सवालों के घेरे में मीडिया

आज मीडिया की नैतिक दुनिया काफी बदल गई है। एक अख़बार में दस से पंद्रह लोग मार्केट कवर कर रहे हैं, फैशन-डिज़ाइन और ग्लैमर संवाददाता हैं, लेकिन ग्रामीण और शहरी ग़रीबों को कवर करने वाला कोई पूर्णकालिक संवाददाता नहीं है। सामाजिक क्षेत्र की समस्याएं जिस हिसाब से बढ़ रही हैं, इस क्षेत्र को कवर करने वाले संवाददाताओं की बीट उसी अनुपात में घट रही हैं।
ये बातें दो साल पहले कही थीं, द हिंदू के रूरल एडीटर पी साईनाथ ने पत्रकारिता के गिरते स्तर के बारे में। और आज हररोज़ कहीं न कहीं इसी तरह की बातें उठ रही हैं। चाहे हाल में उदयन शर्मा स्मृति के अवसर पर आईबीएन ७ के आशुतोष, केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल और कुर्बान अली के वाद-विवादों की बात हो या अब राज्य सभा में टीआरपी के खेल पर होने वाली बहस का मुद्दा। हरकोई इस पत्रकारिता के पेशे को ही सवालों के घेरे में लाने की कोशिश में लगा हुआ है। तो क्या सचमुच पत्रकारिता का पतन हो रहा है? एक टीवी पत्रकार हैं पुण्यप्रसून वाजपेयी, जिनके नाम से लगभग हरकोई वाकिफ होगा...अगर हम इनके विचारों और लेखों को पढ़े और समझने की कोशिश करें तो काफी कुछ मसला समझ में आ सकता है कि आज पत्रकारिता कहां और किस स्थिति में है। इस क्षेत्र में कई लोग ऐसे हैं जो जानते और समझते हैं कि टीआरपी और कंटेट के मसले पर जो खेल चल रहा है वो बदलना चाहिए तो कुछ सोचते हैं कि बाज़ार का ज़माना है और हमें उससे तालमेल या कहें तो उसी के मुताबिक़ ख़ुद को ढालना पड़ेगा नहीं तो चैनल के बंद होने की गुंजाईश सौ फीसदी होगी।

लेकिन ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि हम कितना समझौता कर सकते हैं, बाज़ार के दबाव में किस हद तक काम कर सकते हैं। एक हद तक ही नहीं तो जिस तरह की बातें कपिल सिब्बल करते हैं कि आप कुछ भी हमारे बारे में लिखते बोलते रहिए हमें कुछ फ़र्क नहीं पड़ता, मतलब ये कि सीधे हमारी विश्वसनीयता पर ही सवाल उठाए जाने लगते हैं। हालांकि मैं ख़ुद आशुतोष और पंकज पचौरी की बातों से इत्तेफाक रखता हूं, एक तो यह कि आज हम बाज़ार की ताक़त को नकार नहीं सकते और दूसरी ये अगर हमें अच्छा टीवी चाहिए तो हमें आगे आना पड़ेगा, हमें पैसा लगाना पड़ेगा, जैसा कि ब्रिटेन में होता है। वहां पब्लिक पैसा देती है और बदले में उसे अच्छा टीवी मिलता है। बीबीसी के ही कई चैनल हैं, मसलन न्यूज़, डॉक्यूमेंट्री आदि जिस पर एक से बढ़कर एक कार्यक्रम दिखाए जाते हैं, जिसे देखकर हम कहते हैं कि हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं है?

अगर मोटामोटी बात कहें तो ये कि आज पब्लिक और पत्रकार दोनों को सोचने की जरूरत है, आख़िर आरोप-प्रत्यारोप का दौर कब तक चलता रहेगा?

4 comments:

  1. bahut hi sahi kahi hai aapane ......aaj midia ka karya skhetra me shaayad gaawn kahi nahi hai .......yah media ki asafalata hai .....sundar post..

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  2. पी. साईनाथ जैसे पत्रकार जो ज़मीनी लेवल पर काम करते हैं, वैसे लोग हैं ही कितने... टीवी के जितने फेमस चेहरे हैं सारे लोगों की हालत हाथी के दांत खआने के और दिखाने के और जैसी है

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  3. ऐसा बात नहीं है कि अब सरोकार वाले पत्रकार नहीं हैं, वो अपना काम बदस्तूर जारी रखे हुए हैं...

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  4. media ka student haone ke nate mujhe lagta hai, ki patrkar sirf paise banana hi chahta hai, apne logon ko hi har jagah par rakhta hai jabki usase bhi kitne kabil log bahar baithe rah jate hain

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