ख़बरों को बेचिए, पर ज़रा संभल के...

मीडिया में अनुप्रास युग बढ़-चढ़ कर बोल रहा है। अनुप्रास के आलोचक भी इसके कायल हैं। पहले इसका इस्तेमाल करते हैं, फिर उसे गरियाते हैं। एक तरह से जिस ताली में खाओ उसी थाली में छेद करने की परंपरा भी तेजी से बढ़ रही है। कुछ तो यहां तक कहते हैं कि इसका कोई विकल्प नहीं है। हम सड़क छाप उपन्यासों के नामों के खबरों में धड़ल्ले इस्तेमाल करते जा रहे हैं। फिर मेरे भाई इस तरह का ड्रामा क्यों? यही हालत पत्रकारिता की है. पत्रकाल लोग अपनी पूरी प्रतिभा दिखा रहे हैं। लेकिन यह प्रतिभा उनके पेशे की पवित्रता को बचाने के लिए नहीं, बल्कि अपनी साख बनाने के लिए होती है। सही भी है, लोकतंत्र में हरकिसी को अपनी तरह से जीने का हक है। पर, लोग वही रास्ता क्यों अख्तियार कर रहे हैं, जो सबसे आसान और विध्वंसक है। समस्या तो और भी गंभीर बनती जा रही है, क्योंकि इनके बारे में इतना लिखा जा चुका है कि अब सब बेअसर ही रहता है। तो क्या विकल्प हमारे पास बेहद ही कम बचे हैं या फिर वह भी नहीं बचा है। आज देखें तो तमाम तथाकथित बड़े पत्रकार बड़े-बड़े ओहदों पर विराजमान हैं। जब वे हमारी उम्र के थे या जब उन्होंने पत्रकारिता शुरू की थी तो उनकी बातें भी बड़ी-बड़ी हुआ करती थीं। हम उनकी लेखों को पढ़कर उन्हें सम्मान की नजर से देखते थे। पत्रकारिता में गलत चीजों के घुसपैठ पर चर्चा तो उस वक्त भी हुआ करती थी। लेकिन यह चर्चा पत्रकार के सत्ता से समझौता करने की होती थी। आपातकाल इसका उदाहरण है। लेकिन अब तो हालत और भी खतरनाक है। सत्ता से समझौता करने वालो का विरोध करने वाले भी चुप रहने लगे हैं। यदि वो बोलते भी हैं तो उनकी आवाज में वह बात नहीं जिसका असर हो। अब यह है कि हर कोई दलाल नजर आ रहा है। पहले खबरों को लेकर अखबारों और टीवी चैनलों में ठन जाती थी। चैनल वालो की खिंचाई में अखबार वाले भाई हमेशा लगे रहते। पर, अब उनको क्या हुआ?  वक्त के साथ समझौता किया। वक्त नहीं अपने ईमान, पाठक और पाक पेशे से समझौता किया। एक तरह से लोग समझौतावादी हो गए। खबरों को छोड़ खुद इसे गढ़ने लगे हैं। मनगढ़ंत खबरें आज कुछ और चलती हैं तो कल ठीक उसके उलट वाली खबर चलती हैं। वह भी उसी चैनल या अखबार में। हाल में, सचिन तेंदुलकर के बायोग्राफी का उदाहरण। रुछ दिनों तक खुलेआम चलता रहा कि इसमें सचिन का खून है। सब भाइयों ने चलाया, क्या अखबार वाले क्या चैनल वाले। चंद दिनों बाद सचिन सामने आए और कहा इसमें मेरा कोई खून वगैरह नहीं है। कहने का मतलब कि भाई जिसकी खबर चला रहे हो, उससे कम से कम कंफर्म तो कर लो। यह भी जहमत उठाने की किसी ने कोशिश तक नहीं की। यह हो गया है खबर का स्तर उसकी सच्चाई से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। बस खबरों को बेचो...

1 comment:

  1. बड़ी ही दयनीय स्थिति है विश्वसनीयता की।

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