चंद चरमपंथी धर्म के ठेकेदार नहीं हो सकते

ईसाइयों द्वारा अल्लाह शब्द का इस्तेमाल से भय स़िर्फ उन्हीं लोगों को हो सकता है, जो यह समझते हैं कि मजहब का पालन केवल भाषाई तौर पर ही होता है. आज मलेशिया में मलय और मुसलमान एक दूसरे की पहचान बन चुके हैं. ऐसे में इस तरह के भय को सही कैसे ठहराया जा सकता है?
कुछ साल पहले की बात है. एक मलय मुसलमान ने इस्लाम धर्म से दूसरा धर्म अपना लिया. इस पर का़फी शोर शराबा हुआ. यहां तक कि शरिया अदालत ने उसे सज़ा भी दी थी. उसे फिर से इस्लाम धर्म को क़बूलना पड़ा. ऐसे में भला इस बात को न्यायोचित कैसे ठहराया जा सकता है कि पूरा जनसमुदाय धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन जाएगा. और, आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में कोई किसी को क़ानून का भय दिखाकर अपना मज़हब बदलने से नहीं रोक सकता है. यदि कोई धर्म परिवर्तन करता है तो यह मसला अल्लाह और उसके बीच का है. इन मामलों में कोई इंसान स़िर्फ ख़ुदा के प्रति ही जवाबदेह होता है.
फिर भी, यदि सही मायनों में देखें तो यह सारा मसला मज़हबी नहीं, बल्कि राजनीतिक है. बहुसंख्यक समुदाय यह महसूस करता है कि वह अल्पसंख्यक बन जाएंगे. इसीलिए वह इसकी मुख़ाल़फत कर रहे हैं. भारत में हिंदुवादी ताक़तें भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में क़ानून बना रहे हैं. ताकि वह हिंदुओं को ईसाई या मुसलमान बनने से रोक सकें. लेकिन, यदि कोई मुसलमान या ईसाई हिंदु धर्म क़बूलता है तो वह इसका स्वागत करते हैं. इस तरह यह मसला राजनीतिक स्वार्थ से जुड़ा है, न कि धर्म परिवर्तन से. धर्म परिवर्तन का मुद्दा बेहद ही निजी है. यदि ऐसा नहीं होता है तो हमारा लोकतांत्रिक अधिकार ख़तरे में पड़ जाएगा.
कट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यकों में डर का माहौल पैदा करने के लिए यह सारा मुद्दा खड़ा किया है. मलेशिया में भी इन्हीं वजहों से विवादों को तूल दिया गया है. और, जब भारत में भाजपा ने ऐसा ही विवादास्पद मुद्दा रामजन्मभूमि के बारे में उठाया तो नरसिंहा राव की अगुवाई वाली कांग्रेस पार्टी ने बाबरी मस्जिद को गिरने दिया. मलेशियाई सरकार भी सहमी हुई है और इसी चलते वह उच्च न्यायालय के फैसले को लागू नहीं कर रही है.
किसी भी बहु धार्मिक और बहु सांस्कृतिक लोकतंत्र को आदर्श माहौल में काम करना मुश्किल होता है. यहां तक कि पश्चिम के विकसित मुल्कों में भी धर्म को लेकर तनाव पैदा होते रहते हैं. फ्रांस में अफ्रीकी मुसलमान और गोरे फ्रेंच के बीच अक्सर तनाव होता रहता है. यह मसला धार्मिक नहीं, बल्कि उससे अधिक आर्थिक और राजनीतिक है. ऐसी विवादों के पीछे दक्षिणपंथी ताक़तें भी होती हैं. हाल में, फ्रेंच सरकार ने बुरक़ा पर प्रतिबंध लगाया है. यदि किसी को बुरक़े में देखा गया तो उसे पर 750 यूरो दंड देना होगा. ग़ौरतलब है कि फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी भी वैचारिक तौर पर दक्षिणपंथी हैं. किसी को क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं, यदि एक विकसित लोकतंत्र इस बात का फैसला करता है तो यह हास्यास्पद नहीं तो और क्या है. फ्रेंच सरकार ने बुरक़ा को ग़ुलामी का प्रतीक माना है और यदि ऐसा है भी तो सरकार को इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि कोई क्या पहनता है. कोई मज़हब न तो चंद चरमपंथियों की वजह से ख़तरे में पड़ सकता है और न धर्मनिरपेक्षता ही फ्रांस में महिलाओं के बुरक़ा पहनने से कभी ख़तरे में पड़ेगी।

साभार...न्यू एज़ इस्लाम

2 comments:

  1. yahi bat hame bhi samjhne ki jarurat hai

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  2. चंदन कुमार जी को बधाई।
    उनकी यह पोस्‍ट विवाद का धर्म शीर्षक से
    आज दिनांक 16 फरवरी 2010 के
    हिन्‍दी दैनिक जनसत्‍ता के समयांतर
    स्‍तंभ में पेज 6 पर प्रकाशित हुई है।

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