नसीम हमीद पाकिस्तानी एथलीट हैं. उन्होंने दक्षिण एशियाई खेलों में 100 मीटर दौड़ का गोल्ड मेडल जीता. बांगलादेश में हुए इन खेलों की समाप्ति के बाद जब नसीम पाकिस्तान वापस लौंटी तो उनका जोरदार तरीके से स्वागत हुआ। इन खेलो के 26 साल के इतिहास में नसीम पहली पाकिस्तानी महिला हैं, जिन्होंने 100 मीटर के दौड़ में गोल्ड मेडल जीतकर पाकिस्तान का नाम रोशन किया है. इस महिला खिलाड़ी ने आतंकवाद की चोट से घायल मुल्क के लोगों के लिए खुशी का जो अवसर दिया है, उसकी तुलना नहीं हो सकती है. कहतेहैं पाकिस्तान एक मुस्लिम मुल्क है. वाकई वह है. लेकिन इस्लामिक मुल्क होने का यह मतलब कतई नहीं होता कि वहां महिलाओं को घर से बाहर न निकलने दिया जाए. उन्हें तालीम हासिल न करने दी जाए. यह सोच कट्टरपंथी मानसिकता वाले लोगों की ही हो सकती है. चाहे वह किसी भी मजहब के हों. यदि मुसलमान भी यही सोचते कि महिलाओं को घर से बाहर निकलना इस्लाम के ख़िलाफ़ है तो वही लोग नसीम के स्वागत की अगुवाई नहीं करते. यह बात पाकिस्तान की है. जहां तालीबान जैसे चरमपंथी हावी हो रहे हैं. पाक की छवि इसी चरमपंथी टाइप की बना दी गई है. लेकिन वहां के लोगों की सोच तो कुछ और ही है. तरक्की करना भला कौन नहीं चाहता? हर मुल्क, हर शख्स अपनी सफलता पर शान करता है. यदि कोई अपने देश का नाम रोशन करता है तो उसकी ख़ातिरदारी भी बेहद ही जश्न वाले अंदाज़ में होता है. आए दिन पाकिस्तान में धमाकों की ख़बरें सुनने को मिलती रहती हैं. तालीबान का तांडव हर रोज़ खुलेआम देखने को मिलता है. महिलाओं पर तो ख़ास तौर से पाबंदी में रहना पड़ता है. मुस्लिम मुल्कों में महिलाओं पर पाबंदी की बात होना कोई बड़ी बात नहीं है. पहले महिलाओं से उनकी आज़ादी छीनी जाती है. उसके बाद धीरे धीरे कर उनके अधिकारों पर नकेल कसी जाती है. एक दौर ऐसा आता है जब महिलाएं ग़ुलामी ज़िंदगी जीने को मजबूर होती हैं. हम भले ही यह कहते रहें कि चीन भारत से अधिक विकसित मुल्क है, लेकिन वहां क्या भारत जैसी आज़ादी है. अधिकारों की आज़ादी. हममें कई ख़ामियां हैं. बेशक हैं, लकिन इन सबके बावजूद खूबियां भी हैं. यहां लोगों को खुली हवा में सांस लेने की आज़ादी है. भले ही इस आज़ादी का फायदा कुछ लगो उठाते हैं. इसका दुरूपयोग करते हैं. लेकिन यह किसी अमानत कम नहीं है. यानी कोई आम आदमी अपनी आज़ादी और सफलता पर हमेशा गुमान करता है. आज मजहब को लेकर मुल्क बंटे हुए हैं. मजहब के मुताबिक ज़िंदगियां तय हो रही हैं और जी जा रही हैं. कुछ धर्म के ठेकेदार धर्म की बातों के मुताबिक ज़्यादा ही सख्ती बरत रहे हैं. उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान को ही ले लें तो वहां महिलाओं पर काफी पाबंदी हैं. वहां कई इलाकों में तालीबान की हुकूमत चलती है. उन्हीं के मुताबिक कायदे कानून बनाए जाते हैं. इन कायदे कानूनों की पहली गाज महिलाओं पर ही गिरती है. आखिर पुरुषों को घर में रहने की पाबंदी क्यों नहीं है? महिलाओं को ही शिक्षा से महरूम क्यों रखा जाता है? लेकिन हम आपको बता दें कि यह कोई नहीं चाहता कि कोई उसकी ज़िंदगी जीने के तरीके को तय करे. भले मजहब का मतलब होता है जिंदगी जीने का तरीक़ा, लेकिन इसी से ज़िंदगी रिमोट कंट्रोल होने लगे तो कष्ट होता है.
सुन्दर लेख लिखा!
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