अपनी योग्यता बढ़ाने के लिए मैंने इसबार लॉ में दाखिला लिया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस फैकल्टी ऑफ लॉ। अगर सब टीवी पर दिखाए जाने वाले शरद जोशी कहानियों का पता- लापतागंज वाले स्टाइल में कहूं तो बिजी इन डूइंग लॉ लाइक बिजी पांडे। तीन साल का कोर्स है। ज्यादा नहीं है, बस तीन ही तो है। हां, जब हमारे देश की सरकारों को आम आदमी का विकास करने में पांच साल भी कम लगते हैं, तो मुझे तो ये तीन साल और भी कम लगने चाहिए। हां, भई देखते नहीं हैं, जब-जब चुनाव का मौसम आता है, सरकारें लोक कल्याणकारी योजनाओं की बौछार कर देती हैं। उनका दावा होता है कि जो भी राज्य में इस दौरान काम हुआ वह उनकी ही देन है। हालांकि कुछ नहीं हुआ होता है। पर गिनाने को तो वह आजाद हैं। चूंकि हुआ नहीं होता है तो उनको लगता है वक्त कम पड़ गया। जनता के बीच जाते हैं और कहते हैं इस बार उन सभी कामों को करना है। यानी पांच साल कम है, इसलिए जनता उन्हें फिर पांच साल दे। जनता देती भी है। फिर भी कुछ नहीं होता, वह एकबार फिर अधूरे कामों का रोना लेकर जनता की अदालत में पांच साल के भीख मांगने हाजिर हो जाते हं। यानी निष्कर्ष यही निकला कि नेताओं के पास वक्त की कमी होती है। हालांकि, मुझे लॉ कितने साल में पूरा करना है इस पर मैं बाद में विचार करूंगा। पर, मुझे इसके लिए किसी के पास जाने और न ही कुछ कहने की जरूरत है। मेरा कुछ न करना ही मेरे लॉ के तीन साल के कोर्स की अवधि को बढ़ाने के लिए काफी है। खैर, इसकों भी छोड़ते हैं। दरअसल, मैं लॉ कैंपस से इन दो चार दिनों की कुछ सुनहरी बातें आपसे साझा करना चाहता था। पर, उसे अगली बार आपके साथ साझा करूंगा। अभी थोड़ा डोज ज्यादा हो गया। लिखने की शुरुआत उन्हीं बातों से की थी। पर, अचानक से विचारों की तन्मयता टूटी। विचार दूसरी जगह गोते लगाने लगे। इस तरह जाना था जापान और पहुंच गए चीन की तरह मेरा यह लेख बन गया। एक बात और कहते चलूं, ताकि अगली बार वही बात कहूं जो आप से इस बार कहना चाहता था। बात यह है इस बार जब घर गया तो कुछ अच्छे पढ़े-लिखे और ऊंचे ओहदेदार लोगों के घर शादी में जाना हुआ। वहां लड़के के भाव की चर्चा ज्यादा थी यानी दहेज की। हाल में मेरे चचेरे भाई की नौकरी एयरफोर्स में हुई है। इससे उसका रेट भी बढ़ गया है। पहले लोग उसकी शादी के लिए अगुअई के लिए आते तो हजार में ही दाम लगाकर निकल लेते थे। अब मेरे सरकारी नौकरीशुदा भाई की कीमत लाखों में लगाई जाने लगी है। घर वाले भी खुश हैं। इस बीच मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। मैं एक अखबार में काम करता हूं, सब एडिटर हूं। घर जाता हूं तो रुआब झाड़ने के लिए खुद को पत्रकार बतलाता हूं। हां तो मैं अपने मामा के लड़के की शादी में गया था। वहां मामाजी ने जब अपने समधि से परिचय कराया, पत्रकार के तौर पर। मामाजी के समधि ने कहा, हां वो तो ठीक है पर तनख्वाह कम है। उस वक्त तो कसम से दिल को बहुत बुरा लगा। वजह यह कि सैलरी तो सभी को हमेश कम ही लगती है। मुझे भी लगती है। पर अभी मैंने छह महीने पहले कैरियर की शुरुआत की है तो भाई लोग ठीक-ठाक दे देते हैं। पर उनकी बातों से लगा, पत्रकार लोगों का मार्केट डाउन है। उनकी कीमत बाजार में कम ही लगती है। सो मैंने अपनी योग्यता बढ़ाने की ठानी पहले तो सोचा आईएएस बनूंगा, सीधे करोड़ों में अपने आप को बेचूंगा। पर, यहां आकर शुरुआत लॉ से की है। इसलिए मैंने शुरू में लिखा भी है, योग्यता बढ़ाने के लिए मैंने लॉ में दाखिला ले लिया है। मकसद आपको बता दिया। इसकी एक सच्चाई बाद में, जो सबसे अहम है।
ख़बरों को बेचिए, पर ज़रा संभल के...
