केशुभाई की नाराज़गी और राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश-ममता

नरेंद्र मोदी के विरोध को लेकर लोगों की अलग-अलग राय है. ज्यादातर लोगों को उनकी छवि से नफरत है. वैसे भी गुजरात नरसंहार को भला कौन भूल सकता है. भूलने योग्य है भी नहीं. लेकिन गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल का दर्द कुछ और ही है. हर पांच साल पर विधानसभा चुनाव होता है और यह बताया जाता है कि केशुभाई मोदी से नाराज़ हैं. वह नाराज़ पिछली बार भी थे, लेकिन मोदी की जीत के बाद पांच साल तक चुप रहे. फिर गुजरात में चुनाव होने हैं, तो केशुभाई फिर से नाराज़ हो गये हैं. दिल्ली में आला नेताओं को मोदी के प्रति अपनी नाराज़गी बता रहे हैं. पिछली बार तो केशुभाई के अलावा संघ के लोग भी मोदी से खुश नहीं थे. वजह मोदी संघी लोगों को भाव नहीं दे रहे थे. लेकिन यही संघी अब मोदी को प्रधानमंत्री की दावेदारी में आगे बढ़ा रहे हैं. इधर, नीतीश का राग अलग ही है. नीतीशजी अगर यह सोच रहे हैं कि धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवार की बात करके खुद को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो यह उन्हें मालूम होना चाहिए कि देश की राजनीति में अब एचडी देवगौड़ा जैसा वाकया कभी नहीं दोहराया जाने वाला है. हालांकि ख़ुद को वह प्रधानमंत्री पद की रेस से अलग बता चुके हैं, फिर भी मन में महत्वाकांक्षा हिलोरे तो ज़रूर मार रही होगी. यही वजह है कि प्रणब दा के बहाने कांग्रेस की ओर झुकाव बढ़ता जा रहा है. वह अच्छी तरह जानते हैं कि अगले चुनाव में कांग्रेस की हालत ख़राब होने वाली वाली है. एनडीए में ख़ुद सर फुटव्वौल हो रहा है. ऐसे में उनकी चाहत यही है कि इतनी सीट लाने में सफल हो जाएं कि तोल-मोल या अलग मोरचे की नौबत में खुद को आगे बढ़ाने में कामयाब हो जाएं. लेकिन, उनकी यह मंशा भी काम नहीं आने वाली.यहां पर दो बातें समझना बहुत जरूरी है कि नीतीश अपनी रणनीति-कूटनीति में क्यों कामयाब नहीं पाएंगे. पहली बात तो यह कि कांग्रेस पहले तृणमूल के दबाव वह हर बात माने जा रही थी, जो वह मानना नहीं चाहती थी. क्षेत्रीय पार्टी होने का गरूर जो ममता दिखा रही थीं, वह पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा था. सभी कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठाने लगे थे कि राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां, जिस तरह से क्षेत्रीय दलों के सामने घुटने टेक रही हैं, उससे देश की राजनीति को गलत दिशा मिल रही है. सभी नीतियां प्रभावित हो रही हैं. अंततः कांग्रेस ने तमाम नखरे झेलने के बाद दीदी को उनकी हैसियत बता दी. हालांकि, दीदी की सराहना इस बात को लेकर की जा सकती है कि वह अपनी बातों से हटी नहीं. मुलायम सिंह गिरगिट की तरह रंग बदलते रहे. पाला बदलते रहे. मुलायम यह सोच रहे थे कि अगर ममता यूपीए से बाहर होती हैं, तो उनका कद बढ़ जायेगा और वह इसकी मुंहमांगी क़ीमत वसूल सकते हैं. लेकिन उनकी भी मंशा पूरी नहीं हुई. यानी कांग्रेस ने एक तीर से दो शिकार किया. दोनों क्षेत्रीय दलों को बता दिया कि कुएं के मेढ़क को कभी कुएं से नहीं निकलना चाहिए. अब दूसरी बात यह कि, नीतीश ने जिस तरह से भाजपा-एनडीए पर दबाव बनाना शुरू किया था, उससे लग रहा था कि पार्टी की बिहार इकाई की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा उसके पीछे दुब हिलाने लगेगी. यही सोचकर उन्होंने धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री उम्मीदवार का दांव खेला. उनका काम सबसे पहले मोदी को अपने रास्ते से हटाना था. वह जानते हैं कि अगर मोदी उनके रास्ते से हट गये तो भले ही उन्होंने खुद को प्रधानमंत्री उम्मीदवार की रेस से बाहर बताया हो, वह रेस में दोबारा शामिल हो सकते हैं. क्योंकि राजनीति में हमेशा हर बात की संभावना बनी रहती है. पॉलिटिक्स इज़ ऑलवेज़ प्रिगनेंट विद पॉसिबिलिटीज़. नीतीश को पता है कि भाजपा में प्रधानमंत्री बनने की चाहत कई लोगों में है, लेकिन मोदी इस दावेदारी की तरफ़ बहुत तेज़ी से आगे बड़ रहे हैं. अगर उन्हें रोका नहीं गया तो उनकी रही-सही संभावना खत्म हो जायेगी. लेकिन, नीतीश का दावं गलत पड़ा. उन्होंने प्रणब दा को समर्थन देकर एक-तीर से दो शिकार करना चाहा. भाजपा पर तीखे प्रहार और यह कदम नीतीश के लिए घातक रहा. उन्हें यक़ीन नहीं था कि भाजपा की तरफ़ से उन्हें इस तरह जवाब मिलेगा, पहले तो उनके ही मंत्रिमंडल में भाजपा के कोटे के मंत्री गिरिराज सिंह ने करारा जवाब दिया. फिर, बलबीर पुंज ने और लगे हाथ सुषमा स्वराज ने भी इशारों ही इशारों में उन्हें बता दिया कि उनका बयान कितना ग़लत था और उनके किसी भी बयान को भाजपा तवज्जो नहीं देती. यानी एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ भाजपा ने क्षेत्रीय दलों उनकी हैसियत बता दी.

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