संकट हाथ फिसलने लगा, तो राज्य सरकार के मत्थे जिम्मेदारिया मढ़ी जाने लगीं। राजनीतिक रंग-रोगन में इस महामारी से सामना किया जाने लगा। पहले पश्चिम बंगाल, फिर महाराष्ट्र। हर रोज ऐसे फरमान आने लगे कि उस फरमान को समझाने के लिए एक नया फरमान जारी किया जाने लगा। यहां भी अपने सबसे मजबूत हथियार झूठ और सांप्रदायिकता से मोदी सरकार अपनी नाकामयाबी पर पैबंद लगाती दिखी। इस कोशिश में आईटी सेल और लगभग रेंग रही मीडिया ने बखूबी साथ दिया। जब भी बाजारों या धार्मिक स्थलों में भीड़ दिखती तो मुसलमान एंगल खबरों और सोशल मीडिया पर पसरा मिलता। हम इसको भी छोड़ते हैं, क्योंकि अब महामारी को लेकर दावे औऱ वादे कितने भी किए जाएं, अब सबकुछ भगवान भरोसे ही छोड़ दिया गया है। नहीं, तो टेस्टिंग, क्वांरटीन, मेडिकल साजोसामान, स्वास्थ्य-व्यवस्था के चर्चे होते न कि हिंदू-मुसलमानों के। बीजेपी राज्यों में पीपीई किट को लेकर घोटाले हुए, प्रदेश अध्यक्ष को इस्तीफा तक देना पड़ा। लेकिन, हुआ क्या? हुआ यह कि कोरोना महामारी के नाम पर कुछ गैर-बीजेपी राज्यों की सरकार गिराने की कोशिश की गई। एक राज्य में सरकार बना भी ली गई। कुछ में दूसरे दलों के विधायकों को खरीदा गया। कुल जमा यही कामयाबी है इस कोरोना के खिलाफ सरकार की लड़ाई का।
अब लौटते हैं चीन पर। न तो वहां कोई हमारी सीमा में घुसा हुआ है और न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है।अब यह मशहूर डायलॉग तब तक गूंजता रहेगा, जब तक दुनिया रहेगी। इस पर कई सवाल उठ चुके हैं कि जब न कोई घुसा है, तो फिर 20 जवान हमारे शहीद गोटियां खेलते हुए तो नहीं ही हुए। अगर किसी देश का प्रधानमंत्री इस तरह का गैर-जिम्मेदराना बयान दे, तो उस देश की सरहद की सुरक्षा भी भगवान भरोसे ही हो सकती है। इस मुद्दे पर भी ज्यादा बोलना सूरज को दिया दिखाने के बराबर है। फिर भी कुछ बातें तो की ही जा सकती है। कहां तो सरकार को मुंहतोड़ जवाब चीन को देना था, लेकिन सारी ऊर्जा और पैसा नेहरू और कांग्रेस पार्टी को जवाब देने में खर्च किया जा रहा है। जब देश के प्रधानमंत्री के बयान को ही आधार बनाकर दुश्मन देश हम पर ही आरोप लगाए, तो इससे ख़तरनाक नेतृत्व देश के लिए कुछ नहीं हो सकता है। इसमें पत्रकारों की फौज भी सरकार के बचाव में खुलेआम कूद गई है। कुछ पत्रकारों ने बाकायदा सोशल मीडिया पर लिखा इतिहास की गलतियों की सजा भविष्य को भुगतना पड़ता है। लेकिन उन्होंने तो वर्तमान को सिरे से गोल ही कर दिया। आखिर वर्तमान क्या है?, जिसकी पर्देदारी की जा रही है। कौन और कब, किस मकसद से क्या बोल रहा है? यह याद रखा जाना चाहिए। बाकी पड़ोसी देशों की जिक्र ही क्या किया जाए? नेपाल से हमारा रोजी-बेटी का संबंध आज से नहीं, बल्कि वर्षों से है। लेकिन वह लगातार भारत की ओर शत्रुता भरे कदम उठाता जा रहा है। पाकिस्तान से ताल्लुक पहले से ही खराब हैं। श्रीलंका हमारे हाथ से कब का निकल चुका है। रूस से पहले से जैसे संबंध रहे नहीं। अमेरिका में ट्रंप का बड़बोलापन कभी खुद उन्हें तो कभी उनके साथ ताल्लुक रखने वाले देश और नेताओं को बीच सड़क पर नंगा करके रख देता है।
लेकिन यहां सवाल उठता है कि आखिर हर मोर्चे पर हमारा नेतृत्व इतना विफल क्यों है?