मीडिया में अनुप्रास युग बढ़-चढ़ कर बोल रहा है। अनुप्रास के आलोचक भी इसके कायल हैं। पहले इसका इस्तेमाल करते हैं, फिर उसे गरियाते हैं। एक तरह से जिस ताली में खाओ उसी थाली में छेद करने की परंपरा भी तेजी से बढ़ रही है। कुछ तो यहां तक कहते हैं कि इसका कोई विकल्प नहीं है। हम सड़क छाप उपन्यासों के नामों के खबरों में धड़ल्ले इस्तेमाल करते जा रहे हैं। फिर मेरे भाई इस तरह का ड्रामा क्यों? यही हालत पत्रकारिता की है. पत्रकाल लोग अपनी पूरी प्रतिभा दिखा रहे हैं। लेकिन यह प्रतिभा उनके पेशे की पवित्रता को बचाने के लिए नहीं, बल्कि अपनी साख बनाने के लिए होती है। सही भी है, लोकतंत्र में हरकिसी को अपनी तरह से जीने का हक है। पर, लोग वही रास्ता क्यों अख्तियार कर रहे हैं, जो सबसे आसान और विध्वंसक है। समस्या तो और भी गंभीर बनती जा रही है, क्योंकि इनके बारे में इतना लिखा जा चुका है कि अब सब बेअसर ही रहता है। तो क्या विकल्प हमारे पास बेहद ही कम बचे हैं या फिर वह भी नहीं बचा है। आज देखें तो तमाम तथाकथित बड़े पत्रकार बड़े-बड़े ओहदों पर विराजमान हैं। जब वे हमारी उम्र के थे या जब उन्होंने पत्रकारिता शुरू की थी तो उनकी बातें भी बड़ी-बड़ी हुआ करती थीं। हम उनकी लेखों को पढ़कर उन्हें सम्मान की नजर से देखते थे। पत्रकारिता में गलत चीजों के घुसपैठ पर चर्चा तो उस वक्त भी हुआ करती थी। लेकिन यह चर्चा पत्रकार के सत्ता से समझौता करने की होती थी। आपातकाल इसका उदाहरण है। लेकिन अब तो हालत और भी खतरनाक है। सत्ता से समझौता करने वालो का विरोध करने वाले भी चुप रहने लगे हैं। यदि वो बोलते भी हैं तो उनकी आवाज में वह बात नहीं जिसका असर हो। अब यह है कि हर कोई दलाल नजर आ रहा है। पहले खबरों को लेकर अखबारों और टीवी चैनलों में ठन जाती थी। चैनल वालो की खिंचाई में अखबार वाले भाई हमेशा लगे रहते। पर, अब उनको क्या हुआ? वक्त के साथ समझौता किया। वक्त नहीं अपने ईमान, पाठक और पाक पेशे से समझौता किया। एक तरह से लोग समझौतावादी हो गए। खबरों को छोड़ खुद इसे गढ़ने लगे हैं। मनगढ़ंत खबरें आज कुछ और चलती हैं तो कल ठीक उसके उलट वाली खबर चलती हैं। वह भी उसी चैनल या अखबार में। हाल में, सचिन तेंदुलकर के बायोग्राफी का उदाहरण। रुछ दिनों तक खुलेआम चलता रहा कि इसमें सचिन का खून है। सब भाइयों ने चलाया, क्या अखबार वाले क्या चैनल वाले। चंद दिनों बाद सचिन सामने आए और कहा इसमें मेरा कोई खून वगैरह नहीं है। कहने का मतलब कि भाई जिसकी खबर चला रहे हो, उससे कम से कम कंफर्म तो कर लो। यह भी जहमत उठाने की किसी ने कोशिश तक नहीं की। यह हो गया है खबर का स्तर उसकी सच्चाई से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। बस खबरों को बेचो...
गऊ होता है उंगलीबाज
आजकल एक विचित्र तरह का प्रचलन बन-चल पड़ा है। विरोध के नाम पर विरोध करना। मुद्दों के आधार पर नहीं, बल्कि वह कुछ भी कहे, मुझे उसकी हर बात काटनी है। मसला चाहे कोई भी हो, उसकी हर बात में उंगली करनी है। कुछ दिनों पहले कहीं ब्लॉग पर ही पढ़ा था, इस तरह के लोगों को उंगलीबाज कहते हैं। ब्लॉगर भाई साहब इस तरह के प्राणी का बहुत ही मनोरम वर्णन किया था। काफी दिनों बाद मुझे उनकी याद आई और उससे अधिक उनके उंगलीबाज। इस तरह के लोग बात-बात में मिनमेख निकालकार उसका फलूदा निकालते हैं। इस तरह के लोगों से बचने की बहुत ज्यादा जरूरत होती है। वजह यह कि भाई लोग बड़े ही शातिर और तिलिस्मी प्रतिभा से भरे होते हैं। इनकी विद्वता का लोहा हर कोई मानता है, ज्ञान का नगारा चौतरफा सुनाई पड़ता है। हालांकि, आम लोग इन्हें सुपिरियरिटी कॉम्प्लेक्स से ग्रसित भी बताते हैं। इनकी इस बीमारी का स्तर उनके कुंठित होने के पैमाने से मापा जाता है। यह जितना अधिक होगा, उंगलीबाज की हरकतें भी उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है। वह बेतरतीब सा अपनी ही दुनिया में मगन रहता है। लेकिन इनको झेलना उतना ही मुश्किल होता है, जितना मरखाह गाय को खूंटे से बांधना। मतलब समझ ही गए होंगे। वैसे गाय सबसे मासूम जीव है, ऐसा लोग कहते हैं, तो मैं भी मान लेता हूं। उसके जैसा सीधा-साधा और भोला-भाला जीव कोई नहीं। पर, यह भई लोग कहते हैं कि सीधा-साधा और भोला-भाला अपने रंग में रंगता है तो वह सांड़ से भी खतरनाक बन जाता है। इसलिए उसे लोग मरखाह गाय भी कह देते हैं। दूसरी बात यह कि अक्सर कामकाजी महिलाओं को भी गऊ यानी गाय मान लिया जाता है, क्योंकि वह सारा काम बिना कुछ पूछे-रुठे या फिर बिना विरोध के चुपचाप कर लेती है। यहां तक कि अपनी गलती न होने पर पति का मार भी खा लेती है। हालांकि, कुछ कहानी इसके ठीक उलट भी होती है। पर, ऐसा कम ही होता है। अपवाद की तरह। लेकिन, उंगलीबाज के बारे में कोई अपवाद काम नहीं करता है। वह आपको इतना परेशान करता है कि आप अक्सर तनाव में रहने लगते हैं। उसकी संगति से आप इन चीजों से लाभान्वित होते हैं। मसलन ब्लडप्रेशर, तनाव, क्रोध, खीझ, चिड़चिड़ापन आदि। आत्ममुग्ध इस महामानव की एक खासियत यह भी होती है कि वह आपको बार-बार एहसास दिलाता रहता है कि आर कितने निकम्मे हैं और वह काबिल। उसे अपनी मार्केटिंग भी अच्छी तरह से करने आती है। वह जहां जाता है या तो सबकी आंखों का तारा बन जाता है या आंखों की किरकिरी। सबसे जरूरी सूचना यह कि इन्हें पहचानना जितना आसान है, उतना मुश्किल भी। बस अनुभवी और पारखी नजर वाले ही इस तरह के विभूतियों को पहचान पाने में सक्षम होते हैं। इसलिए, बंधु आपको इस तरह के चरित्र वाले कुछ अद्भुत प्राणी मिलें तो क्या करना है यह आप खुद तय कीजिए....क्योंकि वक्त के साथ-साथ ये अपना चाल-चिरत्र-चेहरा और चिंतन बदलते रहते हैं।
दिल्ली है या गड्ढा
