सियाचिन ग्लेशियर करीब 6,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित दुनिया का सबसे ऊंचा
युद्ध क्षेत्र है. तकरीबन तीन दशक से भारत और पाकिस्तान की सेनाएं इस
निर्मम युद्ध क्षेत्र में एक अंतहीन लड़ाई लड़ रही हैं. यहां तापमान शून्य से
55 डिग्री सेल्सियस (- 55 डिग्री सेल्सियस) से भी नीचे चला जाता है. यहां जितने सैनिक गोलियों से नहीं मरते उससे कहीं अधिक हिमस्खलन के
कारण शहीद हो जाते हैं. कई सैनिक अकेलेपन के कारण अवसाद का शिकार हो जाते
हैं. ऐसी घटनाओं का शिकार सिर्फ भारतीय सैनिकों को ही नहीं होना पड़ता,
बल्कि पाकिस्तानी सैनिकों की स्थिति भी यही है. इस युद्ध क्षेत्र को याद
करते हुए एक सैनिक ने कहा था, ‘मुझे कौए पसंद हैं, क्योंकि हमारे अलावा वे
ही एकमात्र जीवित प्राणी होते हैं, जिन्हें हम यहां देख सकते हैं. भीषण ठंड
के मौसम में जब वे चले जाते हैं तो उस दौरान के अकेलेपन को मैं बयां नहीं
कर सकता. यह बहुत ही भयावह जगह है, जहां हमारे अलावा न कोई दूसरा आदमी है
और न कोई अन्य साधन. यह सीमाओं की रक्षा की जंग नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व
और खुद को जीवित बचाए रखने की जंग है. हाल में हिमस्खलन के कारण लगभग 120
पाकिस्तानी सैनिकों की मृत्यु इस बात की ओर इशारा भी करती है. कश्मीर
क्षेत्र में स्थित इस ग्लेशियर पर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद काफी पुराना है. यहां कोई भी कार्रवाई करना
अकसर आत्मघाती साबित होता है, क्योंकि ऑक्सीजन के अभाव में सैनिक सिर्फ
पांच मीटर की ही चढ़ाई कर सकता है. उसके बाद उसे सांस लेने के लिए भी
जद्दोजहद करनी पड़ती है. अगर आप शरीर के किसी अंग को महज 15 सेकंड तक बिना ढके रखते हैं तो वह अंग जम जायेगा. यही वजह है कि कई
जानकार सियाचिन की इन ऊंची चोटियों पर जंग को एक पागलपन ही करार देते हैं.
विवाद की वजह : सियाचिन की समस्या करीब 28 साल पुरानी है. 1972 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद जब शिमला समझौता हुआ तो सियाचिन के एनजे-9842 नामक स्थान को युद्ध विराम की सीमा तय कर दिया गया. इस बिंदु के
आगे के हिस्से के बारे में कुछ नहीं किया गया. अगले कुछ वर्षों के बाद बाकी
हिस्सों में दोनों तरफ से कुछ-न-कुछ गतिविधियां होने लगी. 1970 और 1980 के
दशक में पाकिस्तान ने इस ग्लेशियर की ऊंची चोटी पर पर्वतारोहण को मंजूरी भी दी. यह पाकिस्तान द्वारा इस
क्षेत्र पर अपना अधिकार जताने जैसा था, क्योंकि पर्वतारोहियों ने पाकिस्तान
सरकार से अनुमति लेकर चढ़ाई की थी. 1978 के बाद से भारतीय सेना भी इस
क्षेत्र की निगरानी काफी सघनता से करने लगी. भारत भी अपनी तरफ से
पर्वतारोहण के लिए दल भेजने लगा. लेकिन, जब 1984 में पाकिस्तान ने जापानी
पर्वतारोहियों को महत्वपूर्ण रिमो चोटी पर पर्वतारोहण के लिए मंजूरी दी तो
इस घटना ने भारत को ग्लेशियर की सुरक्षा के लिए कुछ करने पर विवश किया. यह
चोटी सियाचिन के पूर्व में स्थित थी और यहां से पूर्वी क्षेत्र अक्साई चीन
पर नजर रखी जा सकती थी. सैन्य जानकारों के मुताबिक, इस
क्षेत्र में सैनिकों का रहना जरूरी नहीं है, लेकिन इस पर अगर किसी दुश्मन
का कब्जा हो तो फिर दिक्कत हो सकती है. यहां से लेह, लद्दाख और चीन के कुछ
हिस्सों पर नजर रखने में भारत को मदद मिलती है.