चार मार्च 2020 की इकोनॉमिक्स टाइम्स की खबर है। खबर विदेश मंत्रालय के हवाले से लिखी गई है कि पिछले पांच साल में नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर करीब 446.52 करोड़ रुपये खर्च किए। जब किसी देश का मुखिया विदेश यात्राओं पर इतना खर्च करे, तो लगभग सारे देशों से न सही पड़ोसियों से ताल्लुक बेहतर होने की गारंटी ली ही जा सकती है। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर नाकामयाबी की कीमत आज देश को चुकानी पड़ रही है। और इसकी जिम्मेदारी आईटी सेल और बिकाऊ मीडिया के जरिए उसी नेहरू और कांग्रेस पार्टी पर डाली जा रही है, जिसकी बदौलत मोदी सत्ता में हैं।

लॉकडाउन में भूख से मरते ग़रीब, लेकिन गिद्धभोज में जुटे हैं सत्ता के सरमायेदार


दिल्ली-जयपुर नेशनल हाइवे पर एक मजदूर भूख की वजह से मरे हुए कुत्ते का मांस खाने को मजबूर हो गया। ख़बर बस इतनी है। एक ऐसी ख़बर जिससे सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। गरीबों की आंखों के आंसू पोछने की बात कहने वाले नरेंद्र मोदी 6 साल से देश के प्रधानमंत्री हैं और उसी दिल्ली में रह रहे हैं, जहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर यह वाकया होता है।
देश की गरीबी दूर करने की बात कहने वाले भुखमरी तक हालात लेकर आ गए। लोकतंत्र को गाली देने वाले लोकतंत्र के मंदिर में बैठकर गिद्धभोज करने लगे। सरकारें बिल्कुल फेल हो चुकी हैं, कृपया यह तस्वीर कोई सरकारों तक पहुंचा दे। खुद को राजनीति का चाणक्य कहने वाले बस चुनावी जयचंद बन कर रह गए हैं। जब अपना घर यानी देश त्रासदी से घिरा है, तो उनकी खोजखबर भी नहीं है। चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता हासिल करना, फर्जी राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदू-मुसलमान की खाई पैदा करना ही चाणक्य नीति नहीं होती है। वक्त बुरा है...वक्त बदलेगा, लोग भी बदलेंगे...
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दिल्ली-जयपुर हाईवे पर भूख को बर्दाश्त न करने वाली रोंगटे खड़े करने वाली तस्वीर क्या सत्ता में काबिज अंधों को नहीं दिखती। यह तस्वीर बताती है कि कोरोना वायरस को लेकर सरकार की नीतियों ने आम इंसानों को क्या बना दिया है। इंसान एक मरे हुए कुत्ते को खाने को मजबूर है। आख़िर यह सरकार किसकी है। बस अमीरों और नेताओं की, जिनकी भूख इन ग़रीबों की भूख से अलग है। ग़रीबों की भूख कुछ खाने की है, तो उनकी कुछ पाने की। गरीबों की भूख को बस रोटी चाहिए, इन नेताओं की भूख पैसा और सत्ता की मांग करती है।
इस लॉकडाउन में भूख से मौतों की घटनाएं आम हो रही हैं और अब यह नया मामला भी सरकार को अगर सोचने पर मजबूर नहीं करती है, तो सोचिए हालात कहां तक बदल गए हैं। पहली बार लॉकडाउन लागू होने के बाद से ही देश भर में लोगों को काम मिलना बंद हो गया। गरीब दिहाड़ी मजदूरों पर सबसे ज्यादा मार पड़ी। इसकी एक मिसाल यह है। घटना 31 मार्च की बिहार के भोजपुर ज़िले के आरा की है। मुसहर समुदाय से आने वाले आठ वर्षीय राकेश की मौत 26 मार्च को हो गई थी। उनकी मां का कहना है कि लॉकडाउन के चलते उनके पति का मजदूरी का काम बंद था, जिससे 24 मार्च के बाद उनके घर खाना नहीं बना था। इसके बाद 17 अप्रैल को मध्य प्रदेश में एक बुजुर्ग की भूख से मौत की खबर आई। बुजुर्ग सड़क किनारे बैठकर लोगों से मांगकर खाता था। लॉकडाउन में सब बंद हुआ तो उन्हें खाना देने वाला भी नहीं रहा। सरकारें तो दावा करत रहेंगी कि सबका ख्याल रखा जा रहा है, लेकिन किस तरह रखा जा रहा है, वह भूख से होने वाली मौतें साफ बयां कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में एक 60 साल के प्रवासी कामगार की भूख से मौत हो गईयह शख्स तीन दिन पहले महाराष्ट्र से अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ यात्रा शुरू की थीपरिवार के सदस्यों का कहना था कि कई दिनों से उन्होंने खाना नहीं मिलने पर कुच नहीं खाया था। फिर एक खबर आई 19 मई को कि झारखंड में महज पांच साल की बच्ची की भूख से मौत हो गई। सरकार अमला भूख से मौतों से इनकार करने में जुट गया, लेकिन जिस परिवार ने अपनी बच्ची को खोया कोई उसकी फरियाद नहीं सुनने वाला।
अगर किसी मामले का आकलन करने के लिए सैंपल सर्वे का सहारा लिया जाता है, तो भूख से होने वाली मौतें आखिर क्या कहती हैं। सिर्फ एक क्षेत्र या राज्य ही नहीं... लॉकडाउन के बाद और सरकारी सुस्ती के बीच भूख से मौतें हर तरफ हो रही हैं। हम वैसे मामलों को ही देख-सुन या जान पा रहे हैं, जो मीडिया में आ रहे हैं। कई मामलों को दबाया जा रहा है या फिर उसे अखबारों/मीडिया तक आने से पहले ही खत्म कर दिया जा रहा है।

लॉकडाउन में पलायनः 16 दिन की बच्ची, 40 डिग्री सेल्सियस की धूप... शर्म तो नहीं ही आती होगी सरकार


हमारे घरों में जब बच्चे का जन्म होता है, तो मां और बच्चे को कितने ख्याल से रखा जाता है यह तो मिडिल से क्लास से लेकर सोशल मीडिया वाले क्लास को भी बखूबी पता ही होगा। जब कोई महिला बच्चे को जन्म देती है, तो संवर कहे जाने वाले 15 दिन के पीरियड में मां-बच्चे को बाहर की हवा नहीं लगने दी जाती, लेकिन गरीबों पर यह भला कब से लागू होने लगा...
