सीरिया में शांति की चुनौती

सीरियाई राष्ट्रपति बशर-अल-असद अपनी पत्नी असमा के साथ
सीरिया में बदलाव की मांग को लेकर विपक्षी दल और आम जनता सड़कों पर आंदोलन कर रही है. प्रदर्शनकारी चार दशक से भी अधिक समय से सत्ता पर कब्जा जमाये राष्ट्रपति बशर अल असद के परिवार के शासन का अंत चाहते हैं. लंबे समय से जारी इस विद्रोह ने अब हिंसक रूप अख्तियार कर लिया है और आये दिन हो रही नरसंहार की घटनाओं से स्थिति और गंभीर होती जा रही है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, सुरक्षा बलों की कार्रवाई में अब तक 9,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और 14,000 से अधिक को गिरफ्तार किया जा चुका है. सीरिया में अशांति और हिंसक घटनाओं को बंद करवाने की संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून से लेकर अरब लीग तक की कोशिशें असफल रही हैं. इतना कुछ होने के बाद भी राष्ट्रपति बशर अल असद किसी भी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं हैं.
विद्रोह की कैसे हुई शुरुआत : सीरिया में विद्रोह की कहानी की शुरुआत मिस्र और ट्यूनीशिया की क्रांति से जुड़ी है. यह विद्रोह मार्च में दक्षिण सीरियाई शहर डेरा में शुरू हुआ. उस वक्त स्थानीय लोग उन 14 स्कूली बच्चों की रिहाई की मांग को लेकर इकट्ठा हुए, जिन्होंने मिस्र और ट्यूनीशिया में क्रांति के प्रतीक कहे जाने वाले मशहूर स्लोगन जनता सरकार का पतन चाहती है को दीवारों पर लिख दिया था. इस कारण इन स्कूली बच्चों को यातना भी दी जा रही थी. बाद में प्रदर्शनकारियों ने लोकतंत्र और व्यापक आजादी की भी मांग शुरू की. हालांकि, शुरू में प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति असद के इस्तीफे की मांग नहीं की थी. हिंसक कार्रवाई से विद्रोह व्यापक यह विरोध प्रदर्शन शांतिपूर्ण तरीके से हो रहा था, लेकिन सरकार इससे घबरा गयी. जब 18 मार्च को दोबारा प्रदर्शन हुआ, तो सुरक्षा बलों ने लोगों पर खुलेआम गोलियां चलायीं, जिसमें कई लोगों की मौत हो गयी. इस घटना के एक दिन बाद लोग मृतकों को श्रद्धांजलि देने पहुंचे, तो सुरक्षा बलों ने वहां भी फायरिंग की, जिसमें ए और शख्स की मृत्यु हो गयी. इसके चंद दिन बाद ही विद्रोह व्यापक हो गया. इसे कुचलने के लिए राष्ट्रपति असद के भाई माहेर की अगुवाई में सेना की एक टुकड़ी भेजी गयी. कार्रवाई में सेना ने प्रदर्शनकारियों पर टैंक चलाये, जिससे दर्जनों प्रदर्शनकारियों की मृत्यु हो गयी. उनके घरों को नष्ट कर दिया गया. सरकारी की हिंसक कार्रवाई के बावजूद विद्रोह थमा नहीं, बल्कि दूसरे शहरों में भी
प्रदर्शन होने लगे. बाद में सेना ने इस प्रदर्शन के पीछे आतंकियों और सशस्त्र अपराधियों के हाथ होने का आरोप लगाना शुरू कर दिया.
लोगों की मांग, राष्ट्रपति का वादा : पिछले साल के शुरू में प्रदर्शनकारी अन्य अरब देशों की तरह सीरिया में भी लोकतंत्र और व्यापक आजादी की मांग कर रहे थे. लेकिन, सुरक्षा बलों की हिंसक कार्रवाई के बाद अब वे राष्ट्रपति असद के इस्तीफे की भी मांग करने लगे हैं. असद ने इस्तीफे की मांग को सिरे से खारिज कर दिया, लेकिन उन्होंने प्रशासन में सुधार का वादा लोगों से किया. प्रदर्शन का सिलसिला शुरू होने के बाद असद ने देश में करीब 48 वर्षों से चले रहे आपातकाल को पिछले साल अप्रैल में ही खत्म कर दिया था. नये संविधान के तहत बहुदलीय चुनावों के लिए फरवरी 2012 में जनमत सर्वेक्षण के जरिए मंजूरी मिल गयी.
