होली में हिंदूवादी होने का भय!
सचिन चालीसा
जय सचिन क्रिकेट गुण सागर,
जय क्रिकेटईश पृथ्वी लोक उजागर खेलदूत अतुलित बल दामा,
रमेश पुत्र तेंदुलकर नामा सदाचारी सचिन सतरंगी ,
कीर्तिमान बनावे जीत के संगी कंचन वर्ण छोटे कद का,
सर पे हेलमेट ,घुंगराले केशा हाथ बल्ला और गेंद विराजे ,
सर पे चक्र सह तिरंगा साजे ब्रैडमैन सम भारती नंदन ,
तेज प्रताप महा जग वंदन बल्लेबाज गुनी अति चातुर ,
राष्ट्र काज करिबे को आतुर सचिन को खेल देखबे को रसिया ,
अपनों काम काज सब छडिया सुक्ष्म रूप धरि विकेट गिरावा ,
बिकट रूप धरि रन बनावा भीमरूप धरि शतक बनाए ,
भारत की हार बचाए विश्वकप में जब विपत्ति आई ,
पहुचा फ़ाइनल लाज बचाई तुम उपकार धोनी कीन्हा ,
नए आए तबहु कप्तानी दीन्हा तुम्हारो मंत्र धोनी माना,
विश्वविजेता भय सब जग जाना भारत की जीत के काजही ,
शोकाकुल लौट आये अचरज नाही दुर्गम मैच भारत के जेते,
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते क्रिकेट द्वार के तुम रखवाले,
होत ना कोई चिंता रे जीत मिले तुम्हारी शरना ,
तुम रक्षक हार को डर ना अपने रिकॉर्ड तोड़ो आपे ,
सब टीमें नाम से कापे गेंदबाज कोई सामने ना आवे ,
सचिन तेंदुलकर जब नाम सुनावे मास्टर ब्लास्टर सचिन जंगी,
हार मिटात जीत के संगी संकट ते सचिन छुडावे,
जब मन क्रम वचन से लग जावे ।
पाचो द्वीप परताप तुम्हारा
है प्रसिद्द जगत उजियारा...
पाक की बदलती तस्वीर
सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि हाल में वहां एक सर्वे कराया गया, जिसमें पाकिस्तान की यंग आबादी से यह पूछा गया कि क्या आप पाकिस्तान को एक इस्लामिक मुल्क के तौर पर देखना चाहते हैं? इस सवाल के जवाब में लगभग चौसठ फीसदी लोगों ने इसका समर्थन किया। लेकिन सबसे ताज्जुब की बात यह थी कि इस पोल के दौरान मजहबी दलो को महज तीन फीसदी ही वोट मिले। यानी लोग यह नहीं चाहते कि सरकार में मजहबी कट्टरपंथियों की कोई जगह हो। आज अधिकांश पाकिस्तानी भविष्य को लेकर आशावादी हैं। लोग लोकतांत्रिक शासन चाहते हैं, बजाय सैनिक शासन के। लेकिन इसके बावजूद एक निराशा की भी स्थिति है। वह यह कि करीब 55 फीसदी आबादी यह मानती है कि यदि उन्हें मौका मिला तो वह पाकिस्तान में नहीं रहना चाहेंगे। एक तरह से देखा जाए तो इस स्थिति को पाकिस्तान में बदलने की जरूरत है। आवाम आशान्वित है, पर मुल्क में रहना उन्हें पसंद नहीं है। इसकी वजह सभी को मालूम है. सरकार को भी। कैसे इसे दुरूस्त किया जा सकता है, इसकी तरकीब भी पाक सरकार जानती है। बस एकबार वह कड़ाई से इस पर कदम उठाना शुरू कर दे।
अपनी आदत नहीं बदली मैंने
लोगों के सामने सर झुकाना नहीं छोड़ा है मैंने।
दिल की तमन्ना दिल में ही दफ़न हो गए,
सारे आरजू बारिश की बूंदों की तरह बिखर गए,
फिर भी किसी को सताना नहीं छोड़ा है मैंने
आज आज़ाद हुए हैं तो लोगों को गुलाम बनाना,
शुरू कर दिया है मैंने।
कहां थे मेरे रहगुजर, जब ख़ून के आंसू रो रहा था मैं,
कोशिश हर मर्तबा करता हूं,
इन बुराइयों से दूर रहने की,
लेकिन मेरे अंदर जो शैतान है, उसे अभी तक
नहीं भूला सका हूं मैं।
काश कोई आए, मुझे समझाए,
मेरी उम्मीद और सपने सभी टूट चुके हैं,