इंदौर में भट्ठों पर काम करने वालीं सुमन अपनी 16 दिन की बच्ची के साथ 40 डिग्री सेल्सियस तापमान में लू के थपेड़ों के बीच पलायन कर रही हैं... फिर भी हमारे साथी कहते हैं कि इनको चुल्ल क्यों मची है भागने की... सरकारों को तो शर्म नहीं ही आती है, इंसान भी जब ऐसे लोगों के दुख और तकलीफ का मज़ाक उड़ाता है तो फिर दुनिया में बचता ही क्या है? इससे तो बेहतर है कि चौपाया ही बना रहता...
सुमन अपनी बच्ची के साथ। फोटोः ट्विटर
अब सरकारों का हाल कैसा है, यह अंदाजा लगाना चुटकी भर का खेल है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को ही देख लीजिए। दावे बहुत बड़े-बड़े। खुद को मजदूर प्रेमी साबित करने की होड़ और पीआर यानी विज्ञापन पर जितना पैसा खर्च किया, उससे कम सुध भी लोगों की ले लेते तो यह हालत बेघर और जरूरतमंद मजदूरों की नहीं होती। एक तरफ कांग्रेस की तरफ से मुहैया कराई गई बसों से भेजना उन्हें मुनासिब नहीं लगा। अगर इरादा नेक न हो तो बहाने कई बनाए जा सकते हैं। वही किया गया इस पूरे मामले में। पहले 1000 बसों की लिस्ट मंगाई गई और जब आ गई तो बसों में नुक्ताचीनी। यह माना जा सकता है कि 1000 बसों में 300 से ज्यादा सही नहीं भी रहे होंगे, लेकिन बाकी की बसों से भेजने से क्या हो जाता? लेकिन दूसरे दलों से बात-बात पर राजनीति न करने की अपील करने वाली भाजपा और इसके नेता कण-कण में राजनीति की तलाश करते हैं, जैसे कि कण-कण में प्रभु श्रीराम बसे हों।
लेकिन इरादा तो कभी इन गरीबों की मदद का रहा ही नहीं। यह तस्वीर है उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के अतर्रा की... कोरोना वायरस लॉकडाउन के दौरान फूड सब्सिडी स्कीम के तहत गरीबों को मुफ्त में एक किलो दाल दी जा रही है। चने की दाल का हाल आप खुद ही देखिए... दाल कम फफूंदी ज्यादा... इस दाल को जानवरों को भी खिलाना ज़हर के समान है और यहां उत्तर प्रदेश में महंथ जी की सरकार बड़े प्यार से ग़रीबों को खिला रही है। जितनी मेहनत बसों की फिटनेस और कागज की जांच में महंथ जी लगवाई है, काश इस दाल की हालत की भी जांच करवाकर लोगों को देते तो क्या हो जाता? लेकिन नहीं... पिसना तो दोनों ही स्थिति में गरीबों को ही है... भले वहां बसों को लेकर बहाना बनाना या फफूंदी वाली दाल खिलाना...
सरकार तो सरकार आम आदमी भी उससके प्यार में इतना अंध भक्त भला कैसे हो सकता है कि अपने जैसे लोगों की हालत भी उसे दयनीय नहीं लग रही है। कुछ लोग इस मामले में दोहरे पिच पर खेलते साफ दिख रहे हैं। इनको देश के मजदूर कोरोना के कैरियर नजर आते हैं, जबकि विदेशों से वंदे भारत मिशन के तहत जिन लोगों का बचाव करके लाया जा रहा है, उसके बारे में चूं तक करना मुनासिब नहीं समझते। ऊपर से तर्क यह कि विदेशों से आने वाले लोग अपने घर पहुंचकर नमक-रोटी का इंतजाम करने में सक्षम हैं, जबकि ये प्रवासी मजदूर घर लौटने के बाद भी सरकारी मदद के भरोसे रहेंगे। तो फिर सरकारें होती किसलिए हैं? लोगों का तर्क यह भी है कि मजदूर जहां थे, वहां ही सरकार मदद देती तो ठीक रहता। बिल्कुल ठीक रहता। लेकिन मदद करती तब तो.. आख़िर मदद मिल रही होती और जो समस्याएं इन मजदूरों के सामने हैं, उन्हें हल किया जाता, तो भला ये हजारों किलोमीटर पैदल चलक, अपने 4-5 साल के बच्चों को तेज धूप में लेकर और गर्भवती पत्नी को साथ बिठाकर क्यों ले जा रहे होते?