गुलाल फिल्म के गाने की दो लाइनें याद आ रही हैं. " जिस कवि की कल्पना में जिन्दगी हो प्रेम गीत, उस कवि को आज तुम नकार दो." दरअसल, मै कहना कुछ और चाहता हूँ. पर उसके लिए भूमिका बांधना बेहतर नहीं समझता. बात नक्सलियों की है. हर दफा कोई बड़ा हादसा होता है, मीडिया वाले उसे सुर्खियाँ बनाते हैं, लोगों में नक्सलियों के प्रति नफ़रत की भावना जगती है. सरकार भी यही चाहती है. यही वजह है कि वह इस गंभीर समस्या से निपटने के बजाय आग में घी डालने का काम करती है. यहाँ एक बात और कहना चाहूँगा कि हमारा देश, प्यारा भारत विविधताओं का देश है. अब तक मै इसे स्कूलों में पढता आ रहा था. पर अब चन्द अनुभवों के बाद अब लग रहा है, नहीं वाकई हमारा देश विविधताओं का देश है. यहाँ इतनी समस्याएँ हैं फिर भी लोग मजे से रहते हैं. लोगों को दो वक़्त कि रोटी नसीब नहीं होती फिर भी हँसते हुए जिन्दगी गुजरती है. भारत नमक इस महान मुल्क में कई मजहब के लोग रहते हैं, वह भी साथ-साथ. आपस में दंगे होते है. कोई बात नहीं, एक परुवार में झगड़े कहाँ नहीं होते हैं. कहते भी हैं, झगड़ा से मोहब्बत बढ़ता है. हालाँकि यह अलग बात है कि इस मोहब्बत बढ़ने के कारोबार में बेगुनाहों को अपनी जान गवांनी पड़ती है. एक बात और कि इस तरह कि मोहब्बत बढाने में हमारी राजनीति और नेता विशेषज्ञ माने जाते हैं. यानी कुछ बात है हस्ती मिटती नहीं हमारी, वह बात कौन सी है, पता नहीं. पर कुछ बात है जों हमारी हस्ती मिटने नहीं देती है. लोग भूखे सोते हैं, फिर भी उनकी हस्ती नहीं मिटती है. आजकल एक और काम हो रहा है. राष्ट्रमंडल खेलों कि तैयारियां जोरों से चल रही हैं. देश कि राजधानी दिल्ली में यह खेल तक़रीबन दो महीने बाद होना है. लेकिन दिल्ली को पेरिस बनने का दावा करने वालों ने इसकी जों हालत कर राखी है, उससे यह हडप्पा और मोहनजोदड़ो ज्यादा लग रही है. कहने का मतलब यह कि...यहाँ खुदा है, वहां खुदा है, जहाँ नहीं खुदा है, वहां कल खोदने कि तैयारियां चल रही हैं. हर जगह एक साजिश चल रही है. आम आदमी के पैसों पर चांदी काटने वाले हर तरफ नज़र आ रहे हैं. लोगों को उनके हक से महरूम करने वाले जिन्दगी से भी जुदा करने कि साजिश रच रहे हैं. इसके बावजूद दावा यह कि यह सब उनकी खातिर ही हो रहा है.
भ्रमित भारत का सच
भारत आज अपनी हालत पर आंसू बहा रहा है। हर तरफ हाहाकार मचा हुआ है। फिर भी एक अजीब तरह की खामोश नजर आती है। लोग मर रहे हैं। हम चुप हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं, हम चुप हैं। सरकार जबरन किसानों का जमीन हथिया रही है, फिर भी हम चुप है। उद्योगों के लिए जमीन नहीं देने वालो को पुलिस सरकार के हुक्म से किसानों पर गोलियां बरसाती है, हम चुप रहते हैं। नेता, जनता यानी हमारे अरबों रुपए डकार जाते हैं, हम चुप रहते हैं। कई इलाकों में बाढ़ आया, सरकार ने पैसा आवंटित किया, जनता तक पैसा नहीं पहुंचा, हम चुप। हमारे नेता सेक्स स्कैंडलों में लिप्त मिलते हैं, हम सवाल नहीं करते। चुर रहना बेहतर विकल्प समझ बैठते हैं। महंगाई से हाल बेहाल, हम चुप। नेता गुलछर्रे उड़ाते हैं, हम मारे जाते हैं। चुप रहकर हम हलत को सही साबित करते रहते हैं। जब तक हम पर असर नहीं पड़ता हम मुंह खोलना मुनासिब नहीं समझते। जब खोलते हैं तो अलग-अलग। यह हमारी मजबूरी भी हो सकती है या फिर तूफान से पहले की खामोशी।
दूसरी बात, आज हमारा मुल्क, प्यारा देश भारत कई क्षेत्रों में विकसित देशों को चुनौती दे रहा है तो कुछ मामलों में हम निर्धनतम देशो से भी बदतर हैं। मतलब यह कि फिर आजाद होने की वर्षगांठ माने वाले हैं। इस बार 64वीं वर्षगांठ मनाएंगे, लेकिन इनते सालों बाद भी देश के समग्र विकास का सपना अधूरा ही है। देश में जहां कुछ लोगों की आय हर घंटे हजारों-लाखों बढ़ रही है, वहीं 40 करोड़ से अधिक की आबादी महज दो वक्त की रोटी के लिए हर रोज जद्दोजहद करता नजर आता है। इसमें भी पूंजी पैदा करने वाले स्रोतों पर उसी का कब्जा होता है, जिसके पास पहले से ही पूंजी है। मतलब यह कि गरीब यदि चाहे कि वह अमीर हो जाए तो उसके लिए दूर की कौड़ी है. जो इस पूंजी बनाने की दौड़ में भी पीछे रह रहे हैं वह या तो गरीबी या शोषण के मारे हैं या फिर वह भ्रष्टाचार और आपराधिक तरीकों को अपना रहे हैं, ताकि वह भी ग्लोबल दुनिया की अंधी दौर में शामिल हो सके। फिर यहां से एक और समस्या उत्पन्न होती है कि जो कानून को पूजते हैं, उसके हर हुक्म की तामील करते हैं, उन्हें ही सताया जाता है। दो-चार सौ की चोरी करने वाले को या झूठे मुकदमों में लोगों को 4-5 साल या इससे भी अधिक तक जेल में सड़ना पड़ता है। वहीं, देश को अरबों का चूना लगाने वाला और कई अपराधों का गुनहगार महज एक-दो दिन जेल में रहने के बाद आसानी से बेल पर रिहा हो जाता है। जेल से बाहर आने पर उसका स्वागत फूल हारों से किया जाता है। मानों देश को चूना नहीं आजादी दिलवाई हो। तमाम काली करतूतों के बाद वह राजनेता के खिताब से सम्मानित किया जाता है। यह किसी दूसरे देश की बात नहीं बल्कि मंदी के दौर में भी सात-आठ फीसदी से तरक्की करने वाले मुल्क भारत की कड़वी और काली हकीकत है। नेताओं का उदाहरण देना मुनासिब नहीं होगा। वजह यह कि अगर गिनती की जाए तो शायद ही कोई ऐसा है, जिसका दमान दागदार न हुआ हो। जिस पर शायद किसी तरह के आरोप न लगे हों। शायद ही कोई आर्थिक गड़बड़ी, सेक्स स्कैंडल, धोखाधड़ी, हत्या, मारपीट, यहां तक कि बलात्कार, पत्नी के रहते दूसरी नामचीन महिलाओं से अवैध संबंध, कबूतरबाजी जैसे कई मामलो के कसूरवार न हों। हर किसी पर किसी न किसी तरह का आरोप है। यह उस देश की दुर्दशा की कहनी है, जो कथा कुछ और हुआ करती थी। पर सब बातें हैं, बातों का क्या?