इन्हें संजोने की तरकीब बताए कोई।
क्योंकि अपनी आदत अभी भी नहीं बदली है मैंने,
ख़ुद को सताना नहीं छोड़ा हैं मैंने।
बाज़ारवाद से हारा आतंकवाद
हम सऊदी अरब और कुवैत से तेल का आयात करते हैं और इन देशों को इस सूची से बाहर रखा जाए तो भारत पाकिस्तान के साथ व्यापारिक मामलों में सातवां सबसे बड़ा साझीदार बन जाता है. एक तरफ़ तो दोनों मुल्क एक दूसरे को फूटी आंख भी देखना नहीं चाहते, यदि ऐसा नहीं है तो भी कभी कभी ऐसे हालात हो ही जाते हैं. लेकिन दूसरी ओर दोनों पड़ोसी मुल्क आपसी व्यापारिक रिश्तों में हमेशा नहीं तो ज़्यादातर टाईम मधुरता बनाए ही रखते हैं. कुछ बरस पहले एक फिल्म आई थी. गदर. अनिल शर्मा की. वही सन्नी देओल वाला. इसी फिल्म के दृश्य में एक पाकिस्तानी अधिकारी कहता है, हम पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी भले ही एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो, लेकिन हम पाकिस्तानी होकर भी हिंदुस्तानी पान खाना नहीं छोड़ते और हिंदुस्तानियों को भी हमारी चीनी की मिठास बहुत पसंद है.
दरअसल भारत और पाकिस्तान दोनों एक दूसरे के बेहद क़रीबी हैं. ऐतिहासिक और भौगोलिक तौर भी यह बात ज़ाहिर है. दोनों मुल्कों में सांस्कृति समानता काफी है. रहन-सहन और खान पान का तरीका भी काफी मेल खाता है. पाकिस्तानियों को अमिताभ बच्चन और शाहरूख ख़ान की फिल्में पसंद हैं तो हम भारतीयों को राहत फतेह अली खां का संगीत और जल, स्ट्रिंग्स जैसे पाकिस्तानी बैंड के गाने. यानी हर तरह से भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर बाज़ार हावी है.
आख़िर में एक बात यही कही जा सकती है कि भारत और पाकिस्तान को अलग रखने की कितनी भी साज़िश की जाए, दोनों मुल्कों की जो बुनियाद है, उसे अलग कर पाना नामुमकिन है.
लोकतांत्रिक राजनीति की धुंधली तस्वीर
शिवसेना और उससे अलग होकर बनी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना शुरू से ग़ैर मराठी का विरोध कर अपना जनाधार हासिल करने की कोशिश करती रही है. और, वहां की सरकार भी इनके भड़काऊ भाषणों एवं उपद्रवों को नज़रअंदाज़ करती रही है. शरद पवार की पार्टी तो पहले चुप रहा करती थी, पर वह भी कांग्रेस द्वारा लगातार नीचा दिखाए जाने और महंगाई के मसले पर पवार साहब को घेरने के कारण सक्रिय हो गई है. ख़ुद पवार साहब घुटन महसूस कर रहे थे. इसलिए वह कुछ मज़ा कांग्रेस को चखाना चाहते थे. उनके पास प्रदेश का गृह विभाग है, पर दिलचस्प बात है कि वह अपने घर की हिफाजत के लिए भी बाला साहब ठाकरे की शरण में जाते हैं. बहाना बनाकर ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी की सुरक्षा का. यदि यही बात थी, तो उसके बाद भी बाला साहब ने इन खिलाड़ियों के ख़िलाफ़ टेप क्यों जारी की. ठाकरे साहब तो और भी आग उगलने लगे. यानी पवार साहब का यह दांव भी उल्टा पर गया. यानी जब तकदीर सही न हो तो शतरंज की सीधी चाल भी टेढ़ी नज़र आने लगती है. कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि यह भारतीय लोकतंत्र में एक नई किस्म की राजनीति की शुरुआत है और इसकी असली तस्वीर आने वाले वर्षों में और भी धुंधली होने वाली है.
