तो भारत में ऐसे बसती हैं ''शंघाई'' जैसी शहरें

दिल्ली को पेरिस और कोलकाता को लंदन बनाने की कहानी है...शंघाई. विकास और कंक्रीट का शहर बसाने के नाम पर लोगों से उनकी ज़मीन जबरन लेने की कोशिश की जाती है. सिंगूर और नंदीग्राम में इसी तरह का ख़ूनी खेल खेला गया. जब पॉश इलाक़े में वही जगह तब्दील हो जाती है तो कभी उस जगह के मूल मालिक रहे लोगों को वहां आने तक की इजाजत नहीं होती है. हिंदुस्तान में ऐसे उदाहरण कई मिल जाएंगे.  गुजरात में भी इसी तरह बांध बनाने और उससे जनहित होने के नाम पर लोगों को उनकी ही ज़मीन से धकेलने की कहानी है शंघाई. एक मायने में मुंबई के आदर्श हाउसिंग घोटाले की कहानी है शंघाई. आज देश में हर जगह शंघाई की घटना घट रही है. जो इनके हित की बात कर रहे हैं उन्हें मारा जा रहा है. हत्या को आत्महत्या या दुर्घटना बताकर मामला रफ़ा-दफ़ा किया जा रहा है. जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पर आदर्श हाउसिंग घोटाले की छींटे पड़ी तो आलाकमान को उनसे इस्तीफा लेना पड़ा. शंघाई में भी जब पता चलता है कि भारत नगर में आईबीपी बसाने के विरोधी डॉ अहमदी की हत्या में मुख्यमंत्री साहिबा का हाथ है तो उनसे भी इस्तीफा ले लिया गया. जांच बिठा दी गयी. सबसे मज़ेदार तो ख़ुद मुख्यमंत्री द्वारा अहमदी की हत्या की जांच के लिए आयोग का बनाना है. ऐसा ही होता है इस देश में. फिल्म में मुख्यमंत्री साहिबा को इस्तीफा देना पड़ता है. अशोक चव्हाण ने भी इस्तीफा दिया. बस इन बड़े लोगों की सजा उनका पद से इस्तीफा ही है. जबकि अगर इसी अपराध कोई और करे तो वर्षों जेल में सड़ता रह जाए. शायद हर देश में होता होगा ऐसा. दिबाकर बनर्जी ने अच्छा कॉन्सेप्ट डेवलप किया. मेरे एक सिनेमा के जानकार मित्र हैं, रोहित वत्स उनका हमेशा से मानना रहा है कि फिल्में अगर कोई संदेश न दे तो वह बेकार हैं. मेरे हिसाब से यह फिल्म उसी कड़ी में आती है. एक तरफ़ मार-धाड़ से भरपूर दक्षिण के एक्शन स्टाइल की फिल्में बॉलीवुड में भी हिट हो रही हैं, जिसे ब्लैक जैसी फिल्में बनाने वाली संजय लीला भंसाली भी बनाते हैं. तो दूसरी ओर नयी पीढ़ी के फिल्मकार दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकार वास्तविक और समकालीन घटनाक्रमों पर फिल्में बनाने का रिस्क ले रहे हैं. रिस्क इसलिए कि हमारी जो नयी पीढ़ी है उसका एकमात्र नहीं तो प्राथमिक लक्ष्य पैसा ही है. चाहे वह जिस भी तरीक़े से आये. लेकिन लोगों के अंदर जिस प्रकार की कुंठा और गुस्सा है, उसे आवाज़ देने का काम करती है शंघाई जैसी फिल्में. ज़मीन अधिग्रहहण के नाम पर किस तरह राजनीतिक और बिजनेस वर्ग खेल खेलता है, उसकी सारी परतें सामने लाकर रख देती है यह फिल्म. ऐसे में पुलिस, प्रशासन और सरकार सभी अपना ही हित साधने में लगे रहते हैं. अगर कोई आकर सहानुभूति भी जताता है तो लगता है अपना ही हित साध रहा है. हालांकि, फिल्म की कमजोर कड़ी के तौर पर अगर कोई पात्र है तो कल्की कोचलिन. एक ठहराव-सा लगता है यह पात्र. हां, इमरान हाशमी से उनकी पहली फिल्म फुटपाथ की याद आ गयी. पहली फिल्म के बाद अभी तक उन्होंने अपनी छवि के बिल्कुल उलट तो नहीं, लेकिन उससे हटकर काम किया है. अभय देओल टिपिकल दक्षिण भारतीय आइपीएस की भूमिका में हैं. बिल्कुल ईमानदार, लेकिन अपने लक्ष्यों के प्रति समर्पित. बाद में, उनका आख़िरी फ़ैसला अलग साबित होता है. फारुख शेख इस उम्र में इसी भूमिका में अच्छे लगते हैं. दिलचस्प कैरेक्टर है, उनका न तो आपको वो भ्रष्ट लगते हैं और न ही ईमानदार. कुलमिलाकर फिल्म का कलाइमेक्स बेहतर हो सकता है. ऐसा लगा जैसे निपटाने के चक्कर में क्लाइमेक्स को रफ़ा-दफ़ा किया गया हो.

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