हम नहीं हैं काबिल, कह दें वो सरेआम ज़रा
बेमतलब की बातों में उलझना बेकार है,
पर हर बात को बेकार समझ,
लोगों का दिल दुखाना,
ये किस खता का कसूर है.
माना आपकी तरह हम नहीं काबिल,
नहीं हममे में वो बात, न ही ज़ज्बात,
जो आपमें में है,
पर हमें नज़रअंदाज़ करे वो,
ये गवारा नहीं.
हम नहीं उनके काबिल तो कह दे सरेआम,
न कोई शिकवा और न ही पछतावा होगा,
होगा तो बस दर्द और चुभन
पर, यूँ हमारी गैर मौजूदगी में
खुद का दिल दुखाना,
पसंद नहीं.
अब तक ऐतबार करता आया,
आगे भी कर लेंगे यकीं उनका,
पहले पसंद थे अब हैं नापसंद उनका.
सावन से पहले की बारिश
सावन का महीना आने वाला है। बारिश अषाढ़ में ही झमाझम होने लगी है। ऐसे लग रहा है, अभी ही कजरी गाने के दिन आ गए हैं। चौपालों में आल्हा गाने का मौसम आ गया है। जंगलों में मोर के नाचने और घरों के बाहर, नदी-नालों में मेढकों के टर्राने के दिन आ गए हैं। सूखी बदरंग धरती पर जगह-जगह हरी-हरी घास दिखने लगे हैं। मानो किसी फटे कपड़े पर पैबंद लगा हो। हालांकि, भारत के कई भागों में बाढ़ की स्थिति है। पंजाब दिल्ली से कट गया है। असम यानी पूरे पर्वोत्तर में पिछले महीने से ही बारिश अभिशाप बना हुआ है। पर्यावरण के जानकार हर साल बारिश कम होने की चेतावनी देते हैं। बारिश उतनी ही हर साल ज्यादा होती है। उन्हें धता बताती है, जैसे उनका मुंह चिढ़ा रही हो। तुम कौन होते हो मेरे बारे में कुछ कहने वाले। अधिक बारिश से कुछ इलाकों में मजा किरकिर हुआ है। लेकिन, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि मुंबई, दिल्ली और कई जगहों पर बारिश से बाढ़ का सामना करना पड़ता है तो यह हमारी सरकार की कमजोरी और निठल्लेपन की वजह से। बारिश की मार एक बात है, निठल्लापन दूसरी। भारत में यह समस्या सरकार की सुस्ती से ज्यादा आती है।
यूरोप को ले डूबेगा ऑक्टोपसवा
फिर ऑक्टोपस की भविष्यवाणी सच हुई। फुटबॉल विश्वकप में तीसरे दौर के लिए हुए मैच में जर्मनी तीसरे पायदान पर रहा। हालांकि, मैच देखकर लग रहा था कि उरुग्वे जीतेगा और यूरोप अंधविश्वास के भंवर जाल में फंसने से बच जाएगा। पर, मैं गलत साबित हुआ। अब यूरोप को ऑक्टोपसवा ही बचा सकता है। पर एक बात तो है, ये पश्चिम वाले खामखां ही हमें साधु और जादूगरों का देश कहते रहते हैं। शायद अब उन्हें इस बात का एहसास हुआ। साधु, जादू, भविष्यवाणी में कितनी ताकत है। तभी तो अमीर भारत की गरीब जनता भविष्यवाणी से ही पूरी जिंदगी गरीबी में गुजार देता है। कोई भविष्यवक्ता कहता है, तुम्हारे हाथों की लकीरों में अमीर होने के लक्षण नहीं हैं। फिर बेचारा अपनी जिंदगी पारंपरिक तरीके से जीने लगता है। दिन में खूब कमाता है, रात को दारू में लुटाता है। बीवी को मारता है, बेटे से प्यार करता है। बेटी को फूटी आंख नहीं देखना चाहता। क्योंकि, बेटी दहेज में ढेर सारा सामान ले जएगी और बेटा उसे कमाकर पैसे देगा। अब भई मेरी चिंता तो यूरोप को लेकर इन सब मामलों में बढ़ गई है। कहीं ऑक्टोपसवा भी कुछ अइसा-वइसा बोल डाला तो पूरा यूरोप ही डूब जाएगा। ऑक्टोपसवा बोल रहा है, जर्मनी में असर भारत में हो रहा है। लोग तोते को काम में लगा बैठे हैं। लेकिन अपन तोतवा भी गलते निकला। जर्मनी जो जीत गया।
