भ्रमित भारत का सच

भारत आज अपनी हालत पर आंसू बहा रहा है। हर तरफ हाहाकार मचा हुआ है। फिर भी एक अजीब तरह की खामोश नजर आती है। लोग मर रहे हैं। हम चुप हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं, हम चुप हैं। सरकार जबरन किसानों का जमीन हथिया रही है, फिर भी हम चुप है। उद्योगों के लिए जमीन नहीं देने वालो को पुलिस सरकार के हुक्म से किसानों पर गोलियां बरसाती है, हम चुप रहते हैं। नेता, जनता यानी हमारे अरबों रुपए डकार जाते हैं, हम चुप रहते हैं। कई इलाकों में बाढ़ आया, सरकार ने पैसा आवंटित किया, जनता तक पैसा नहीं पहुंचा, हम चुप। हमारे नेता सेक्स स्कैंडलों में लिप्त मिलते हैं, हम सवाल नहीं करते। चुर रहना बेहतर विकल्प समझ बैठते हैं। महंगाई से हाल बेहाल, हम चुप। नेता गुलछर्रे उड़ाते हैं, हम मारे जाते हैं। चुप रहकर हम हलत को सही साबित करते रहते हैं। जब तक हम पर असर नहीं पड़ता हम मुंह खोलना मुनासिब नहीं समझते। जब खोलते हैं तो अलग-अलग। यह हमारी मजबूरी भी हो सकती है या फिर तूफान से पहले की खामोशी।

दूसरी बात, आज हमारा मुल्क, प्यारा देश भारत कई क्षेत्रों में विकसित देशों को चुनौती दे रहा है तो कुछ मामलों में हम निर्धनतम देशो से भी बदतर हैं। मतलब यह कि फिर आजाद होने की वर्षगांठ माने वाले हैं। इस बार 64वीं वर्षगांठ मनाएंगे, लेकिन इनते सालों बाद भी देश के समग्र विकास का सपना अधूरा ही है। देश में जहां कुछ लोगों की आय हर घंटे हजारों-लाखों बढ़ रही है, वहीं 40 करोड़ से अधिक की आबादी महज दो वक्त की रोटी के लिए हर रोज जद्दोजहद करता नजर आता है। इसमें भी पूंजी पैदा करने वाले स्रोतों पर उसी का कब्जा होता है, जिसके पास पहले से ही पूंजी है। मतलब यह कि गरीब यदि चाहे कि वह अमीर हो जाए तो उसके लिए दूर की कौड़ी है. जो इस पूंजी बनाने की दौड़ में भी पीछे रह रहे हैं वह या तो गरीबी या शोषण के मारे हैं या फिर वह भ्रष्टाचार और आपराधिक तरीकों को अपना रहे हैं, ताकि वह भी ग्लोबल दुनिया की अंधी दौर में शामिल हो सके। फिर यहां से एक और समस्या उत्पन्न होती है कि जो कानून को पूजते हैं, उसके हर हुक्म की तामील करते हैं, उन्हें ही सताया जाता है। दो-चार सौ की चोरी करने वाले को या झूठे मुकदमों में लोगों को 4-5 साल या इससे भी अधिक तक जेल में सड़ना पड़ता है। वहीं, देश को अरबों का चूना लगाने वाला और कई अपराधों का गुनहगार महज एक-दो दिन जेल में रहने के बाद आसानी से बेल पर रिहा हो जाता है। जेल से बाहर आने पर उसका स्वागत फूल हारों से किया जाता है। मानों देश को चूना नहीं आजादी दिलवाई हो। तमाम काली करतूतों के बाद वह राजनेता के खिताब से सम्मानित किया जाता है। यह किसी दूसरे देश की बात नहीं बल्कि मंदी के दौर में भी सात-आठ फीसदी से तरक्की करने वाले मुल्क भारत की कड़वी और काली हकीकत है। नेताओं का उदाहरण देना मुनासिब नहीं होगा। वजह यह कि अगर गिनती की जाए तो शायद ही कोई ऐसा है, जिसका दमान दागदार न हुआ हो। जिस पर शायद किसी तरह के आरोप न लगे हों। शायद ही कोई आर्थिक गड़बड़ी, सेक्स स्कैंडल, धोखाधड़ी, हत्या, मारपीट, यहां तक कि बलात्कार, पत्नी के रहते दूसरी नामचीन महिलाओं से अवैध संबंध, कबूतरबाजी जैसे कई मामलो के कसूरवार न हों। हर किसी पर किसी न किसी तरह का आरोप है। यह उस देश की दुर्दशा की कहनी है, जो कथा कुछ और हुआ करती थी। पर सब बातें हैं, बातों का क्या?

1 comment:

  1. Sach mein ek or jahan noton aur sone-chandi khata varg hai to wahin dusari or do jun kee roti ko tarsate-marte logon ka yah hamara bharat sach mein kitna bewas or laachar hai..
    Ek sachhayee bayan karti aapki post...
    Saarthak manviya sambedana se bhare lekh ke liye aabhar

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