आख़िरी मैसेज मैंने ही भेजा था. क्योंकि उसने जवाब देना सही न समझा. मैंने ख़ुद को समझाने की कोशिश की थी. इस बार दिल से नहीं दिमाग से सोचने का फ़ैसला किया था. दिमाग तो मान गया पर दिल वहीं उलझा रहा और इस उलझन ने कंफ्यूज्ड कर दिया. जवाब तो उसने नहीं दिया था, पर उदास थी वो या ऐसा जताना चाहती थी कि वो उदास है. नहीं-नहीं वो उदास ही थी. उसने उदासी का सिंबल पोस्ट किया था. कुछ लाइक और कमेंट थे उसी के ख़ास दोस्तों के. वजह मुझे पता थी, लेकिन फिर मैंने जानना चाहा था. दिल की मजबूरी थी, लेकिन दिमाग के कहने पर उसे बाद में डिलीट कर दिया. कुछ इसी तरह मन को मनाने की कोशिश जारी रही...आज एकबार फिर उसका स्टेटस देखा, शिकायत के अल्फाज़ डाले थे इस बार उसने अपने मैसेज में. शिकायत, लेकिन किससे? मुझसे तो कतई नहीं. मैं तो शायद याद भी न होऊं. शायद होऊं भी. नहीं-नहीं कभी नहीं. लेकिन वो मीठा-सा एहसास अभी भी याद है मुझे, किस तरह हुई थी बात, फिर बढ़ती गई बेसब्री. बढ़ा बातों का अंतराल. फिर आई वो कुछ मेरे करीब, लेकिन अचानक कट गई डोर पतंग की. वहीं मान-मर्यादा, परंपरा, समाज, घर-द्वार, मम्मी-पापा. उसके फ़ैसले में सभी थे. लेकिन अपने जीवन के इस फ़ैसले में वो कहीं नहीं थी. नहीं थी. हां, बिल्कुल ही नहीं थी. आज जब देखा उसका मैसेज तो फिर वही लम्हा याद आया. कौन-सा लम्हा? नहीं, तुम नहीं समझ सकते उसने यही कहा था. एक नहीं कई बार. पता नहीं क्या जताना चाहती थी वो. जताना तो मैं भी चाहता था. लेकिन इगो. घमंड. इस इगो को मारने के चक्कर में शायद मैंने सेल्फ रेसपेक्ट से भी समझौता किया हो. लेकिन इसका मलाल नहीं मुझे. अगर किसी को कुछ बातों से खुशी मिलती है, तो वह खुश ही सही. अपने हिस्से में ग़म का दरिया है, जो बहता जाता है. बहता जाता है, तब तक जब तक कि वह सागर में नहीं मिल जाता. लेकिन, मैं जानता हूं सागर बहुत दूर है. उतनी ही दूर जितनी दूर आज वो है मुझसे. फिर भी याद आती हो उसकी. पता नहीं लोग क्यों कहते हैं, वक्त हर जख्म को भुला देता है. लेकिन कुछ जख्म ऐसे भी तो होते हैं, जो वक्त के साथ और हरा होता जाता है. रिसता रहता है.
''कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है,
कि जिंदगी तेरी ज़ुल्फों की नर्म छांव में गुजरने पाती
तो शादाब हो भी सकती थी,
ये रंजो-ग़म की स्याही जो दिल पे छाई है
तेरी नजर की शुआओं में खो भी सकती थी,
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है कि
तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं.
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे,
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं.
न कोई राह, न मंज़िल और न रोशनी का सुराग,
इन्हीं अंधेरों में भटक रही है, ज़िंदगी मेरी.
रह जाऊंगा इन अंधेरों में कभी खोकर,
मैं जानता हूं मेरे हम-नफ़स मगर यूं ही,
''कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है,
कि जिंदगी तेरी ज़ुल्फों की नर्म छांव में गुजरने पाती
तो शादाब हो भी सकती थी,
ये रंजो-ग़म की स्याही जो दिल पे छाई है
तेरी नजर की शुआओं में खो भी सकती थी,
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है कि
तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं.
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे,
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं.
न कोई राह, न मंज़िल और न रोशनी का सुराग,
इन्हीं अंधेरों में भटक रही है, ज़िंदगी मेरी.
रह जाऊंगा इन अंधेरों में कभी खोकर,
मैं जानता हूं मेरे हम-नफ़स मगर यूं ही,
कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है।.......''(कभी-कभी, साहिर लुधियानवी)
इस रहस्य को पाने के लिये अंतहीन दरवाजों वाली एक लम्बी यात्रा..
ReplyDelete