इन सबसे अलग मेरी चिंता कुछ और ही है। 15 अगस्त आने वाला है। इस दिन राष्ट्रीय छुट्टी होती है तो फुर्सत से कुछ सोच लेता हूं। बाकी दिन तो जैसे काम की बोझ से दबा महसूस करता हूं। हां, तो मैं कह रहा था कि हर राष्ट्रीय अवकाश वाले दिन सोचता हूं कि हम कितना बढ़े। कितना विकास हुआ देश का। अगर न सोचूं तो भी काम चलेगा, बल्कि ज्यादा आराम से चलेगा। लेकिन, साहब सोचना भी एक रोग है, जिसे यह बीमारी नहीं है, वह स्वस्थ है। और, मैं आजकल जरा-सा अस्वस्थ महसूस कर रहा हूं। अब जबकि ऑक्टोपसवा ठीक से अपना काम करने लगा है तो उम्मीद है, अस्वस्थता भी जाती रहे। सुना है भारत सरकार ऑक्टोपसवा का आयात करने जा रही है। अंदरखाने की बात है, पर सच है। वह भी टेंशन को भगाने के लिए उसकी भविष्यवाणी का सहारा लेना चाहती है। उसके सर का टेंशन अमिताभ का हिमरत्न तेल नहीं भगा सकी। ऊपर से, सरकार में अपने और गैर सभी आए दिन सर के बाल नोचने लगते हैं। कभी महंगाई को लेकर भारत बंद तो कभी मंत्रियों का अपना ईगो क्लैश। उधर, नक्सली में रहरह के नाक में अंगुली किए हुए है। अब कश्मीर भी कान उमेठने से बाज नहीं आ रहा है। जी बहुत हलकान हो गया है। पता नहीं चल पा रहा कि कब अपने मुसीबतों के दिन बहुरेंगे। सो सरकार ने सोच लिया अब तो ऑक्टोपसवा को ही आयात कर लेते हैं। पर, यहां भी फूंक कर कदम रख रही है कहीं, बोफोर्स की तरह कोई दूसरा क्वात्रोकी न निकल आए। लेकिन, ऑक्टोपसवा के बिना काम भी तो नहीं चलेगा। इतना बड़ा रिस्क जो लिया है। वैसे भी रिस्क लेने से डरता कौन है, हम तो वैसे भी नहीं। जरूरत भी नहीं है। काहे कि भैया हम सरकार में जो नहीं है। पर, हां शामिल होने की इच्छा जरूर है। कोई बड़ा आदमी था, जिसने यह बात कही थी कि अगर प्रधानमंत्री बनना है तो आपको दिल्ली में रहना पड़ेगा। इसी इंतजार में पांच साल से दिल्ली में ही खूंटा ठोके हुए हैं। अब बाहरी के नाम पर भगाओ या मराठियों की तरह पुंगी बजाओ या लात-गाली दो हम यहां से नहीं हिलने वाले।
कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा
मारो मारो मारो शोर था मारो
एक ओर साहब था
सेठ था सिपाही था एक ओर मैं था
मेरे पास आकर खड़ा एक राही था
बीस वर्ष
खो गए भरमे उपदेश में
एक पूरी पीढ़ी जनमी पली पुसी क्लेश में
बेगानी हो गई अपने ही देश में .....
2. कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा
न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का,
मेरे अंदर का कायर टूटेगा,
मेरे मन टूट एकबार सही तरह,
अच्छी तरह टूट झूठमूठ ऊब मत रूठ,
मत डूब सिर्फ जैसे कि परसों के बाद,
वह आया बैठ गया आदतन एक बहस छेड़कर,
दर्द दर्द मैंने कहा क्या अब नहीं होगा,
हर दिन मनुष्य से एक दर्जा नीचे रहने का दर्द।
3. कितना आसान है पागल हो जाना,
और भी जब उस पर इनाम मिलता है,
नक़ली दरवाज़े पीटते हैं जवान हाथों को,
काम सर को आराम मिलता है....
कितना आसान है नाम लिखा लेना,
मरते मनुष्य के बारे में क्या करूं क्या करूं मरते मनुष्य का...
कितना आसान है रख लेना अपने पास अपना वोट,
क्योंकि प्रतिद्वंद्वी अयोग्य है
रघुवीर सहाय की इन पंक्तियों की अहमियत और प्रासंगिकता, पिछले दिनों जो हुआ उस मायने में सबसे सटीक है...
एक ओर साहब था
सेठ था सिपाही था एक ओर मैं था
मेरे पास आकर खड़ा एक राही था
बीस वर्ष
खो गए भरमे उपदेश में
एक पूरी पीढ़ी जनमी पली पुसी क्लेश में
बेगानी हो गई अपने ही देश में .....
2. कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा
न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का,
मेरे अंदर का कायर टूटेगा,
मेरे मन टूट एकबार सही तरह,
अच्छी तरह टूट झूठमूठ ऊब मत रूठ,
मत डूब सिर्फ जैसे कि परसों के बाद,
वह आया बैठ गया आदतन एक बहस छेड़कर,
दर्द दर्द मैंने कहा क्या अब नहीं होगा,
हर दिन मनुष्य से एक दर्जा नीचे रहने का दर्द।
3. कितना आसान है पागल हो जाना,
और भी जब उस पर इनाम मिलता है,
नक़ली दरवाज़े पीटते हैं जवान हाथों को,
काम सर को आराम मिलता है....
कितना आसान है नाम लिखा लेना,
मरते मनुष्य के बारे में क्या करूं क्या करूं मरते मनुष्य का...
कितना आसान है रख लेना अपने पास अपना वोट,
क्योंकि प्रतिद्वंद्वी अयोग्य है
रघुवीर सहाय की इन पंक्तियों की अहमियत और प्रासंगिकता, पिछले दिनों जो हुआ उस मायने में सबसे सटीक है...
