यूरोप को ले डूबेगा ऑक्टोपसवा

फिर ऑक्टोपस की भविष्यवाणी सच हुई। फुटबॉल विश्वकप में तीसरे दौर के लिए हुए मैच में जर्मनी तीसरे पायदान पर रहा। हालांकि, मैच देखकर लग रहा था कि उरुग्वे जीतेगा और यूरोप अंधविश्वास के भंवर जाल में फंसने से बच जाएगा। पर, मैं गलत साबित हुआ। अब यूरोप को ऑक्टोपसवा ही बचा सकता है। पर एक बात तो है, ये पश्चिम वाले खामखां ही हमें साधु और जादूगरों का देश कहते रहते हैं। शायद अब उन्हें इस बात का एहसास हुआ। साधु, जादू, भविष्यवाणी में कितनी ताकत है। तभी तो अमीर भारत की गरीब जनता भविष्यवाणी से ही पूरी जिंदगी गरीबी में गुजार देता है। कोई भविष्यवक्ता कहता है, तुम्हारे हाथों की लकीरों में अमीर होने के लक्षण नहीं हैं। फिर बेचारा अपनी जिंदगी पारंपरिक तरीके से जीने लगता है। दिन में खूब कमाता है, रात को दारू में लुटाता है। बीवी को मारता है, बेटे से प्यार करता है। बेटी को फूटी आंख नहीं देखना चाहता। क्योंकि, बेटी दहेज में ढेर सारा सामान ले जएगी और बेटा उसे कमाकर पैसे देगा। अब भई मेरी चिंता तो यूरोप को लेकर इन सब मामलों में बढ़ गई है। कहीं ऑक्टोपसवा भी कुछ अइसा-वइसा बोल डाला तो पूरा यूरोप ही डूब जाएगा। ऑक्टोपसवा बोल रहा है, जर्मनी में असर भारत में हो रहा है। लोग तोते को काम में लगा बैठे हैं। लेकिन अपन तोतवा भी गलते निकला। जर्मनी जो जीत गया।

इन सबसे अलग मेरी चिंता कुछ और ही है। 15 अगस्त आने वाला है। इस दिन राष्ट्रीय छुट्टी होती है तो फुर्सत से कुछ सोच लेता हूं। बाकी दिन तो जैसे काम की बोझ से दबा महसूस करता हूं। हां, तो मैं कह रहा था कि हर राष्ट्रीय अवकाश वाले दिन सोचता हूं कि हम कितना बढ़े। कितना विकास हुआ देश का। अगर न सोचूं तो भी काम चलेगा, बल्कि ज्यादा आराम से चलेगा। लेकिन, साहब सोचना भी एक रोग है, जिसे यह बीमारी नहीं है, वह स्वस्थ है। और, मैं आजकल जरा-सा अस्वस्थ महसूस कर रहा हूं। अब जबकि ऑक्टोपसवा ठीक से अपना काम करने लगा है तो उम्मीद है, अस्वस्थता भी जाती रहे। सुना है भारत सरकार ऑक्टोपसवा का आयात करने जा रही है। अंदरखाने की बात है, पर सच है। वह भी टेंशन को भगाने के लिए उसकी भविष्यवाणी का सहारा लेना चाहती है। उसके सर का टेंशन अमिताभ का हिमरत्न तेल नहीं भगा सकी। ऊपर से, सरकार में अपने और गैर सभी आए दिन सर के बाल नोचने लगते हैं। कभी महंगाई को लेकर भारत बंद तो कभी मंत्रियों का अपना ईगो क्लैश। उधर, नक्सली में रहरह के नाक में अंगुली किए हुए है। अब कश्मीर भी कान उमेठने से बाज नहीं आ रहा है। जी बहुत हलकान हो गया है। पता नहीं चल पा रहा कि कब अपने मुसीबतों के दिन बहुरेंगे। सो सरकार ने सोच लिया अब तो ऑक्टोपसवा को ही आयात कर लेते हैं। पर, यहां भी फूंक कर कदम रख रही है कहीं, बोफोर्स की तरह कोई दूसरा क्वात्रोकी न निकल आए। लेकिन, ऑक्टोपसवा के बिना काम भी तो नहीं चलेगा। इतना बड़ा रिस्क जो लिया है। वैसे भी रिस्क लेने से डरता कौन है, हम तो वैसे भी नहीं। जरूरत भी नहीं है। काहे कि भैया हम सरकार में जो नहीं है। पर, हां शामिल होने की इच्छा जरूर है। कोई बड़ा आदमी था, जिसने यह बात कही थी कि अगर प्रधानमंत्री बनना है तो आपको दिल्ली में रहना पड़ेगा। इसी इंतजार में पांच साल से दिल्ली में ही खूंटा ठोके हुए हैं। अब बाहरी के नाम पर भगाओ या मराठियों की तरह पुंगी बजाओ या लात-गाली दो हम यहां से नहीं हिलने वाले।

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