लॉकडाउन में पलायनः यह अंधा नहीं, सुप्रीम कोर्ट का धंधेबाज कानून है...

सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन में प्रवासी मजूदरों की घर वापसी और हादसों में उनकी मौतों के मामले पर याचिका की सुनवाई से इनकार कर दिया। देश की सबसे बड़ी अदालत का कहना है कि अगर लोग रेलवे ट्रैक पर सो जाएंगे तो इसमें क्या किया जा सकता है? जिन्होंने पैदल चलना शुरू कर दिया है, उन्हें कोर्ट कैसे रोक सकता है?
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सुप्रीम कोर्ट की यह बात पूरी तरह सही है। आखिर अदालतें कैसे रोक सकती है कि कोई पैदल क्यों जा रहा है?  इस शीर्ष अदालत का चीफ (पूर्व) जस्टिस तो उन्हीं मामलों की सुनवाई करेगा, जिसमें खुद पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा हो। मजेदार बात कि अपने ऊपर लगे आरोपों की सुनवाई के बाद जज साहब खुद के पक्ष में फैसला भी सुना देते हैं।
ऐसे में जब सुप्रीम कोर्ट कहता है कि कोर्ट के लिए यह निगरानी करना असंभव है कि कौन ट्रैक पर चल रहा है और कौन नहीं चल रहा है? सही बात है। सुप्रीम कोर्ट तो बस इस बात की निगरानी करेगा कि जब गुजरात हाईकोर्ट ने बीजेपी के एमएलए और राज्य के कानून मंत्री को अयोग्य ठहरा दिया, तो उसकी अयोग्यता के फैसले पर कैसे विराम लगाना है।
मजदूरों और बेसहारा लोगों को लेकर आखिर याचिका में क्या कहा गया था? यही न कि अदालत केंद्र सरकार से सड़कों पर चलने वाले प्रवासी मजदूरों की पहचान करने, उन्हें भोजन और रहने का ठिकाना देने के लिए कहे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट को क्या फर्क पड़ता है कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेलवे पटरियों पर सो रहे 16 मजदूर मालगाड़ी की चपेट में आएं या फिर उत्तर प्रदेश के औरैया में भीषण सड़क हादसे में 24 मजदूरों की मौत हो जाए। ये मजदूर तो अपनी गलती और खुद की मर्जी से जा रहे हैं न... तो इन मजदूरों की ही जवाबदेही बनती है कि उनके साथ क्या होता है सही बात है कि सुप्रीम कोर्ट उनके साथ क्या कर सकता है? तब तो सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन को हटवा देना चाहिए। वायरस से मजदूर मरते हैं तो मरने दें। इससे पहले 31 मार्च को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि सड़कों पर अब एक भी दिहाड़ी मजदूर नहीं है। बजाय केंद्र सरकार के इस झूठ पर लताड़ लगाने के लिए कोर्ट मजदूरों को ही दोषी ठहरा रहा है। 
देशव्यापी लॉकडाउन की वजह मजदूरों के पास अब नौकरी और रहने के लिए ठिकाना नहीं है। इस वजह से हजारों मजदूर हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों की ओर जा रहे हैं। कोई पैदल चल रहा है, तो कोई साइकल चलाकर जा रहा है तो कोई ट्रक पर बैठकर अपने गांव जा रहा है। लेकिन जज साहब को इन मामलों पर सुनवाई से क्या मतलब? जज साहब को तो बस खास बंगले, सड़क पर आवारा पशुओं के घूमने से आपत्ति होती है, गाड़ी के शीशे पर काली फिल्म की मोटाई से दिक्कत होती है? इन सब मामलों पर सुनवाई के लिए बहुत समय है। दरअसल, मजदूरों का मामला गरीबी से जुड़ा है। इन मामलों की सुनवाई से सुप्रीम कोर्ट का कोई हित नहीं जुड़ा है। मामला जैसे ही राजनीतिक या फिर अमीरों से जुड़ा हो तो जज साहब तुरंत कुर्रसी लेकर बैठ जाएंगे और फैसला भी उनके हक में सुना देंगे। लेकिन पैदल चल रहे बेबस प्रवासी मजदूरों के हादसों की याचिका पर सुनवाई से साफ मना कर देंगे।
जज साहब को यह भी नहीं दिखता कि कोई 15 दिनों से चल रहा है। मध्य प्रदेश जाना है। बच्चे को चोट लगी है, तो खाट पर लेटा कर कंधे पर ढोते हुए उसे ले जा रहे हैं। महिला सड़कों पर बच्चे को जन्म दे रही है, कोई पैदल ही चलकर दम तोड़ दे रहा है। जज साहब को यह भी नहीं दिखता कि किसी ने पैर गंवाए तो सने कृत्रिम पांव से दोबारा चलना सीखा होगा, लेकिन क्रूर हालात इम्तिहान ले रहे हैं, अब वो पैदल परिवार के साथ शहर से घर को निकली है तमाम मुश्किलों के बावजूद उसका हौसला टूटा नहीं है, लेकिन क्या यह सब देखने के बावजूद सरकार कहां है? सरकारों को तो छोड़िए, अदालतों को क्यों लकवा मार गया है?
कर्नाटक में बीजेपी की सरकार बनवाने और आतंकवाद के आरोपी के मामलों कीसुनवाई के लिए आधी रात में खुलने वाली देश की सबसे बड़ी अदालत आज वाकई अंधी हो गई। लॉकडाउन के बीच सुप्रीम कोर्ट दूसरे कई मामलों को लंबित करके रखता है। लेकिन, सत्ता और भाजपा से अघोषित ताल्लुक रखने वाले रिपब्लिक टीवी के मालिक और सेलिब्रिटी एंकर अर्नब गोस्वामी की याचिका को सुप्रीम कोर्ट में मामला सामने आने के चंद घंटों में ही समय दे दिया गया, जबकि प्रवासी मजदूरों के घर जाने जैसे अहम मामलों को प्राथमिकता नहीं मिली। अब प्राथमिकता तो छोड़िए, मजदूरों की याचिका को सुनने लायक भी नहीं माना।
जबकि यही सुप्रीम कोर्ट लॉकडाउन में तमिलनाडु में शराब की दुकानों को बंद करने के फैसले को पलटकर उसे खोलने का फैसला देता है। लेकिन मजदूरों की याचिका सुनने के लायक नहीं मानता। अगर हालिया कुछ फैसलों को देखें, तो कैसे सुप्रीम कोर्ट वक्त-दर-वक्त जन-विरोधी फैसले करता चला गया है और तमाम फैसले अमीरों और सरकार के पक्ष में देता गया। चाहे पटना हाई कोर्ट के फैसले को पलटने की ही बात क्यों न हो? कहां तो संविधान समानता की बात करता है और जब बिहार में स्थायी और अस्थायी शिक्षकों की सैलरी समान करने की बात आई तो सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के पक्ष में अपना दे दिया। हाल में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता रिटायर हुए हैं। इस मौके पर विदाई समारोह में उन्होंने भी खुद माना कि जब कोई किसी गरीब की आवाज उठाता है तो कोर्ट को उसे सुनना चाहिए और जो भी गरीबों के लिए किया जा सकता है वो करना चाहिए। जज ऑस्ट्रिच यानी शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर नहीं छिपा सकते।
(जारी...)

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