लाचार-बेबस और पंगु प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
भारतीय इतिहास में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भूमिका क्या होगी? हालांकि, भारतीय इतिहास में उनका नाम पहले ही स्वर्ण अक्षरों से न सही, पर दर्ज तो हो ही चुका है। जी हां, एक अर्थशास्त्री वित्तमंत्री के तौर पर। मनमोहन सिंह ही वह शख्स हैं, जिन्होंने भारत को एक नए अर्थ युग में धकेला। इससे बहुत सारे मध्यमवर्ग का जन्म हुआ। जिसके पास खर्च करने के लिए बहुत सारा पैसा आया। पर, यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि मनमोहन सरकार की ही बिठाई अर्जुन सेनगुप्ता की कमेटी ने कुछ बरस पहले अपनी रिपोर्ट के पहले पन्ने पर मोट-मोटे अक्षरों में लिखा था कि देश की लगभग 70 फीसदी आबादी अब भी हररोज महज बीस रुपए से कम पर गुजारा करती है। शायद मनमोहन सिंह को उसे पढ़ने के लिए और ज्यादा पावर वाला चश्मा चाहिए। तो ऐसे में जो दावा बहुत सारे मध्यम वर्ग का था, वह बाकी की तीस फीसदी तो कतई नहीं हो सकती। जरा अपने मन्नू भैय्या के भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति में उदय के संक्षिप्त नजर डालें तो उनकी भारतीय इतिहास में भूमिका खुद-ब-खुद पता चल जाएगी। 1991 में वित्तमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह भारत के नए आर्थिक कणर्धार के तौर पर सामने आए। इससे पहले वह रिजर्व बैंक के गवर्नर के तौर पर जो करना था, वह सब कर चुके थे। अब इतिहास की नई इबारत लिखने की कोशिश में लगे हैं मनमोहन सिंह। 2004 में एक नए मनमोहन सिंह का उदय हुआ। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। कहीं परिदृश्य में उनका नाम नहीं था। सोनिया गांधी भारत की प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं। उनके अपनों और गैरों ने इसमें अहम भूमिका निभाई। इस असफलता के बाद सोनिया का वरदहस्त एक ऐसे शख्स को तलाश रही थी, जो उनकी हर बात को जिन्न की तरह हुकुम मेरे आका की तरह माने। उनकी तलाश लो-प्रोफाइल मनमोहन सिंह पर पड़ी। वह लो-प्रोफाइल मनमोहन सिंह इस देश के हाई-प्रोफाइल पद पर जा बैठे यानी प्रधानमंत्री बन बैठे। उनकी सबसे खासियत बेदाग छवि होना माना गया। हालांकि बाद में उन पर कई तरह के आरोप लगे। भ्रष्ट होती राजनीति में बेदाग मनमोहन के पंगु प्रधानमंत्री का मुद्दा तो 2009 में आम चुनाव का बहुत बड़ा मुद्दा रहा। विपक्ष, खासकर बीजेपी और उसके प्रधानमंत्री के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने बड़े जोरशोर से उछाला। पर, एकबार जब मनमोहन ने जवाब दिया। आडवाणी इस कदर आहत हुए कि कभी मनमोहन को कमजोर कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। मनमोहन की साख पर सबसे बड़ा बट्टा सांसदों की खरीदफरोख्त के आरोप से लगा। जब यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में उनके वामपंथी सहयोगियों ने उनसे समर्थन वापस ले लिया। सरकार गिरने वाली थी। तभी कई लोगों के मुताबिक, भारतीय राजनीति के दलाल कहे जाने वाले और समाजवादी पार्टी के उस समय के महासचिव अमर सिंह सत्ता के गलियारों अहम किरदार निभाते नजर आए. मनमोहन की सरकार बच गई। पर, राजनीति के नाम पर नेताओं के मुंह पर कालिख पोत गई। मनमोहन उसके बाद, पावरफुल होकर उभरे। अब भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन, वह कॉरपोरेट प्रधानमंत्री हैं। उनका मंत्रिमंडल कॉरपोरेट है। फैसला भी व्यवसायिक हितों को देखते हुए ही लिया जाता है। इन सबमें मनमोहन की उपलब्धि यही है कि उन्हें भारत के पहले सिख प्रधानमंत्री बनने का गौरव हासिल हुआ। एक ऐसे प्रधानमंत्री का गौरव जिसे उनके ही समुदाय का व्यापक समर्थन हासिल नहीं था। वह एक ऐसी पार्टी की महिला अध्यक्ष की वजह से प्रधानमंत्री बन पाए जो खुद पीएम नहीं बन पाई। जिसके अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या का आरोप लगाकर सिखों का नरसंहार किया गया। मनमोहन सिंह के ही समय में एक सिख पत्रकार ने उनके गृहमंत्री पर जूता फेंका। इसलिए की उनकी इंटेलिजेंस ब्यूरो ने सिखों का नरसंहार करने वालो को पाक साफ बताया। इस तरह प्रधानमंत्री सिख होकर भी सिखों के न्याय के लिए कुछ नहीं कर पाए। वह आधुनिक राजनीति की उपज हैं। उन्हें मालूम है सत्ता यूं ही हासिल नहीं हो जाती है। भारतीय इतिहास उन्हें बेदाग छवि वाले नेता, सोनिया गांधी की रिमोट से संचालित होने वाले कमजोर प्रधानमंत्री, सांसदों की खरीदफरोख्त वाले मजबूत प्रधानमंत्री, भारतीय जनता को लाचार-बेबस और गरीबी की हालत पर छोड़ने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर याद करेगी।
भारत बंद नौटंकी तो नहीं!
