मुझको डुबोया मेरे होने ने।
मंदी को भी मिलने लगी मात !
जिन्ना का जिन्न है ये जनाब !
कंगारूओं के क़िले में सेंध
अब कंगारूओं की टेस्ट रैंकिंग गिरकर चौथे पायदान पर आ गई है। अपना खोया रूतबा हासिल करना फिलहाल तो दूर की कौड़ी नज़र आ रही है, पोंटिंग एंड कंपना को। वजह साफ है, गेंदबाज़ी में न तो पहले जैसी धार है न ही फिल्डिंग में फुर्ती और न ही बल्लेबाज़ी में बादशाहत। मैक्ग्रा, शेन वार्न, गिलक्रिस्ट, हेडेन और लैंगर जैसे खिलाड़ियों के संन्यास के बाद मानो यह टीम बुरी तरह बिखड़ गई है।एक चैंपियन की हार का मलाल किसे नहीं होता, क्रिकेट का प्रशंसक होने के कारण कंगारूओं के क्रिकेट के खेलने के अंदाज़ का कायल बहुत सारे रहे होंगे, मैं भी था। लेकिन जब अपनी क़ाबिलियत को तराशने के बजाय उस पर कोई घमंड करने लगे तो उसका अंजाम भी क्या होता है, ऑस्टेलियाई क्रिकेट टीम हमारे सामने है।
बारिश की बोरियत का भी मज़ा है
ख़ान हर किसी के साथ सोए !
ये सारी बातें इमरान की बायोग्राफी में क्रिस्टोफर स्टैनफर्ड ने लिखी हैं। ध्यान देने वाली बात है कि इस तरह की बातें शायद पाक में किसी प्रधानमंत्री को लेकर पहली बार सामने आई है, वो भी एक मुस्लिम कंट्री में जहां लोकतांत्रिक क़ानूनों की जगह इस्लामी कानून का वर्चस्व बरकरार है और इस तरह की बातें सामने आने के बाद क्या बवाल खड़ा होता है, ये तो बस इंतजार करने और देखने वाली बात होगी। जहां कि उस दिवंगत प्रधानमंत्री बेनज़ीर का पति अभी राष्ट्रपति हैं और इमरान जो इस बात को ग़लत ठहरा रहे हैं, वो भी एक राजनीतिक तंजीम गठित कर पाक राजनीति में एक अहम किरदार निभा रहे हैं।
किताब के हवाले से स्टैनफोर्ड के मुताबिक़ 1975जब बेनज़ीर 21साल की थीं और ऑक्सफोर्ड में सेकेंड यीअर में पढ़ती थीं तभी वो इमरान के क़रीब आईं। बेनज़ीर जहां एक ख़ुले दिमाग और प्रोग्रेसिव सोच वाली महिला थीं जिसने अपनी ज़िदगी का अधिकतर वक़्त पश्चिमी मुल्कों में गुजारा और इमरान ने अपनी शादी इंग्लैंड में ही जेमिमा से की थी। मतलब की दोनों एक खुले विचारों वाले शख़्सियत। इस ख़ुलासे ने पूरे पाकिस्तान में तहलका मचा दिया है। हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई है य़ा बस कहीं पब्लिसिटी स्टंट तो नहीं, ये कहना ज़रा मुश्किल है क्योंकि बेनज़ीर अब स दुनिया में हैं नहीं और इमरान जिनकी बायोग्राफ़ी में इसका ख़ुलासा किया गया है, इस पूरी बात से इन्कार कर रहे हैं। लेकिन एक बात तो है कि इसने एक नए विवाद को जन्म दे दिया है, जो आने वाले समय में निश्चित ही एक नया गुल खिलागा। जो कभी दुनिया कि दूसरी पावरफुल महिला थी और पाक जैसे चरमपंथी सियासतदां मुल्क में एक महिला से जुड़ी इस बात का ख़ुलासा ही इस हवा को बवंडर की शक्ल देने को काफी।
ए कॉल टू जिन्ना