सवाल तो साफ है कि फिर सरकारों ने इनके लिए किया क्यों नहीं...सरकार पर सवाल उठाने के बजाय लोग मजदूरों पर ही सवाल उठा रहे हैं...सरकार अगर उनकी सोचती तो वे जाते भी क्यों...सरकार बस यही सोच रही है कि हादसे के बाद उसी ट्रक में लाश और घायलों को वापस गृह राज्य भेज दे रही है...इस पर तो बोलते नहीं देखा... अगर गलती मजदूरों की लग रही और यह भी कि मजदूर गांव जाकर कोरोना फैला रहे हैं तो गजब ही कहा जाए... फिर तो विदेशों से आने वाले क्या देश की डूबती अर्थव्यवस्था की नैया पार कराने के लिए सोना और कोरोना मरीजों के इलाज के लिए वैक्सीन लेकर आ रहे हैं...
बात यहीं तक खत्म नहीं होती? विदेशों से आने वालों के प्रति सहानुभूति कुलांचे मार रही हैं। लेकिन जान जोखिम में डालकर अपने घरों को जाने वाले मजदूरों से तीखे सवाल पूछने से बाज नहीं आते कि ये घर किसके भरोसे जा रहे हैं? बाप-दादा का खजाना गड़ा है? सहानुभूति से सत्य को नहीं झुठलाया जा सकता। इनकी मूर्खता पर संवेदना नहीं जताई जा सकती। जवाब तो साफ है कि संवेदना ऐसे लोगों से या फिर सरकार से ही कौन मांग रहा है? ये प्रवासी मजदूर तो कतई नहीं मांग रहे। हादसे में मौत के बाद लाशों और घायलों को एक ही गाड़ी से उके गृह राज्य पहुंचाने वाली सरकार से संवेदना की उम्मीद तो की भी नहीं जा सकती है। ऐसे लोगों से भी नहीं, जो 16 दिन के बच्चे के लिए आवाज़ नहीं उठाकर उसी से सवाल करते नजर आते हैं।
इन सबसे भी बड़ी बात कि क्या ऐसा नहीं है कि हमने बतौर देश इस मानवीय आपदा की घड़ी में एक वेलफेयर स्टेट की आवधारणा को पूरी तरह विफल कर दिया। यह किया है हमारे हुक्मरानों ने जो दिल्ली की गद्दी पर सत्ता के नशे में चूर हैं। खुद को राजनीति का चाणक्य कहने वाले बस चुनावी जयचंद बन कर रह गए हैं। जब अपना घर यानी देश त्रासदी से घिरा है, तो गृह मंत्री की खोजखबर भी नहीं है। चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता हासिल करना, फर्जी राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदू-मुसलमान की खाई पैदा करना ही चाणक्य नीति नहीं होती है। वक्त बुरा है, लोग नहीं। वक्त बदलेगा, लोग बदलेंगे।

तो क्या ज़ी न्यूज के संपादक ने ऑफिस आने के लिए साथी पत्रकारों को धमकी दी...


ज़ी न्यूज में पत्रकारों को कोरोना हुआ उससे दिक्कत नहीं है। वे सभी जल्दी स्वस्थ होकर फिर से लौटें। यही दुआ है। लेकिन दिक्कत इस बात से हैं कि किस तरह से खुद को बड़ा पत्रकार कहने वाले और रामनाथ गोयनका सम्मान से सम्मानित तिहाड़ी संपादक ने अपने साथियों को धमकाया। प्रमाणिक ख़बरें है कि जब ज़ी न्यूज़ में एक के बाद 13 लोग संक्रमित पाए गए तो तिहाड़ी संपादक ने मोटिवेशनल स्पीचदिया।
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कोरोना वायरस का मामले आने के बाद सबसे ज़ी न्यूज के स्टाफ को WION बिल्डिंग में शिफ्ट किया गया। इस पर एक पत्रकार ने कथित तौर कहा, ‘क्या हम सभी तब्लीगी हैं?’ इसके बाद रामनाथ गोयनका (पता नहीं किन-किन लोगों को मिल जाता है, उन्हें भी जिन्होंने दलाली के बदले तिहाड़ की सैर कर ली हो) अवॉर्डी संपादक जी ने मोटिवेशनल स्पीचदिया और कहा, “ घबरा क्यों रहे हों? मैं भी कैरियर (कोरोना का वाहक/फैलाने वाला) हो सकता हूं। पर काम कर रहा हूं न।इसके बाद बाकियों से धमकी भरे लहजे में कहा गया, “जो लोग बहाना बनाके ऑफिस नहीं आ रहे हैं, उनको हम देख रहे हैं...कब तक नहीं आएंगे? 5, 10 या फिर 15 दिन...