आज भारत बंद रहा। सभी विपक्षी दल अलग-अलग, लेकिन मुद्दों पर साथ दिखे। लगता है भगवान का समर्थन भी विपक्ष के साथ था। मौसम खुशगवार। प्रदर्शन के माकूल। नहीं तो, दो दिन पहले जो गर्मी थी, वह बंद को विफल करने के लिए काफी थी। लेकिन, जनता के मुद्दे पर ऐन वक्त में इंद्र ने मानसून को दिल्ली भेज दिया। झूमो इस मानसून में और खूब करो प्रदर्शन। जैसे दिल्ली की अपनी अर्थ नीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थ नीति, जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, यूरो, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। हालांकि, मेरी चिंता यह है कि इस बंद का कितना असर होगा? या फिर क्या असर पड़ा? देश की मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी के अलावा सभी ने बंद को सफल बताया। भारतीय जनता को जबरन घरों में रहने के लिए मजबूर किया गया। यह बंद महंगाई के मुद्दे पर था। तो क्या इस बंद के बाद महंगाई कम हो जाएगी? वह भी तब, जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक दिन पहले ही कह दिया था, कोई कुछ भी कर ले बढ़ी कीमतों को वापस नहीं लिया जाएगा। मेरी समझ से आज सरकार की अर्थ नीति बड़े-बड़े उद्योग घराने तय कर रहे हैं। जिस तरह इन उद्योग घरानों का दबाव सरकार पर है। उसी तरह विपक्ष पर भी। सरकार चूंकि सत्ता में होती है, इसलिए वह अपने हर फैसले को सही ठहराने का तरकीब निकाल लेती है या फिर उसे जनता को जवाब तो पांच साल बाद देना होता है। चूंकि जनता की यादाश्त कमजोर होती है। तो पांच साल पूरे होने के चंद दिनों पहले यही सरकार लोकलुभावन योजनाओं का ऐलान करके जनता को खुश कर देती है। जनता भी इस झांसे में आ जाती है। सरकार को और क्या चाहिए। लेकिन, विपक्ष की हालत छछुंदर जैसी होती है। उसे तो मात मिली होती है। ऐसा नहीं कि उद्योग घरानों से उसके संपर्क नहीं होते हैं। चुनाव के वक्त पक्ष-विपक्ष दोनों को उद्योगपतियों से मोटी रकम मिलती है, चंदा के तौर पर। ऐसे में, वह भी अर्थ नीतियों के मसले पर सरकार का विरोध करती है तो नुकसान उद्योग जगत को ही है। वह इसे कैसे बर्दाश्त कर सकती है। विपक्ष जनता को भरमाने के लिए उतना ही करती है कि वह उनका ध्यान अपनी ओर कर सके। यह सब उसे खुद के अस्तित्व के लिए करना पड़ता है। महज एक दिन बंद का नाटक, इसी तरह की नौटंकियों का हिस्सा है। हमारे प्रधानमंत्री जब कह चुके, वह महंगाई के मुद्दे पर पीछे नहीं हटेंगे, तो ऐसे में विपक्ष सरकार के झुकने तक आंदोलन करे, तब तो लगे की जनहित में यह आंदोलन है। नहीं तो क्या एक दिन के बंद यज्ञ से जनता की सरकारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। यदि हां तो बंद को मेरा भी समर्थन। नहीं तो, जरा देश के इन दलालों से कौन पूछे एक देश को हाईजैक करने का अधिकार इन्हें किसने दिया। बंद क्या राजनीतिक दल ऐसे ही करते हैं। जो बंद में शामिल नहीं होना चाहते, उन्हें भी जबरन घसीटो। उसकी सरकार का समर्थक बताकर उसकी दुकान में तोड़फोड़ करो। रेल रोको। यात्रियों सवाल पूछे तो उसे मारो। मैं यह नहीं कह रहा कि बंद के दौरान यही सबकुछ हुआ। पर, हां यह हुआ जरूर।
बाय-बाय ब्राजील के बाद अलविदा अर्जेंटीना
पहले बाय-बाय ब्राजील। अब अलिवदा अर्जेंटीना। विश्वकप में ब्राजील की हार ने क्या कम गम दिए, जो अब अर्जेंटीना ने जले पर नमक छिड़क दिया। कल भी मैंने कहा था, माराडोना मुझे पसंद नहीं हैं। पर, मेसी के लिए अर्जेंटीना को सपोर्ट किया। अब, वह भी खिताबी दौर के क्वार्टरफाइनल से ही बाहर हो गया। मेसी-डोना का जादू नहीं चला। ऑक्टोपस बाबा ने भी जर्मनी के जीतने की भविष्यवाणी की थी। मैं इन भविष्यवाणी पर कभी थोड़ा सा भी यकीन नहीं करता। जर्मनी के जीत जाने पर भी नहीं कर रह हूं। मैच के तीसरे मिनट में ही मुलर ने गोल दाग अपने इरादे जता दिए। हालांकि, मैच में अधिकांश समय अर्जेंटीना हावी रही। गेंद उसके पाले में ही रही। वह जर्मनी टीम की डी में ही मंडराती रही। फिर भी एक गोल नहीं दाग सके कोई अर्जेंटीनाई खिलाड़ी। गोल के 20 मौके मिले, नतीजा-जीरो। वहीं, जर्मनी को 18 उसने चार को गोल में तब्दील किया। क्लोस ने तो कमाल ही कर दिया। दो गोल दाग बता दिया कि वह जर्मनी के लिए क्यों सबसे खास हैं। इस मैच से सबसे ज्यादा खुशी जर्मन चांसलर हुई होंगी। क्योंकि जो बिल क्लिंटन को नसीब नहीं हुआ, वह उन्हें हो गया। क्लिंटन भी अमेरिका का मैच देकने पहुंचे, लेकिन उनकी टीम ने उन्हें खुश होने का अवसर नहीं दिया। यहां मर्केल तो हर गोल के साथ उछलती नजर आ रही थीं। मैच का नायक तो मैं जर्मन के गोलची को करार दूंगा, जिसने अर्जेंटीना के बीस हमलों में से एक को भी सफल नहीं होने दिया। मेस से लेकर त्वेज सभी ने बेइंतहा कोशिश किए, पर हर बार उन्हें नाकामी हाथ लगी। दिल से इस मैच में अर्जेंटीना के साथ था, पर दिमाग कह रहा था जर्मनी जीतेगी। वहीं हुआ। पर, इतने भारी अंतर से वह माराडोना की टीम को धोएगी अंदाजा नहीं था। बेशक, कोच माराडोना इस हार से सबसे ज्यादा आहत हुए होंगे। हमारे एक सर बार-बार कह रहे थे, जर्मनी जीतेगी। मुझे कतई यकीन नहीं था। पर, जैसे ही तीसरे मिनट में अर्जेंटीना गोल खाई, उसेक हारने का डर सताने लगा। लेकिन उसके ताबड़तोड़ जवाबी हमले से लगा, यह माराडोना की टाम है। गॉड ऑफ हैंड के शेर हैं, जल्द ही इस बढ़त को पाट देंगे। लेकिन, घड़ी की सूई के साथ-साथ उनके खिलाफ गोल का अंतर बढ़ता गया। उसके जीतने की उम्मीदें धूमिल होती गई। यही फुटबॉल का रोमांस और रोमांच है। अब मेरी नजर स्पेन पर है। डेविड विला से चमत्कार की उम्मीद है। विला के ‘विल-पावर’ की जरूरत तो स्पेन को भी होगी। पुर्तगाल के खिलाफ वाले फॉर्म को ही उनके प्रशंसक देखना पसंद करेंगे। मेरी तमन्ना तो उससे भी ज्यादा की है। तो दोस्तों स्टे विथ स्पेन एंड विश फॉर विला।