किस्सा लोकतंत्र का
महिलाएं महज़ उपभोग के लिए नहीं हैं
नसीम हमीद पाकिस्तानी एथलीट हैं. उन्होंने दक्षिण एशियाई खेलों में 100 मीटर दौड़ का गोल्ड मेडल जीता. बांगलादेश में हुए इन खेलों की समाप्ति के बाद जब नसीम पाकिस्तान वापस लौंटी तो उनका जोरदार तरीके से स्वागत हुआ। इन खेलो के 26 साल के इतिहास में नसीम पहली पाकिस्तानी महिला हैं, जिन्होंने 100 मीटर के दौड़ में गोल्ड मेडल जीतकर पाकिस्तान का नाम रोशन किया है. इस महिला खिलाड़ी ने आतंकवाद की चोट से घायल मुल्क के लोगों के लिए खुशी का जो अवसर दिया है, उसकी तुलना नहीं हो सकती है. कहतेहैं पाकिस्तान एक मुस्लिम मुल्क है. वाकई वह है. लेकिन इस्लामिक मुल्क होने का यह मतलब कतई नहीं होता कि वहां महिलाओं को घर से बाहर न निकलने दिया जाए. उन्हें तालीम हासिल न करने दी जाए. यह सोच कट्टरपंथी मानसिकता वाले लोगों की ही हो सकती है. चाहे वह किसी भी मजहब के हों. यदि मुसलमान भी यही सोचते कि महिलाओं को घर से बाहर निकलना इस्लाम के ख़िलाफ़ है तो वही लोग नसीम के स्वागत की अगुवाई नहीं करते. यह बात पाकिस्तान की है. जहां तालीबान जैसे चरमपंथी हावी हो रहे हैं. पाक की छवि इसी चरमपंथी टाइप की बना दी गई है. लेकिन वहां के लोगों की सोच तो कुछ और ही है. तरक्की करना भला कौन नहीं चाहता? हर मुल्क, हर शख्स अपनी सफलता पर शान करता है. यदि कोई अपने देश का नाम रोशन करता है तो उसकी ख़ातिरदारी भी बेहद ही जश्न वाले अंदाज़ में होता है. आए दिन पाकिस्तान में धमाकों की ख़बरें सुनने को मिलती रहती हैं. तालीबान का तांडव हर रोज़ खुलेआम देखने को मिलता है. महिलाओं पर तो ख़ास तौर से पाबंदी में रहना पड़ता है. मुस्लिम मुल्कों में महिलाओं पर पाबंदी की बात होना कोई बड़ी बात नहीं है. पहले महिलाओं से उनकी आज़ादी छीनी जाती है. उसके बाद धीरे धीरे कर उनके अधिकारों पर नकेल कसी जाती है. एक दौर ऐसा आता है जब महिलाएं ग़ुलामी ज़िंदगी जीने को मजबूर होती हैं. हम भले ही यह कहते रहें कि चीन भारत से अधिक विकसित मुल्क है, लेकिन वहां क्या भारत जैसी आज़ादी है. अधिकारों की आज़ादी. हममें कई ख़ामियां हैं. बेशक हैं, लकिन इन सबके बावजूद खूबियां भी हैं. यहां लोगों को खुली हवा में सांस लेने की आज़ादी है. भले ही इस आज़ादी का फायदा कुछ लगो उठाते हैं. इसका दुरूपयोग करते हैं. लेकिन यह किसी अमानत कम नहीं है. यानी कोई आम आदमी अपनी आज़ादी और सफलता पर हमेशा गुमान करता है. आज मजहब को लेकर मुल्क बंटे हुए हैं. मजहब के मुताबिक ज़िंदगियां तय हो रही हैं और जी जा रही हैं. कुछ धर्म के ठेकेदार धर्म की बातों के मुताबिक ज़्यादा ही सख्ती बरत रहे