अब यह तो हाल है... (और इनपुट का इंतजार...)

महंथजी की सरकार और यूपी पुलिस की लाठियों से छलकती 'मर्दानगी'


लोग सवाल कर रहे हैं... आख़िर कोई पुलिस, जो एक इंसान भी होता है, वह इतना क्रूर और अमानवीय कैसे हो सकता है। आपको उत्तर प्रदेश पुलिस के दानवीय और राक्षसी चेहरे से रूबरू कराने वाले कुछ विडियो से रूबरू कराता हूं। फिर सोचिए यह पुलिस का काम है...या पुलिस अपनी वर्दी का धौंस दिखाकर हैवानियत पर उतर आई है, क्योंकि कोरोना वायरस की वजह से उस पर काम का दबाव ज्यादा है और ऊपर से पहले जो ऊपरी माल यानी घूस मिलता था वह मिलना बंद हो गया है, जिससे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है, क्योंकि यही पुलिस अमीरों के घर पर उनके बच्चों के जन्मदिन के मौके पर केक लेकर जा रही है, लेकिन गरीबों के बुजुर्गों को लाठियों से मार रही है। बुजुर्गों को तो छोड़िए, उत्तर प्रदेश की पुलिस ने गरीब बच्चे को भी नहीं बख्शा है। उसके साथ इतनी हैवानियत भला क्यों? क्योंकि वह गरीब का बच्चा है... शर्म है...
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महोबा पुलिस एक बुजुर्ग की पिटाई करती हुई। अमीरों के बच्चो के लिए यही पुलिस बर्थडे में केक लेकर पहुंच रही है, जबकि गरीबों के बुजुर्गों को लाठियों से स्वागत कर रही है। यही है दोहरा चेहरा सरकार पुलिस का... हालांकि, महोबा पुलिस के ट्विटर अकाउंट से कहा है है कि इस मामले में जांच के साथ कार्रवाई की जा रही है।
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यह वीडियो उत्तर प्रदेश के नोएडा की है। महिलाएं राशन के लिए बाकायदा लाइन में लगी हैं, लेकिन पुलिस आती है और लाइन में लगी महिलाओं पर अपने पौरुष बल का प्रयोग करने लगती है। यह योगी आदित्यनाथ की पुलिस है। जहां नियमों का पालन करने वाले लोगों और महिलाओं को भी पुलिस की लाठी खानी पड़ती है। फिर से कहूंगा कि जो गरीब महिलाएं खुद बाहर आकर बेबसी में राशन ले रही हैं और वह भी लाइन में लगकर, ताकि अपने बच्चों का पेट भर सकें, उन्हें लाठी मिल रही है, जबकि कोठियों और फ्लैटों में अमीरों के घर पुलिस सरकारी गाड़ी से जन्मदिन का केक पहुंचा रही है। बहुत बहादरी का काम कर रहा महिलाओंहाथ उठाकर। बकौल पुलिस विभाग इस मामले में प्रारंभिक जांच पर घटना की सत्यता स्थापित की गई है। उपनिरीक्षक सौरभ शर्मा को तुरंत निलंबित कर, विभागीय कार्यवाही शुरू की गई है।
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यह घटना उत्तर प्रदेश के ही बरेली की है। एक बच्चा फल की ठेली के पास खड़ा था, क्योंकि उसके पिता नहाने गए थे। तभी पुलिस वाले आए और डंडों से ताबड़तोड़ पीटना शुरू कर दिया। मासूम बच्चे को डंडे से बेरहमी से पीटा। शायद पुलिसवालों का अमीर के घर पहुंचाने वाले बर्थडे केक खत्म हो गया था, तो बच्चे को डंडों से पीटना शुरू कर दिया।
अब बताइए भला कोई इतना क्रूर कैसे हो सकता है? क्या यह बालक भेदभाव का शिकार हुआ? एक तरफ जहां पुलिस टीम केक लेकर घर पर पहुंच रही है, क्योंकि उसका पिता लेफ्टिनेंट है। वहीं, यह बच्चा इसलिए शिकार हुआ क्योंकि इसका पिता फल का ठेला लगाता है?
कायदे से इन सभी पुलिसवालों को 15 अगस्त के दिन परमवीर चक्र देना चाहिए। गरीबों पर बहादुरी जो दिखाई है।
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लॉकडाउन में पलायनः यह अंधा नहीं, सुप्रीम कोर्ट का धंधेबाज कानून है...

सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन में प्रवासी मजूदरों की घर वापसी और हादसों में उनकी मौतों के मामले पर याचिका की सुनवाई से इनकार कर दिया। देश की सबसे बड़ी अदालत का कहना है कि अगर लोग रेलवे ट्रैक पर सो जाएंगे तो इसमें क्या किया जा सकता है? जिन्होंने पैदल चलना शुरू कर दिया है, उन्हें कोर्ट कैसे रोक सकता है?
