भारतीय इतिहास में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भूमिका क्या होगी? हालांकि, भारतीय इतिहास में उनका नाम पहले ही स्वर्ण अक्षरों से न सही, पर दर्ज तो हो ही चुका है। जी हां, एक अर्थशास्त्री वित्तमंत्री के तौर पर। मनमोहन सिंह ही वह शख्स हैं, जिन्होंने भारत को एक नए अर्थ युग में धकेला। इससे बहुत सारे मध्यमवर्ग का जन्म हुआ। जिसके पास खर्च करने के लिए बहुत सारा पैसा आया। पर, यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि मनमोहन सरकार की ही बिठाई अर्जुन सेनगुप्ता की कमेटी ने कुछ बरस पहले अपनी रिपोर्ट के पहले पन्ने पर मोट-मोटे अक्षरों में लिखा था कि देश की लगभग 70 फीसदी आबादी अब भी हररोज महज बीस रुपए से कम पर गुजारा करती है। शायद मनमोहन सिंह को उसे पढ़ने के लिए और ज्यादा पावर वाला चश्मा चाहिए। तो ऐसे में जो दावा बहुत सारे मध्यम वर्ग का था, वह बाकी की तीस फीसदी तो कतई नहीं हो सकती। जरा अपने मन्नू भैय्या के भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति में उदय के संक्षिप्त नजर डालें तो उनकी भारतीय इतिहास में भूमिका खुद-ब-खुद पता चल जाएगी। 1991 में वित्तमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह भारत के नए आर्थिक कणर्धार के तौर पर सामने आए। इससे पहले वह रिजर्व बैंक के गवर्नर के तौर पर जो करना था, वह सब कर चुके थे। अब इतिहास की नई इबारत लिखने की कोशिश में लगे हैं मनमोहन सिंह। 2004 में एक नए मनमोहन सिंह का उदय हुआ। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। कहीं परिदृश्य में उनका नाम नहीं था। सोनिया गांधी भारत की प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं। उनके अपनों और गैरों ने इसमें अहम भूमिका निभाई। इस असफलता के बाद सोनिया का वरदहस्त एक ऐसे शख्स को तलाश रही थी, जो उनकी हर बात को जिन्न की तरह हुकुम मेरे आका की तरह माने। उनकी तलाश लो-प्रोफाइल मनमोहन सिंह पर पड़ी। वह लो-प्रोफाइल मनमोहन सिंह इस देश के हाई-प्रोफाइल पद पर जा बैठे यानी प्रधानमंत्री बन बैठे। उनकी सबसे खासियत बेदाग छवि होना माना गया। हालांकि बाद में उन पर कई तरह के आरोप लगे। भ्रष्ट होती राजनीति में बेदाग मनमोहन के पंगु प्रधानमंत्री का मुद्दा तो 2009 में आम चुनाव का बहुत बड़ा मुद्दा रहा। विपक्ष, खासकर बीजेपी और उसके प्रधानमंत्री के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने बड़े जोरशोर से उछाला। पर, एकबार जब मनमोहन ने जवाब दिया। आडवाणी इस कदर आहत हुए कि कभी मनमोहन को कमजोर कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। मनमोहन की साख पर सबसे बड़ा बट्टा सांसदों की खरीदफरोख्त के आरोप से लगा। जब यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में उनके वामपंथी सहयोगियों ने उनसे समर्थन वापस ले लिया। सरकार गिरने वाली थी। तभी कई लोगों के मुताबिक, भारतीय राजनीति के दलाल कहे जाने वाले और समाजवादी पार्टी के उस समय के महासचिव अमर सिंह सत्ता के गलियारों अहम किरदार निभाते नजर आए. मनमोहन की सरकार बच गई। पर, राजनीति के नाम पर नेताओं के मुंह पर कालिख पोत गई। मनमोहन उसके बाद, पावरफुल होकर उभरे। अब भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन, वह कॉरपोरेट प्रधानमंत्री हैं। उनका मंत्रिमंडल कॉरपोरेट है। फैसला भी व्यवसायिक हितों को देखते हुए ही लिया जाता है। इन सबमें मनमोहन की उपलब्धि यही है कि उन्हें भारत के पहले सिख प्रधानमंत्री बनने का गौरव हासिल हुआ। एक ऐसे प्रधानमंत्री का गौरव जिसे उनके ही समुदाय का व्यापक समर्थन हासिल नहीं था। वह एक ऐसी पार्टी की महिला अध्यक्ष की वजह से प्रधानमंत्री बन पाए जो खुद पीएम नहीं बन पाई। जिसके अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या का आरोप लगाकर सिखों का नरसंहार किया गया। मनमोहन सिंह के ही समय में एक सिख पत्रकार ने उनके गृहमंत्री पर जूता फेंका। इसलिए की उनकी इंटेलिजेंस ब्यूरो ने सिखों का नरसंहार करने वालो को पाक साफ बताया। इस तरह प्रधानमंत्री सिख होकर भी सिखों के न्याय के लिए कुछ नहीं कर पाए। वह आधुनिक राजनीति की उपज हैं। उन्हें मालूम है सत्ता यूं ही हासिल नहीं हो जाती है। भारतीय इतिहास उन्हें बेदाग छवि वाले नेता, सोनिया गांधी की रिमोट से संचालित होने वाले कमजोर प्रधानमंत्री, सांसदों की खरीदफरोख्त वाले मजबूत प्रधानमंत्री, भारतीय जनता को लाचार-बेबस और गरीबी की हालत पर छोड़ने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर याद करेगी।
अच्छी पोस्ट !
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