हैं. उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान को ही ले लें तो वहां महिलाओं पर काफी पाबंदी हैं. वहां कई इलाकों में तालीबान की हुकूमत चलती है. उन्हीं के मुताबिक कायदे कानून बनाए जाते हैं. इन कायदे कानूनों की पहली गाज महिलाओं पर ही गिरती है. आखिर पुरुषों को घर में रहने की पाबंदी क्यों नहीं है? महिलाओं को ही शिक्षा से महरूम क्यों रखा जाता है? लेकिन हम आपको बता दें कि यह कोई नहीं चाहता कि कोई उसकी ज़िंदगी जीने के तरीके को तय करे. भले मजहब का मतलब होता है जिंदगी जीने का तरीक़ा, लेकिन इसी से ज़िंदगी रिमोट कंट्रोल होने लगे तो कष्ट होता है.
तुमसे वादा था मेरा
पाकिस्तान में लड़कियों की हालत
चंद चरमपंथी धर्म के ठेकेदार नहीं हो सकते
कुछ साल पहले की बात है. एक मलय मुसलमान ने इस्लाम धर्म से दूसरा धर्म अपना लिया. इस पर का़फी शोर शराबा हुआ. यहां तक कि शरिया अदालत ने उसे सज़ा भी दी थी. उसे फिर से इस्लाम धर्म को क़बूलना पड़ा. ऐसे में भला इस बात को न्यायोचित कैसे ठहराया जा सकता है कि पूरा जनसमुदाय धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन जाएगा. और, आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में कोई किसी को क़ानून का भय दिखाकर अपना मज़हब बदलने से नहीं रोक सकता है. यदि कोई धर्म परिवर्तन करता है तो यह मसला अल्लाह और उसके बीच का है. इन मामलों में कोई इंसान स़िर्फ ख़ुदा के प्रति ही जवाबदेह होता है.
फिर भी, यदि सही मायनों में देखें तो यह सारा मसला मज़हबी नहीं, बल्कि राजनीतिक है. बहुसंख्यक समुदाय यह महसूस करता है कि वह अल्पसंख्यक बन जाएंगे. इसीलिए वह इसकी मुख़ाल़फत कर रहे हैं. भारत में हिंदुवादी ताक़तें भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में क़ानून बना रहे हैं. ताकि वह हिंदुओं को ईसाई या मुसलमान बनने से रोक सकें. लेकिन, यदि कोई मुसलमान या ईसाई हिंदु धर्म क़बूलता है तो वह इसका स्वागत करते हैं. इस तरह यह मसला राजनीतिक स्वार्थ से जुड़ा है, न कि धर्म परिवर्तन से. धर्म परिवर्तन का मुद्दा बेहद ही निजी है. यदि ऐसा नहीं होता है तो हमारा लोकतांत्रिक अधिकार ख़तरे में पड़ जाएगा.
कट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यकों में डर का माहौल पैदा करने के लिए यह सारा मुद्दा खड़ा किया है. मलेशिया में भी इन्हीं वजहों से विवादों को तूल दिया गया है. और, जब भारत में भाजपा ने ऐसा ही विवादास्पद मुद्दा रामजन्मभूमि के बारे में उठाया तो नरसिंहा राव की अगुवाई वाली कांग्रेस पार्टी ने बाबरी मस्जिद को गिरने दिया. मलेशियाई सरकार भी सहमी हुई है और इसी चलते वह उच्च न्यायालय के फैसले को लागू नहीं कर रही है.