हैरान हूँ ब्राज़ील की हार से
ब्राजील विश्वकप से बाहर हो गया। हार से बहुत आहत हूँ। उसकी हार ने मायूसी कम अफसोस ज्यादा हुआ। यही होता है जब एक टीम जीतती रहती है तो बहुत ही मजबूत और खिताब का दावेदार नजर आती है। हारने पर सारी खामिया सामने आ जाती है। ब्राजील के हारने की पीड़ा मेरे लिए कुछ ज्यादा है। इसकी वजह भी मेरी एक कमजोरी है। दरअसल मैं किसी चीज को चाहता हूं, प्यार करता हूं तो उसे हारते हुए खोते हुए नहीं देख सकता। आजकल इस प्रवृति को लोग पजेसिव कहते हैं। ब्राजील टीम के बारे में भी मेरे साथ है कुछ ऐसा ही है। मुझे उसके हारने की कतई उम्मीद नहीं थी। वह भी नीदरलैंड से तो कभी नहीं। लेकिन, खेल का अंतर सबकुछ चौपट कर दिया। शुरू से ही ब्राजीलियाई खिलाड़ी रफ खेलते नजर आए। फुटबॉल से भिरने की जगह विपक्षी खिलाड़ियों को ही वह गेंद समझते रहे। उन्हें गिराते रहे, खुद गिरते रहे। हालांकि, वह पहले 10 मिनट में ही 1-0 से आगे हो चुकी थी। एक गोल ऑफ साइड होने की वजह से नहीं मिला। पर, बाद में पता नहीं रोबिन्हों को क्या हो गया। पहला गोल करने के बाद वह कुछ ज्यादा ही सनकी हो गए। अपना आपा खो दिया। फैबियानो ने भी अपने फैन्स को काफी निराश किया। उनका शानदार फॉर्म पता नहीं कहां गायब था। काका को दो मौके मिले, लेकिन उनका किक भी गोल में नहीं तब्दील हो सका। दोनों मर्तबा विपक्षी गोलची ने काका के किक को विफल कर दिया। नीदरलैंड और फुटबॉल प्रेमियों के लिए मैच का सबसे शानदार पल और ब्राजील के प्रशंसक और मेरे लिए सबसे निराशा वाला क्षण रहा मैच का तीसरा और ब्राजील के खिलाफ दूसका गोल। एक किक, पहला हेडर ब्राजील का गोलची जुलियो सीजर अपने ही खिलाड़ी से टकराया, फिर हेडर और ब्राजील के खिलाफ नीदरलैंड का दूसरा गोल। यानी एक किक, दो हेडर, एक गोल और इसके साथ ही ब्राजील वर्ल्डकप से बाहर। ब्राजील के हारने का गम बहुत बुरा रहा दोस्तों। अब तो फीफा का यह विश्वकप भी देखने का मन नहीं कर रहा है। पेले का अतिआत्मविस्वास अब उनके बयानों में देखने को नहीं मिलेगा। माराडोना को अक्सर वह निशाने पर रखते हैं। अभी भी मैं ब्राजील का प्रशंसक हूं। उसके लिए अगले वर्ल्डकप का इंतजार करूंगा। फिर भी, अब इस वर्ल्डकप में उसके न होने की हालत में मैं मेसी के लिए अर्जेंटीना को सपोर्ट करने जा रहा हूं। माराडोना कई लोगों के लिए महान खिलाड़ी हैं। पर, वह मुझे पसंद नहीं है। फिर भी लियोनेल मेसी के लिए चियर अप अर्जेंटीना।
मंहगाई से गरीबों का गर्दन हलाल
सरकार समझिए तो हररोज महंगाई बढ़ाती जा रही है। फिर कहती है, भगवान ने चाहा तो कम भी हो जाएगी। आम आदमी के साथ वाली सरकार महंगाई से उसका गर्दन हलाल कर रही है। प्रधानमंत्रीजी देश में नहीं होते हैं और कई जरूरी चीजों के दाम अचानक से बढ़ा दिए जाते हैं। यह है इस देश की हालत। मनमोहन सिंह पंगु प्रधानमंत्री हो गए हैं। वह निकम्मों की तरह आम आदमी के मसलों पर बोलते हैं। तभी तो जी-20 शिखर सम्मेलन में विशेष विमान से भारत लौटते वक्त घिसीपिटा बयान दे डाला। बढ़ाई गई कीमतों के दाम वापस नहीं लिए जाएंगे। जैसे यह मुल्क उन्हें जागीर में मिली है। उन्होंने कहा भारत की जनता यह समझ जाएगी कि देश के विकास को पटरी पर बनाए रखने के लिए महंगाई बढ़ाना जरूरी है। फिर, वह ऐसा क्यों नहीं करते कि लोगों की आमदनी भी बढ़ा दे। फिर कहें कि लोगों के जिंदा रहने के लिए यह जरूरी है। सच कहूं, सरकार के हररोज आम आदमी के खिलाफ लिए जाने वाले फैसलों से खून खौलता है। इन देशद्रोही नेताओं के खिलाफ कुछ न कर पाने की मजबूरी पर खीझता हूं। यह देशद्रोही नहीं तो और क्या हैं? जो सरकार, मंत्री, नेता अपनी तनख्वाह और सुविधा में इजाफा के लिए संसद में विशेष प्रस्ताव लाता है, वहीं आम आदमी के जिम्मे देश का विकास छोड़ता है। देश कैसे चलता है और उसका विकास किस तरह होता है, यह कभी समझ में ही नहीं आया। जब कीमतें बढ़ती हैं तो आम आदमी को अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है। देश तरक्की करता है तो अमीरों की जेब भरती है। एकबार महंगाई में चीजों के दाम ऊपर चढ़े सो नीचे आने का नाम ही नहीं लेते। आम आदमी की आमदनी जो नीचे जाती है वह कभी बढ़ने का नाम नहीं लेती। यह सब उस नेता के प्रधानमंत्री रहते हो रहा, जो देश की आर्थिक क्रांति का जनक माना जाता है। शायद वह लाचार, बेबस और मजबूर हैं। या फिर आम आदमी के लिए जीवन दुभर करना सरकार की फितरत बन चुकी है। यह सच है कि सरकार की जानबूझकर इस तरह के आम आदमी के लिए अहितकारी फैसले नहीं लेती। पर, ऐसा तभी होता है जब सरकार को आम आदमी की फिक्र होती है। यह तो अमीरों की तरक्कीपसंद, जनता के लिए विकास का झुनझुना और लोकलुभावन लॉलीपॉप थमाने वाली सरकार है। पचास पैसा अपने पर खर्च करती है, 48 पैसा अमीरों के लिए और जनता बगावती तेवर न अपनी ले, उसकी सत्ता बची रही हो जनता के लिए उम्मीदों का 2 पैसा थमाती है। ताकि, जनता समझती रही कि सरकार उसके लिए भी फिक्रमंद है। पब्लिक भी उतनी ही बेवकूफ है, वह मान बैठती है कि सरकार उसके लिए सोचती तो है। पर, वह यह साजिश नहीं समझती है कि गरीबी खत्म करने की जगह उसकी नीतियां गरीबों को ही खत्म करने वाली है।
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