तमाशा दुनिया का


हररोज़ सरे बाज़ार होता तमाशा
भले ही चोर नज़रों से पर,
देखता तमाशा दुनिया का...
हररोज़ होता बेरोजगार नौजवान
जेब भरते नेता, किसान करते आत्महत्या,
फिर भी हम करते भारत-निर्माण.....
संसद से सड़क तक, जन से जनपथ तक,
कहां खो गया इंसान,
चलो ढूंढें अपना स्वाभिमान....
ख़ून-पसीने के दम पर खड़ा होता
अपना नया हिंदूस्तान,
फिर भी ख़ून का ही क्यों प्यासा है इंसान...
जाति, मजहब, क्षेत्र सब बंटा है
नहीं बंटा तो बस हमारी चाह,
जो है हमारी एक अटूट पहचान.....

4 comments:

  1. Deepika behan ko hamari hardik badhaiyaan. aur chandan ji aapka bahut dhanyawaad aisi sundar khabar ko humsub tak pahunchaane ke liye.

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  2. sorry galti se maine galat jagah par comment kar diya. i am sorry

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  3. बस यही चाह हमारी पहचान है..बढ़िया रचना/

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  4. क्या बकवास है, यार अब यहां भी पकना पड़ेगा, लेकिन कोशिश बेहतरीन है

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