12 मई की घटना है। 35 साल के
रंजन यादव पिछले तीन दिनों से सड़कों पर ऑटो भगा रहे थे। उस ऑटो को जिसे उन्होंने
महज छह महीने पहले ही खरीदा था। 12 मई तक उन्होंने मुंबई से अपने घर पहुंचने के
लिए करीब 1500 किलोमीटर की दूरी भी तय कर ली थी। घर अब बस 200 किलोमीटर के फासले
पर रह गया था, तो ऑटो की स्पीड थोड़ी बढ़ा दी। तभी एक ट्रक से ऑटो जा टकराई। इस
हादसे में रंजन की पत्नी और 6 साल की बेटी की मौत हो गई। रंजन यादव कहते हैं, ‘कहां तो 1500 किलोमीटर की दूरी तय कर ली
थी, सोचा था लॉकडाउन में अपने परिवार के साथ घर पर रहूंगा। लेकिन अब अपनी पत्नी और
बेटी का शव लेकर घर जा रहा हूं।’
आपको क्या लगता है? अगर सरकार सोच-समझकर लॉकडाउन लगाती। मजदूरों और रंजन यादव जैसे लोगों को घर
पहुंचाने का इंतजाम करती, तो यह हादसा रुक नहीं सकता था। तब रंजन अपनी हंसती-खेलती
6 साल की बेटी और पत्नी के साथ घर पर खुशहाल जिंदगी जी रहे होते। लेकिन, सरकार की
नासमझी और ऑटो चलाकर अपना जीवन गुजर बसर करने वाले रंजन की तो दुनिया ही बर्बाद हो
गई। आख़िर कौन है इसका जिम्मेदार?
12 मई की ही घटना है। बिहार के बांका जिले के रहने वाले सुदर्शन दास दिल्ली के
नांगलोई से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए था, ताकि ट्रेन पकड़ सकें। लेकिन रास्ते
में किसी ने उनके टिकट और दो जोड़ी कपड़ों से भरा भाग साफ कर दिया। जब स्टेशन पहुंचे
तो आंखों में आंसू और चेहरे पर मजबूरी थी। वह बताते हैं, ‘मेरी पत्नी प्रेग्नेंट है। 9 महीने हो
चुके हैं और कभी डिलिवरी हो सकती है। मैं यहां था, ताकि कुछ पैसे कमा सकूं और
बच्चे के जन्म के समय घर पहुंच सकूं।’
Photo: Internet |
सुदर्शनदास जैसे लोग आखिर क्यों घर जाना चाहते हैं? क्या दिल्ली में रहने के लिए उन्हें खाना
नहीं मिल रहा है। मेरे एक साथी ने पूछा कि आखिर ये लोग पैदल भागे क्यों जा रहे हैं? कभी घर से भागकर नौकरी के लिए आते हैं,
तो कभी यहां से घर के लिए। उन्होंने बोला, ‘इतनी भी भागने की चुल काहे मची है इनको। कभी घर से भागेंगे तो
कभी घर को भागना।’ सुदर्शन दास जैसे लोगों के पास है क्या
उनके इस सवाल का जवाब।
रोहित कुमार को गुड़गांव से उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुरी अपने
घर जाना है। वह बताते हैं कि कुछ महीने पहले ही घर से आया था। जहां काम करता हूं,
वहां कॉन्ट्रैक्टर ने बोला कि अब काम बंद है, तो सैलरी नहीं दे सकता। दो महीने तक
इंतजार के बाद सारे पैसे खत्म हो गए। आखिर कब तक यह चलेगा किसी को पता नहीं। कभी
खाना मिल पाता है, तो कभी नहीं। आखिर हम अपने घर जाएं, नहीं तो क्या करें? यहां किसके भरोसे रहें?