विवाद से सैन्य कार्रवाई तक का सफर : पाकिस्तान के कुछ मानचित्रों
में इस भाग को उनके हिस्से में दिखाया गया तो भविष्य में पाकिस्तान की ओर
से पर्वतारोहण को रोकने के लिए भारत ने इस ग्लेशियर अपना दावा किया. भारतीय
सेना ने उत्तरी लद्दाख, कुमाऊं रेजिमेंट और कुछ अर्द्ध सैनिक बलों को
ग्लेशियर पर भेजने के लिए बुला लिया. इनमें अधिकांश वैसे सैनिक थे जिन्हें
ऐसी परिस्थिति में रहने के लिए 1982 में अटांर्कटिका प्रशिक्षण के लिए भेजा
गया था. उधर, पाकिस्तान के रावलपिंडी सेना मुख्यालय ने भी ग्लेशियर की ऊंची
चोटी पर नियंत्रण की रणनीतिक महत्ता को समझा. उन्होंने इस रणनीतिक चोटी पर
नियंत्रण के लिए मिलिट्री फर्म स्थापित करने की योजना बनायी. लेकिन,
पाकिस्तान ने तब बहुत बड़ी खुफिया गलती कर दी. पाकिस्तान ने आर्कटिक की ठंड
मौसम में रहने की खातिर पोशाक के लिए लंदन की उसी कंपनी को ऑर्डर दिया, जिसे भारत
पहले ही ऑर्डर दे चुका था. ऑपरेशन मेघदूत : पाकिस्तानी ऑपरेशन के बारे में पुख्ता खुफिया
जानकारी जुटाने के बाद भारत ने पाकिस्तान से चार दिन पहले 13 अप्रैल 1984
में ऑपरेशन मेघदूत शुरू किया.वायुसेना के जरिये सैनिकों को सियाचिन की ऊंची
चोटी पर पहुंचाया गया. इस तरह भारतीय सेना ने एनजे-9842 के उत्तरी हिस्से
पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया. जब पाकिस्तानी सेना वहां पहुंची तो भारत के तीन सौ सैनिक पहले से ही दुनिया के इस सबसे ऊंचे रणक्षेत्र में मौजूद थे.
पाकिस्तान का पक्ष : सियाचिन विवाद को लेकर पाकिस्तान अकसर यह आरोप भारत पर लगाता रहा है कि 1989 में दोनों देशों के बीच यह सहमति हुई थी कि भारत आॅपरेशन मेघदूत से पुरानी वाली स्थिति पर वापस लौट जाये. लेकिन भारत ने इसे मंजूर नहीं किया. पाकिस्तान का कहना है कि सियाचिन ग्लेशियर में जहां पाकिस्तानी सेना हुआ करती थी, वहां भारती सेना ने 1984 में कब्जा कर लिया था. उस समय पाकिस्तान में जनरल जियाउल हक का शासन था. पाकिस्तान तभी से कहता रहा है कि भारतीय सेना ने 1972 के शिमला समझौते और उससे पहले 1949 में हुए कराची समझौते का उल्लंघन किया है. पाकिस्तान की मांग रही है कि भारतीय सेना 1972 की स्थिति पर वापस जाए और उन इलाकों को खाली कर दे जिन पर उसने कब्जा कर रखा है.
मौजूदा स्थिति : इस ऊंची चोटी पर भारतीय सेना का नियंत्रण है. ग्लेशियर के अधिकांश हिस्से पर भारत का कब्जा है. पश्चिम का कुछ भाग पाकिस्तान के पास है. ग्योंग ला क्षेत्र पर पाकिस्तान का अधिकार है, जहां से वह ग्योंग, नुब्रा नदी घाटी और लेह में भारतीय प्रवेश पर नजर रखता है. सियाचिन का ही कुछ भाग चीन के पास भी है. एनजे-9842 ही दोनों देशों के बीच लाइन आॅफ एक्चुअल कंट्रोल यानी वास्तविक नियंत्रण रेखा का काम करता है. भारत और पाकिस्तान दोनों की सेनाओं की तैनाती भी इस क्षेत्र में अलग- अलग है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, दोनों तरफ से लगभग 10,000 सैनिकों की तैनाती इस ग्लेशियर पर की गयी है. वहीं, एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के इस ठंडे रणक्षेत्र में सियाचिन की सुरक्षा के लिए पाकिस्तान की तीन बटालियनें मौजूद है, तो भारत की सात बटालियन.