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सुप्रीम कोर्ट की यह बात पूरी तरह सही है। आखिर अदालतें कैसे रोक सकती है कि कोई पैदल क्यों जा रहा है?  इस शीर्ष अदालत का चीफ (पूर्व) जस्टिस तो उन्हीं मामलों की सुनवाई करेगा, जिसमें खुद पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा हो। मजेदार बात कि अपने ऊपर लगे आरोपों की सुनवाई के बाद जज साहब खुद के पक्ष में फैसला भी सुना देते हैं।
ऐसे में जब सुप्रीम कोर्ट कहता है कि कोर्ट के लिए यह निगरानी करना असंभव है कि कौन ट्रैक पर चल रहा है और कौन नहीं चल रहा है? सही बात है। सुप्रीम कोर्ट तो बस इस बात की निगरानी करेगा कि जब गुजरात हाईकोर्ट ने बीजेपी के एमएलए और राज्य के कानून मंत्री को अयोग्य ठहरा दिया, तो उसकी अयोग्यता के फैसले पर कैसे विराम लगाना है।
मजदूरों और बेसहारा लोगों को लेकर आखिर याचिका में क्या कहा गया था? यही न कि अदालत केंद्र सरकार से सड़कों पर चलने वाले प्रवासी मजदूरों की पहचान करने, उन्हें भोजन और रहने का ठिकाना देने के लिए कहे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट को क्या फर्क पड़ता है कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेलवे पटरियों पर सो रहे 16 मजदूर मालगाड़ी की चपेट में आएं या फिर उत्तर प्रदेश के औरैया में भीषण सड़क हादसे में 24 मजदूरों की मौत हो जाए। ये मजदूर तो अपनी गलती और खुद की मर्जी से जा रहे हैं न... तो इन मजदूरों की ही जवाबदेही बनती है कि उनके साथ क्या होता है सही बात है कि सुप्रीम कोर्ट उनके साथ क्या कर सकता है? तब तो सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन को हटवा देना चाहिए। वायरस से मजदूर मरते हैं तो मरने दें। इससे पहले 31 मार्च को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि सड़कों पर अब एक भी दिहाड़ी मजदूर नहीं है। बजाय केंद्र सरकार के इस झूठ पर लताड़ लगाने के लिए कोर्ट मजदूरों को ही दोषी ठहरा रहा है। 
देशव्यापी लॉकडाउन की वजह मजदूरों के पास अब नौकरी और रहने के लिए ठिकाना नहीं है। इस वजह से हजारों मजदूर हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों की ओर जा रहे हैं। कोई पैदल चल रहा है, तो कोई साइकल चलाकर जा रहा है तो कोई ट्रक पर बैठकर अपने गांव जा रहा है। लेकिन जज साहब को इन मामलों पर सुनवाई से क्या मतलब? जज साहब को तो बस खास बंगले, सड़क पर आवारा पशुओं के घूमने से आपत्ति होती है, गाड़ी के शीशे पर काली फिल्म की मोटाई से दिक्कत होती है? इन सब मामलों पर सुनवाई के लिए बहुत समय है। दरअसल, मजदूरों का मामला गरीबी से जुड़ा है। इन मामलों की सुनवाई से सुप्रीम कोर्ट का कोई हित नहीं जुड़ा है। मामला जैसे ही राजनीतिक या फिर अमीरों से जुड़ा हो तो जज साहब तुरंत कुर्रसी लेकर बैठ जाएंगे और फैसला भी उनके हक में सुना देंगे। लेकिन पैदल चल रहे बेबस प्रवासी मजदूरों के हादसों की याचिका पर सुनवाई से साफ मना कर देंगे।
जज साहब को यह भी नहीं दिखता कि कोई 15 दिनों से चल रहा है। मध्य प्रदेश जाना है। बच्चे को चोट लगी है, तो खाट पर लेटा कर कंधे पर ढोते हुए उसे ले जा रहे हैं। महिला सड़कों पर बच्चे को जन्म दे रही है, कोई पैदल ही चलकर दम तोड़ दे रहा है। जज साहब को यह भी नहीं दिखता कि किसी ने पैर गंवाए तो सने कृत्रिम पांव से दोबारा चलना सीखा होगा, लेकिन क्रूर हालात इम्तिहान ले रहे हैं, अब वो पैदल परिवार के साथ शहर से घर को निकली है तमाम मुश्किलों के बावजूद उसका हौसला टूटा नहीं है, लेकिन क्या यह सब देखने के बावजूद सरकार कहां है? सरकारों को तो छोड़िए, अदालतों को क्यों लकवा मार गया है?
