मुंबई और महाराष्ट्र के कुछ इलाक़ों में हिंसा नहीं तो कम से कम भय का माहौल ज़रूर है. इस दौरान प्रशासन का ढुलमुल और मुस्तैद दोनों रवैया देखने को मिला. पर दोनों हालात में वजह अलग-अलग थीं. पहला मसला मराठी वोट बैंक से जुड़ा था, तो दूसरा कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी से. जितना अहम पहला वाला था, उतना ही दूसरा वाला मसला. एक तरफ़ सरकार को यह भी दिखाना है कि वह मराठी अस्मिता के साथ है तो दूसरी ओर उसे राहुल की नाक भी रखनी थी. यही वजह है कि जो सरकार और प्रशासन पिटते बिहारियों और उत्तर भरातीयों की रक्षा नहीं कर पाई, वही शाहरूख़ की फ़िल्म के सिनेमाघरों के पास इस तरह मुस्तैद हो गई कि कोई परिंदा भी पर नहीं मार सका. पर सवाल तो अब उठता है. सही सवाल. सवाल सरकार की नियत का. क्या सरकार की नियत में कहीं खोट है? यदि नहीं तो क्या हर भारतीय या मुंबई के संदर्भ में कहें तो उत्तर भारतीय की सुरक्षा राहुल गांधी की तरह हो सकती है. नहीं, बिल्कुल नहीं. इसकी वजह यह है कि हम और आप या इस मुल्क की अधिकतर आबादी राहुल गांधी की तरह मुंह में चांदी की चम्मच लेकर पैदा नहीं हुए हैं. यही फ़र्क है जनता और नेता में. और, सरकार किस तरह इन मामलों में घालमेल करती है, यह बात भी किसी छिपी नहीं है. दरअसल क़ानून व्यवस्था राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी होती है. लेकिन राज्य सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों को हमेशा ठेंगा दिखाती रहती है. अभी मामला ज़्यादा पुराना नहीं हुआ है, जब राज ठाकरे उत्तर भारतीयों के ख़िलाफ़ आग उगल रहे थे और इसके बावजूद मुंबई के पुलिस कमिश्नर ने राज ठाकरे को अपनी बेटी की शादी में आमंत्रित किया. जिसकी जगह जेल में होनी चाहिए थी. वह क़ानून की हिफाजत करने वाले के साथ बेफिक्र घूम रहा था.
शिवसेना और उससे अलग होकर बनी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना शुरू से ग़ैर मराठी का विरोध कर अपना जनाधार हासिल करने की कोशिश करती रही है. और, वहां की सरकार भी इनके भड़काऊ भाषणों एवं उपद्रवों को नज़रअंदाज़ करती रही है. शरद पवार की पार्टी तो पहले चुप रहा करती थी, पर वह भी कांग्रेस द्वारा लगातार नीचा दिखाए जाने और महंगाई के मसले पर पवार साहब को घेरने के कारण सक्रिय हो गई है. ख़ुद पवार साहब घुटन महसूस कर रहे थे. इसलिए वह कुछ मज़ा कांग्रेस को चखाना चाहते थे. उनके पास प्रदेश का गृह विभाग है, पर दिलचस्प बात है कि वह अपने घर की हिफाजत के लिए भी बाला साहब ठाकरे की शरण में जाते हैं. बहाना बनाकर ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी की सुरक्षा का. यदि यही बात थी, तो उसके बाद भी बाला साहब ने इन खिलाड़ियों के ख़िलाफ़ टेप क्यों जारी की. ठाकरे साहब तो और भी आग उगलने लगे. यानी पवार साहब का यह दांव भी उल्टा पर गया. यानी जब तकदीर सही न हो तो शतरंज की सीधी चाल भी टेढ़ी नज़र आने लगती है. कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि यह भारतीय लोकतंत्र में एक नई किस्म की राजनीति की शुरुआत है और इसकी असली तस्वीर आने वाले वर्षों में और भी धुंधली होने वाली है.
बहुत ख़ूब
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