भारत की चुनौती : पाकिस्तान इस ऊंची चोटी पर अपने सैनिकों के लिए रसद-पानी की आपूर्ति सड़क मार्ग से कर सकता है. भारत को इसके लिए हेलीकॉप्टर पर निर्भर रहना पड़ता है. भारत ने यहां सोनम में विश्व का सबसे ऊंचा हेलीपैड (20,997 फीट) बनाया है. 1984 के बाद संघर्ष 1984 के बाद से पाकिस्तान ने भारतीय सैनिकों को हटाने के लिए कई कोशिशें की.1987 में जनरल परवेज मुशर्रफ की अगुवाई में पाकिस्तान सेना में गठित किये गये नये एसएसजी कमांडो ने अमेरिकी स्पेशल ऑपरेशन फोर्स की मदद से कार्रवाई शुरू की. खापलु क्षेत्र में 8,000 सैनिकों के साथ मोर्चाबंदी की गयी. इसका लक्ष्य बिलाफोंड ला पर कब्जा करना था और शुरू में पाक सेना को आंशिक सफलता भी मिली. लेकिन, जब भारतीय सेना से आमना-सामना हुआ तो पाकिस्तानी सेना को मजबूरन पीछे हटना पड़ा. सियाचिन पर नियंत्रण की अगली कोशिश पाकिस्तान द्वारा 1990, 1995, 1996 और 1999 के शुरू में लाहौर सम्मेलन से ठीक पहले की गयी. लेकिन, इन सभी प्रयासों में पाकिस्तान को सफलता नहीं मिली और सियाचिन पर पहले की ही तरह भारत का नियंत्रण बना रहा. फिर, 2003 में पाकिस्तान ने सियाचिन में एकतरफा संघर्षविराम की घोषणा की. भारत ने भी इसका सकारात्मक जवाब दिया.
मानवीय और वित्तीय समस्या : वर्षों से रहते हुए भारतीय सेना ने इस ऊंची चोटी और अत्यधिक ठंड वाले इलाके में खुद को बचाए रखने की कुशलता विकसित कर ली है. लेकिन, 1980 के दशक में ठंड, ऊंचाई पर रहने के कारण कमजोरी और हिमस्खलन के कारण सैकड़ों सैनिकों को जान गंवानी पड़ी. अब भी हर साल लगभग 20-22 सैनिकों की मृत्यु इन कारणों से होती है. भारत को सियाचिन में सैनिकों की सप्लाई और रखरखाव पर हर दिन लगभग पांच करोड़ रुपये खर्च करना पड़ता है. इसके बावजूद भारत में कुछ आलोचक दोनों देशों की बीच सोमवार से सियाचिन मसले पर शुरू हो रही वार्ता को असफल करने के पीछे कारण भारतीय सेना द्वारा सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति को मानते हैं. हालांकि, उनके तर्क को करगिल के अनुभव से करारा जवाब मिला है. जब पाकिस्तान ने उस पर कब्जा कर लिया था. एक्चुअल ग्राउंड पोजीशन लाइन (एजीपीएल) की मंजूरी के बिना भारतीय सेना की वापसी बहुत बड़ी भूल हो सकती है. क्योंकि इससे पाकिस्तान दोबारा सियाचिन पर नियंत्रण की कोशिश कर सकता है और भारत का उस पर कब्जा करना बहुत ही मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि ऊंची चोटी से भारतीय सेना को निशाना बनाना आसान हो जायेगा. साथ ही, अगर सियाचिन पर पाकिस्तान का कब्जा हो जाता है तो इसका मतलब यह भी होगा कि पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर और चीन के बीच सीधा संपर्क बना सकता है वह भी भारत की नाक के ऊपर से.
वार्ताओं का असफल दौर : सियाचीन विवाद को सुलझाने के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच कई दौर की वार्ता हो चुकी है. लेकिन अभी तक इनका कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाया है. पाकिस्तान बिना शर्त पूरे सियाचिन से सैनिकों की वापसी की मांग करता है. वह 1984 के पहले की स्थिति की भी बहाली चाहता है. जबकि भारत, एक्चुअल ग्राउंड पोजीशन लाइन यानी एजीपीएल (वह रेखा जिसके दोनों ओर भारत- पाकिस्तान की सेना फिलहाल मौजूद है.) का सत्यापन चाहता है. यह पाकिस्तान की किसी कार्रवाई के रोधक के तौर पर काम करेगा.