मौजूदा समय की राष्ट्रीय चिंता

आज पूरी दुनिया में जिस तरह से आर्थिक संकट बढ.ता जा रहा है, उस स्थिति में भारत के पास भी इस संकट से खुद को बचाकर रखने के लिए बहुत कम विकल्प बचे हैं. यह बात कोई और नहीं सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु कह चुके हैं. सवाल सिर्फ यूरोजोन संकट के कारण बदतर होती वैश्‍विक आर्थिक स्थिति का ही नहीं है, अपने घरेलू मोर्चे पर भी हम कमजोर नजर आ रहे हैं. लगभग सभी महत्वपूर्ण आर्थिक पैमाने पर भारत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है. डॉलर के मुकाबले रुपये की लगातार गिरती कीमत, घटता औद्योगिक उत्पादन और घरेलू विकास और बढ.ते घाटे ने सभी की चिंताओं को बढ़ा दिया है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि की मंद रफ्तार और अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा साख कम करने के कारण विदेशी निवेश पर नकारात्मक असर पड़ा है और देश से पूंजी पलायन शुरू हो गया है. पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने चेतावनी दी कि यदि समय रहते आर्थिक सुधार और वित्तीय ढांचे को दुरुस्त करने के उपाय नहीं किये गये, तो देश में निवेश पर बुरा असर पड़ सकता है. उधर, वैश्‍विक बैंक एचएसबीसी ने मौजूदा वित्त वर्ष में भारत की जीडीपी वृद्धि दर के अनुमान को 7.5 फीसदी से घटाकर 6.2 फीसदी कर दिया है. जाहिर है ऐसे में उद्योग जगत और नीति-निर्माता, सभी का चिंतित होना लाजिमी है.
चारों तरफ से आलोचना के स्वर : संकट के बीच जरूरी फैसले लेने में सरकार नाकाम नजर आ रही है. उद्योग जगत सरकार से नीतिगत स्तर पर सुधारवादी कदम उठाने का दबाव बना रही है, लेकिन सरकार है कि गंठबंधन की मजबूरियों में इतनी गहरी धंसी है कि उससे निकल ही नहीं पा रही. और इस मजबूरी को देखकर गंठबंधन के दल सरकार को हर तरह से दुहने की कोशिश में ही ज्यादा लगे हुए हैं. सरकार की आलोचना करने वालों में अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट एजेंसियां भी शामिल हो गयी हैं. क्रेडिट एजेंसिया लगातार देश की वित्तीय साख को डाउनग्रेड करती जा रही हैं. स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने पिछले दिनों कहा कि मंत्रिमंडल में मंत्रियों की नियुक्ति में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और सहयोगी दल की भूमिका अधिक है. नतीजतन प्रधानमंत्री अपनी उदारवादी आर्थिक नीतियों को लेकर मंत्रिमंडल को प्रभावित नहीं कर पाते. इसे सरकार को लेकर दुनियाभर में नकारात्मक माहौल के तौर पर देखा जा सकता है.
कई सत्ता केंद्रों ने बढ़ायी समस्या : मौजूदा समस्या का सबसे बड़ा कारण केंद्रीय स्तर पर कई सत्ता केंद्रों के उदय को माना जा रहा है. केंद्र की नीतियां दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक में नहीं कोलकाता और चेत्रई में ज्यादा तय की जा रही है. तय नहीं भी की जा रही हों, वहां से बदली जरूर जा रही हैं. और ऐसा हम कई मामलों में देख भी चुके हैं. इस टकराव को जब-तब देखा जा सकता है. चाहे वह राष्ट्रीय आतंकरोधी केंद्र (एनसीटीसी) का मुद्दा हो या फिर रिटेल क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) का मामला राज्यों के क्षत्रप इनमें अपना हस्तक्षेप करते दिखते हैं. पेंशन बिल से लेकर अन्य विधेयकों पर तृणमूल कांग्रेस और डीएमके जैसी सहयोगी पार्टियां सरकार को आ.डे हाथों लेती रहती हैं. नतीजतन, सरकार एक कदम आगे बढ.ना चाहती है और चार कदम पीछे पहुंच जाती है. जानकारों के मुताबिक, मौजूदा सरकार की नीतियां प्रोग्रेसिव (प्रगतिशील) न होकर रेग्रेसिव (प्रतिगामी) लगने लगी हैं. इस समस्या का उपाय यही है कि सहयोगी दल ही नहीं विपक्षी दल भी साथ मिलकर राष्ट्रीय हित में फैसले लेने की शुरुआत करें. लेकिन फिलहाल ऐसे आसार नजर नहीं आ रहे. क्योंकि अभी तक तो सहयोगी दल ही केंद्र सरकार को हलकान किये हुए हैं. इस मुश्किल हालात को देखते हुए सबसे बड़ी पार्टी होने और केंद्र सरकार का नेतृत्व करने के नाते कम से कम कांग्रेस को अपने भ्रमों और अनिर्णय की स्थिति से निकलने की जरूरत है, लेकिन वह भी इसमें नाकाम नजर आ रही है.
राष्ट्रीय नीति बनाने में नाकामी :  आर्थिक क्षेत्र में सुधार बड़ी चुनौती है. एक एकल गुड्स एंड सर्विस टैक्स(जीएसटी), प्रत्यक्ष कर संहिता सुधार, अंतरराज्यीय बाधाओं को दूर करते हुए एकल कृषि बाजार प्रबंधन, बीमा, बैंकिंग, टेलीकॉम, उड्डयन और खुदरा क्षेत्र में उदार विदेशी निवेश, उदार श्रम कानून, पारदश्री भू-अधिग्रहण, खनन और पर्यावरण कानून के मसले प्रमुख हैं. लेकिन ये सब राजनीतिक लड़ाई के कारण अटके प.डे हैं. निकट भविष्य में भी इन पर कोई फैसला होता नहीं दिखता.

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