यह खबर हरियाणा की है। गुड़गांव में एक शख्स और उसके बेटे
ने मणिपुर के इंफाल की रहने वाली 19 साल की लड़की की पिटाई कर दी। बाप-बेटे का
आरोप था कि वह लड़की कोरोना वायरस फैला रही थी। मतलब कुछ भी और किसी भी तरह का
आरोप लगाकर लोगों की पिटाई शुरू है। कुछ दिनों पहले तबलीगी जमात की आड़ में
मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा था और अब सहूलियत के हिसाब से लोग अपना एजेंडा और
खुन्नस निकालने के लिए किसी को भी टारगेट बना ले रहे हैं।
अपने घरों को लौट रहे इन तमाम लोगों पर मेरे कुछ दोस्तों और
राष्ट्रवाद की अलख जगा रहे लोगों को सवाल कई हैं। पिछले दिनों ही मेरे मित्रों कुछ
सवाल उठाए कि देश स्पेशल ट्रेनें चलने के बाद दिल्ली ने 41, महाराष्ट्र ने 36, गुजरात ने 33 कोरोना पॉजिटिव
बिहार भेजे हैं। अन्य राज्य भी भागीदार हैं. ये तो रैंडमली टेस्ट के नतीजे हैं। मेरे
इन्हीं मित्र को फिक्र होती है कि आखिर ये लोग भागे क्यों
जा रहे हैं? कभी घर से भागकर नौकरी के लिए आते हैं, तो कभी यहां से घर के लिए।
लेकिन यही मित्र भूल जाते हैं कि जब ‘वंदे भारत मिशन’ के तहत 12 मई को विदेशों से 351 लोग तमिलनाडु पहुंचे और उनमें से कई कोरोना
पॉजिटिव पाए जाते हैं, तो उन पर सवाल उठाने के बजाय उनकी अंगुली टेढ़ी हो कर
मुसलमानों की तरफ घूम जाती है। यह तो साफ बात है कि कोरोना वायरस हिंदुस्तान में
पैदा नहीं हुआ। यहां बीमारी विदेशों से आने वाले लोगों ने फैलाई है। लेकिन विदेशों
से आने वाले उन लोगों के लिए हमारे यही मित्र भागने जैसा कोई शब्द इस्तेमाल नहीं
करते, क्योंकि उनकी नजरों में विदेशों से जो भारतीय आ रहे हैं, वे वहां फंसे हुए
थे। लेकिन हिंदुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जो मजदूर फंसे हैं और अगर वे
अपने-अपने गृह राज्यों को लौटना चाह रहे हैं, तो उनके हिसाब से यह लौटना नहीं,
बल्कि भागना है। गजब की थ्योरी लाई है राष्ट्रवादी और छद्म दक्षिणपंथी विचारकों
ने।
“हम अपने घर से भेजे गए पैसों से अपना
खाना-पानी चला रहे हैं। हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमें तो यह भी पता
नहीं है कि हम जिंदा घर लौटेंगे भी या नहीं।” पंजाब के फगवाड़ा से अपने घर बिहार के भोजपुर जिले के लिए निकले 21 साल के
ब्रिज किशोर का यह कहना है। करीब 1500 किलोमीटर का सफर है, जबकि 150ल किलोमीटर की
दूरी वह साइकल से नाप चुके हैं। ब्रिज किशोर बताते हैं, ‘मैं पंजाब के अमृतसर के एख मील में काम
करता था, लेकिन वह बंद हो चुका है। हमारे रहने-खाने का कोई इंतजाम नहीं है। मुझे
तो घर से पापा ने 800 रुपये भेजे तो उससे साइकल खरीदी और पिछले तीन दिनों से यही
चला रहा हूं। पता नहीं कब पहुचूंगा। पहुंचूंगा भी या नहीं।’
ऐसे कई मामले हैं, जो आपको दिखेंगे। अगर आप देखना चाहें। कोई अपनी प्रेग्नेंट
पत्नी को लेकर हाइवे पर चला जा रहा है। कोई बैलगाड़ी में कभी खुद तो कभी पत्नी को
एक बैल की जगह जुतते हुए घरों को लौट रहा है। कोई जुगाड़ से स्केटिंग की गाड़ी
बनाकर अपनी गर्भवती पत्नी और बच्चे को उस पर ढोकर ले जा रहा है। छोटे-छोटे बच्चे
इस तपती गर्मी में पैदल चले जा रहे हैं। आखिर कौन हैं ये लोग? क्यों जाना चाहते हैं? क्या वाकई इनको भागने की चुल्ल मची है? नहीं... आपको तब तक समझ नहीं आएगा, जब
तक आपके अंदर दिल नहीं होगा। बस हिंदु-मुसलमान के चश्मे को उतारकर खुद को उनकी जगह
रखकर देखें, तो अपनी जान की परवाह किए बिना हजारों किलोमीटर का सफर पैदल और जोखिम
में कैसे काटे जा रहे हैं।
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