लेकिन, प्रदर्शनकारियों पर सुरक्षा बलों द्वारा गोलीबारी जारी थी. नतीजतन, वे असद के इस्तीफे की मांग पर अड़े गये. इसे देखते हुए असद ने इस विद्रोह को शांत कराने के लिए सेना को सड़क पर उतारने के अलावा जनता से एक और वादा किया. इसके मुताबिक मौजूदा कार्यकाल खत्म होने के बाद आने वाली सरकार के चुनाव के लिए तो वह खुद दावेदार होंगे और ही इस पद को अपने बेटे को सौंपेंगे. लेकिन, लोकतंत्र की मांग को लेकर सड़क पर उतरे लोगों को संतुष्ट करने के लिए यह काफी नहीं था. इसके अलावा राष्ट्रपति असद ने विद्रोह में शामिल लोगों को माफी देने का भी दावं खेला, लेकिन उसे विपक्षी मुसलिम ब्रदरहुड सहित सभी दलों ने खारिज कर दिया. दरअसल, विपक्ष सहित विद्रोहियों की मांग है कि पिछले 44 वर्षों से राज कर रही सरकार अपना सत्ता छोड़ दे
अंतरराष्ट्रीय समुदाय की भूमिका : मध्यपूर्व के देशों में सीरिया की भूमिका काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है. यहां किसी भी तरह की उथल-पुथल का असर लेबनान और इजरायल जैसे देशों पर पड़ता है. इससे प्रॉक्सी समूहों, जैसे चरमपंथी हिजबुल्लाह और हमास की गतिविधियां काफी बढ़ हो जाती हैं. अमेरिका, इजरायल और सऊदी अरब के मुख्य विरोधी और शिया बहुल ईरान के साथ सीरिया का करीबी संबंध है. नतीजतन, चरमपंथी संगठनों का सक्रिय होना मध्यपूर्व में इन देशों के लिए परेशानी का सबब बन सकता है. ‘अरब लीगने इस विद्रोह के लिए सीरिया के सरकारी तंत्र को जिम्मेदार ठहराया है. हालांकि, शुरू में अरब लीग सीरिया के मुद्दे पर चुप रहा, जबकि इसने लीबिया में नागरिकों को बचाने के लिए कर्नल गद्दाफी की सरकार के खिलाफ नाटो की अगुआई में बमबारी का समर्थन किया था. 22 देशों के इस संगठन ने सीरिया में हिंसा खत्म करने की मांग की, लेकिन कूटनीतिक और राजनीतिक वजहों से किसी भी ठोस कार्रवाई पर चुप्पी ही साधे रखी. हालांकि, बाद में सभी को आश्चर्यचकित करते हुए इसने सीरिया को अरब लीग से निलंबित कर दिया. इसके अलावा जब सीरिया ने शांति बहाली के लिए पर्यवेक्षकों की तैनाती को मंजूरी नहीं दी तो अरब लीग ने उस पर   आर्थिक प्रतिबंध भी लगाये. दिसबंर 2011 में पर्यवेक्षकों को सीरिया आने की मंजूरी मिल गयी, लेकिन शांति बहाली का कोई रास्ता नहीं निकल पाया. जनवरी 2012 में अरब लीग ने महत्वाकांक्षी योजना के तहत राजनीतिक सुधार के लिए राष्ट्रपति के अधिकार उपराष्ट्रपति को सौंपने और विपक्ष से समुचित वार्ता की प्रक्रिया शुरू करने एवं दो महीने के भीतर नयी सरकार के गठन का प्रस्ताव रखा.लेकिन, इसके चंद सप्ताह बाद ही नाटकीय ढंग से हिंसा बढ़ने लगी. नतीजतन, अरब लीन ने अपने अभियान को स्थगित कर दिया.फिर, अरब लीग ने अपनी सुधारवादी योजना लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से मदद मांगी. लेकिन, संयुक्त राष्ट्र समर्थित इस प्रस्ताव को रूस (रूस का सीरिया के साथ महत्वपूर्ण आर्थिक और सैन्य साझेदारी है) और चीन ने वीटो कर दिया. सुरक्षा परिषद में यह उनका दूसरा वीटो था. रूस ने कहा कि इस प्रस्ताव के कारण सीरिया में सैन्य हस्तक्षेप बढ़ जायेगा. सीरिया की समस्या के समाधान की जो कड़ी गायब है वह है रूस. रूस और सीरिया के बीच आपसी संबंध काफी मजबूत हैं. शांति बहाली के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव के खिलाफ वीटो करके रूस ने ही सीरिया की मदद की थी. ऐसे में अगर कोफी अन्नान (सीरिया में शांति बहाली के लिए नियुक्त अरब लीग और संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत) की छह सूत्रीय शांति योजना को लागू कराना है, तो उसके लिए सीरिया पर रूस का दबाव जरूरी होगा.

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