किसी भी बहु धार्मिक और बहु सांस्कृतिक लोकतंत्र को आदर्श माहौल में काम करना मुश्किल होता है. यहां तक कि पश्चिम के विकसित मुल्कों में भी धर्म को लेकर तनाव पैदा होते रहते हैं. फ्रांस में अफ्रीकी मुसलमान और गोरे फ्रेंच के बीच अक्सर तनाव होता रहता है. यह मसला धार्मिक नहीं, बल्कि उससे अधिक आर्थिक और राजनीतिक है. ऐसी विवादों के पीछे दक्षिणपंथी ताक़तें भी होती हैं. हाल में, फ्रेंच सरकार ने बुरक़ा पर प्रतिबंध लगाया है. यदि किसी को बुरक़े में देखा गया तो उसे पर 750 यूरो दंड देना होगा. ग़ौरतलब है कि फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी भी वैचारिक तौर पर दक्षिणपंथी हैं. किसी को क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं, यदि एक विकसित लोकतंत्र इस बात का फैसला करता है तो यह हास्यास्पद नहीं तो और क्या है. फ्रेंच सरकार ने बुरक़ा को ग़ुलामी का प्रतीक माना है और यदि ऐसा है भी तो सरकार को इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि कोई क्या पहनता है. कोई मज़हब न तो चंद चरमपंथियों की वजह से ख़तरे में पड़ सकता है और न धर्मनिरपेक्षता ही फ्रांस में महिलाओं के बुरक़ा पहनने से कभी ख़तरे में पड़ेगी।
साभार...न्यू एज़ इस्लाम
अल्लाह पर किसका हक़ है?
सारा विवाद उस व़क्त सामने आया जब एक चर्च ने गॉड (ईश्वर) शब्द का अनुवाद अल्लाह शब्द के तौर पर किया. इस विवाद की वजह से हिंसा भी हुई. कुछ दिन पहले तीन चर्चों पर हमला किया गया. साठ के दशक मलयों और चीनियों के बीच हुई हिंसक घटनाओं को छोड़ दें, तो कुल मिलाकर वहां हमेशा शांति बनी रही है.
लेकिन, एकबार फिर मलय-ईसाई एवं मलय-हिंदुओं के बीच संबंध बिगड़ने लगे हैं. इसी से तनाव पैदा हुआ है. जब ईसाइयों ने अल्लाह शब्द का इस्तेमाल किया तो मलयों ने इसकी मुख़ालफ़त की. उनके मुताबिक़ इससे भ्रम’ की स्थिति पैदा होगी. वहीं ईसाई मिशनरी के मुताबिक वे अल्लाह शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं. यह उनका अपना तर्क हो सकता है. पर दिक्कत यह है कि कुछ राजनेता इन विवादों को अपने फ़ायदे के हिसाब से भुनाना चाहते हैं.
दरअसल, जो लोग ईसाइयों द्वारा अल्लाह शब्द के इस्तेमाल का विरोध कर रहे हैं, उनके पास विरोध की वाजिब वजह नही है. अल्लाह एक हैं और उसने हम सभी को बनाया है. इसलिए इसके इस्तेमाल पर किसी एक मजहब का हक़ नहीं हो सकता है. यदि ग़ैर मुसलमान भी गॉड या ईश्वर के लिए अल्लाह शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो मुसलमानों को इसका स्वागत करना चाहिए. उन्हें यह समझना चाहिए कि इसके ज़रिए लोग इस्लाम को समझने की कोशिश कर रहे हैं, न कि इस्लाम पर अपना कब्जा कर रहे हैं. इसलिए होना तो यह चाहिए कि मलयों को उदारवादी बन कर इस्लाम के उदार चेहरे से लोगों को वाक़िफ करांए. आज जबकि हर तरफ आतंकवाद की बात हो रही है और लोग आतंकवाद का मतलब इस्लामिक आतंकवाद से ही लगा रहे हैं, जो कि कतई सही नहीं है. ऐसे में इस तरह के नज़ीर से सकारात्मक संदेश लोगों तक पहुंच सकेगा.
साभार...न्यू एज़ इस्लाम