कर्नाटक में बीजेपी की सरकार बनवाने और आतंकवाद के आरोपी के मामलों कीसुनवाई के लिए आधी रात में खुलने वाली देश की सबसे बड़ी अदालत आज वाकई अंधी हो गई। लॉकडाउन के बीच सुप्रीम कोर्ट दूसरे कई मामलों को लंबित करके रखता है। लेकिन, सत्ता और भाजपा से अघोषित ताल्लुक रखने वाले रिपब्लिक टीवी के मालिक और सेलिब्रिटी एंकर अर्नब गोस्वामी की याचिका को सुप्रीम कोर्ट में मामला सामने आने के चंद घंटों में ही समय दे दिया गया, जबकि प्रवासी मजदूरों के घर जाने जैसे अहम मामलों को प्राथमिकता नहीं मिली। अब प्राथमिकता तो छोड़िए, मजदूरों की याचिका को सुनने लायक भी नहीं माना।
जबकि यही सुप्रीम कोर्ट लॉकडाउन में तमिलनाडु में शराब की दुकानों को बंद करने के फैसले को पलटकर उसे खोलने का फैसला देता है। लेकिन मजदूरों की याचिका सुनने के लायक नहीं मानता। अगर हालिया कुछ फैसलों को देखें, तो कैसे सुप्रीम कोर्ट वक्त-दर-वक्त जन-विरोधी फैसले करता चला गया है और तमाम फैसले अमीरों और सरकार के पक्ष में देता गया। चाहे पटना हाई कोर्ट के फैसले को पलटने की ही बात क्यों न हो? कहां तो संविधान समानता की बात करता है और जब बिहार में स्थायी और अस्थायी शिक्षकों की सैलरी समान करने की बात आई तो सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के पक्ष में अपना दे दिया। हाल में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता रिटायर हुए हैं। इस मौके पर विदाई समारोह में उन्होंने भी खुद माना कि जब कोई किसी गरीब की आवाज उठाता है तो कोर्ट को उसे सुनना चाहिए और जो भी गरीबों के लिए किया जा सकता है वो करना चाहिए। जज ऑस्ट्रिच यानी शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर नहीं छिपा सकते।
(जारी...)

मजदूरों का पलायनः आख़िर भागने की चुल काहे मची है इनको? कभी घर से तो कभी घर को भागना...


12 मई की घटना है। 35 साल के रंजन यादव पिछले तीन दिनों से सड़कों पर ऑटो भगा रहे थे। उस ऑटो को जिसे उन्होंने महज छह महीने पहले ही खरीदा था। 12 मई तक उन्होंने मुंबई से अपने घर पहुंचने के लिए करीब 1500 किलोमीटर की दूरी भी तय कर ली थी। घर अब बस 200 किलोमीटर के फासले पर रह गया था, तो ऑटो की स्पीड थोड़ी बढ़ा दी। तभी एक ट्रक से ऑटो जा टकराई। इस हादसे में रंजन की पत्नी और 6 साल की बेटी की मौत हो गई। रंजन यादव कहते हैं, कहां तो 1500 किलोमीटर की दूरी तय कर ली थी, सोचा था लॉकडाउन में अपने परिवार के साथ घर पर रहूंगा। लेकिन अब अपनी पत्नी और बेटी का शव लेकर घर जा रहा हूं।
आपको क्या लगता है? अगर सरकार सोच-समझकर लॉकडाउन लगाती। मजदूरों और रंजन यादव जैसे लोगों को घर पहुंचाने का इंतजाम करती, तो यह हादसा रुक नहीं सकता था। तब रंजन अपनी हंसती-खेलती 6 साल की बेटी और पत्नी के साथ घर पर खुशहाल जिंदगी जी रहे होते। लेकिन, सरकार की नासमझी और ऑटो चलाकर अपना जीवन गुजर बसर करने वाले रंजन की तो दुनिया ही बर्बाद हो गई। आख़िर कौन है इसका जिम्मेदार?
12 मई की ही घटना है। बिहार के बांका जिले के रहने वाले सुदर्शन दास दिल्ली के नांगलोई से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए था, ताकि ट्रेन पकड़ सकें। लेकिन रास्ते में किसी ने उनके टिकट और दो जोड़ी कपड़ों से भरा भाग साफ कर दिया। जब स्टेशन पहुंचे तो आंखों में आंसू और चेहरे पर मजबूरी थी। वह बताते हैं, मेरी पत्नी प्रेग्नेंट है। 9 महीने हो चुके हैं और कभी डिलिवरी हो सकती है। मैं यहां था, ताकि कुछ पैसे कमा सकूं और बच्चे के जन्म के समय घर पहुंच सकूं।
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सुदर्शनदास जैसे लोग आखिर क्यों घर जाना चाहते हैं? क्या दिल्ली में रहने के लिए उन्हें खाना नहीं मिल रहा है। मेरे एक साथी ने पूछा कि आखिर ये लोग पैदल भागे क्यों जा रहे हैं? कभी घर से भागकर नौकरी के लिए आते हैं, तो कभी यहां से घर के लिए। उन्होंने बोला, इतनी भी भागने की चुल काहे मची है इनको। कभी घर से भागेंगे तो कभी घर को भागना। सुदर्शन दास जैसे लोगों के पास है क्या उनके इस सवाल का जवाब।
रोहित कुमार को गुड़गांव से उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुरी अपने घर जाना है। वह बताते हैं कि कुछ महीने पहले ही घर से आया था। जहां काम करता हूं, वहां कॉन्ट्रैक्टर ने बोला कि अब काम बंद है, तो सैलरी नहीं दे सकता। दो महीने तक इंतजार के बाद सारे पैसे खत्म हो गए। आखिर कब तक यह चलेगा किसी को पता नहीं। कभी खाना मिल पाता है, तो कभी नहीं। आखिर हम अपने घर जाएं, नहीं तो क्या करें? यहां किसके भरोसे रहें?
यह खबर हरियाणा की है। गुड़गांव में एक शख्स और उसके बेटे ने मणिपुर के इंफाल की रहने वाली 19 साल की लड़की की पिटाई कर दी। बाप-बेटे का आरोप था कि वह लड़की कोरोना वायरस फैला रही थी। मतलब कुछ भी और किसी भी तरह का आरोप लगाकर लोगों की पिटाई शुरू है। कुछ दिनों पहले तबलीगी जमात की आड़ में मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा था और अब सहूलियत के हिसाब से लोग अपना एजेंडा और खुन्नस निकालने के लिए किसी को भी टारगेट बना ले रहे हैं।
अपने घरों को लौट रहे इन तमाम लोगों पर मेरे कुछ दोस्तों और राष्ट्रवाद की अलख जगा रहे लोगों को सवाल कई हैं। पिछले दिनों ही मेरे मित्रों कुछ सवाल उठाए कि देश स्पेशल ट्रेनें चलने के बाद दिल्ली ने 41, महाराष्ट्र ने 36, गुजरात ने 33 कोरोना पॉजिटिव बिहार भेजे हैं। अन्य राज्य भी भागीदार हैं. ये तो रैंडमली टेस्ट के नतीजे हैं। मेरे इन्हीं मित्र को फिक्र होती है कि आखिर ये लोग भागे क्यों जा रहे हैं? कभी घर से भागकर नौकरी के लिए आते हैं, तो कभी यहां से घर के लिए।
लेकिन यही मित्र भूल जाते हैं कि जब वंदे भारत मिशन के तहत 12 मई को विदेशों से 351 लोग तमिलनाडु पहुंचे और उनमें से कई कोरोना पॉजिटिव पाए जाते हैं, तो उन पर सवाल उठाने के बजाय उनकी अंगुली टेढ़ी हो कर मुसलमानों की तरफ घूम जाती है। यह तो साफ बात है कि कोरोना वायरस हिंदुस्तान में पैदा नहीं हुआ। यहां बीमारी विदेशों से आने वाले लोगों ने फैलाई है। लेकिन विदेशों से आने वाले उन लोगों के लिए हमारे यही मित्र भागने जैसा कोई शब्द इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि उनकी नजरों में विदेशों से जो भारतीय आ रहे हैं, वे वहां फंसे हुए थे। लेकिन हिंदुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जो मजदूर फंसे हैं और अगर वे अपने-अपने गृह राज्यों को लौटना चाह रहे हैं, तो उनके हिसाब से यह लौटना नहीं, बल्कि भागना है। गजब की थ्योरी लाई है राष्ट्रवादी और छद्म दक्षिणपंथी विचारकों ने।
हम अपने घर से भेजे गए पैसों से अपना खाना-पानी चला रहे हैं। हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमें तो यह भी पता नहीं है कि हम जिंदा घर लौटेंगे भी या नहीं। पंजाब के फगवाड़ा से अपने घर बिहार के भोजपुर जिले के लिए निकले 21 साल के ब्रिज किशोर का यह कहना है। करीब 1500 किलोमीटर का सफर है, जबकि 150ल किलोमीटर की दूरी वह साइकल से नाप चुके हैं। ब्रिज किशोर बताते हैं, मैं पंजाब के अमृतसर के एख मील में काम करता था, लेकिन वह बंद हो चुका है। हमारे रहने-खाने का कोई इंतजाम नहीं है। मुझे तो घर से पापा ने 800 रुपये भेजे तो उससे साइकल खरीदी और पिछले तीन दिनों से यही चला रहा हूं। पता नहीं कब पहुचूंगा। पहुंचूंगा भी या नहीं।
ऐसे कई मामले हैं, जो आपको दिखेंगे। अगर आप देखना चाहें। कोई अपनी प्रेग्नेंट पत्नी को लेकर हाइवे पर चला जा रहा है। कोई बैलगाड़ी में कभी खुद तो कभी पत्नी को एक बैल की जगह जुतते हुए घरों को लौट रहा है। कोई जुगाड़ से स्केटिंग की गाड़ी बनाकर अपनी गर्भवती पत्नी और बच्चे को उस पर ढोकर ले जा रहा है। छोटे-छोटे बच्चे इस तपती गर्मी में पैदल चले जा रहे हैं। आखिर कौन हैं ये लोग? क्यों जाना चाहते हैं? क्या वाकई इनको भागने की चुल्ल मची है? नहीं... आपको तब तक समझ नहीं आएगा, जब तक आपके अंदर दिल नहीं होगा। बस हिंदु-मुसलमान के चश्मे को उतारकर खुद को उनकी जगह रखकर देखें, तो अपनी जान की परवाह किए बिना हजारों किलोमीटर का सफर पैदल और जोखिम में कैसे काटे जा रहे हैं।