अब बात जसवंत सिंह को उनके कारनामे के लिए सम्मानित करने का सिलसिला शुरू हो चुका है। शायद एक मुख्य धारा की पार्टी में रहते हुए भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाने की उनकी कवायद रंग लाने लगी है। जी हां, उनको सम्मानित करने का फ़ैसला किया है, ऑल इंडिया मुसलिम मज़लिस ने। इसके उपाध्यक्ष यूसुफ हबीब औऱ प्रवक्ता बदरकाजमी ने कहा कि जसवंत सिंह ने वो काम किया है जिसे कांग्रेस हमेशा से अपमानित करती आई है। उनका कहना था कि जसवंत सिंह ने जिन्ना की एक सही तस्वीर पेश की जिसे कभी कोई हिंदुस्तानी समझ ही नहीं पाए...इस तरह की और तमाम बातें मुस्लिम मजलिस ने कही, जिसे दोहराना शायद मुनासिब नहीं क्योंकि बात फिर अपनी ही थाली में छेद करने वाली हो जाएगी।
लेकिन इन सब के बीच जो एक बात सोचने वाली है कि आखिर बीजेपी के ही नेता जिन्ना को महान और सेक्युलर बनाने पर क्यों तुले हुए हैं। और जब भी ऐसा होता है, पार्टी अपने को उससे अलग कर लेती है और व्यक्तिगत मसला बताकर किनारा कर लेती है। लेकिन सोचने वाली बात है कि बीजेपी में कैसे व्यक्ति हैं कि उन्हें अपनी बात कहने के लिए भी व्यक्तिगत होना पड़ता है, ख़ैर ये बात वो व्यक्ति नहीं कहता है कि ये मेरी व्यक्तिगत सोच है, जो सारा बखेड़ा खड़ा करता है।
अगर जसवंत सिंह जिन्होंने एक अलग ही इतिहास लिखने का काम किया है , यदि उनके इतिहास पर नज़र डालें, तो नेशनल डिफेंस अकादमी का एल्युमिनाई, जिसने देश की सेवा एक विदेश, वित्त और रक्षा मंत्री के तौर पर की। सबसे बड़ी बात ये कि जसवंत सिंह बीजेपी के भीतर सबसे प्रभावशाली शख़्सियत हैं जिनका बैकग्राउंड आरएसएस से नहीं है। हो सकता है शायद इसीलिए ऐसी हिमाकत की हो, जिन्ना को महान बताने की जबकि आडवाणी का हश्र वो देख चुके थे। अब इनका क्या होगा राम जाने। इसके पहले भी सुर्ख़ियों में आने के लिए जसवंत जी किताबें लिखते रहे है- ए कॉल टू ऑनर को कौन भूल सकता है, जब उन्होंने पीएम ऑफिस में जासूस होनी की बात कहकर सनसनीख़ेज ख़ुलासा किया था, जिसे वो कभी भी सच साबित नहीं कर सके। इस बार उन्होंने कोशिश नहीं बकायदा बताया है कि नेहरू और सरदार पटेल विभाजन के लिए कसूरवार थे और सारा दोष जिन्ना के उपर गढ़ दिया गया। साथ ही जिन्ना और गांधी के विचारों की समानता की भी बात की है। शायद उम्र की इस दहलीज पर कुछ करने को था नहीं, पार्टी पहले ही लुटपिट चुकी है, राज्यसभा में विपक्ष के नेता का पद भी हाथ से चला गया सो लगे जिन्ना का जिन्न बोतल से निकालने। अब होगा क्या , शायद रामजी अयोध्या से आकर कुछ करें तो बात बने।
और बात बन ही गई, जसवंत सिंह को आख़िरकार बीजेपी से चलता कर ही दिया गया। बड़े बेआबरू होकर पार्टी से निकलना पड़ रहा है।
जसवंत पर भारी जिन्ना का जिन्न
भूख है तो सब्र कर ।
हमें शर्म नहीं आती !
हाल ही में संसद में शिक्षा का अधिकार बिल पारित हो गया और पिछले दिनों मैं अपने घर गया...आप सोच रहे होंगे कि इसका इन सबसे क्या नाता, तो बस आपको कुछ तस्वीरें दिखाना चाहता हूं, और आप पर छोड़ता हूं बाक़ी चीज़ों के लिए।
ये सारी तस्वीरें पंद्रह अगस्त के दिन खींची गई हैं, कुछ नई दिल्ली- स्टेशन तो कुछ पटना की हैं। ये उन्हीं ट्रेनें में पानी, पराग और कई चीज़े बेचते हैं। जिस ट्रेन से बड़े-बड़े अफ्सर और कभी-कभी कुछ नेता भी सफर करते हैं, वो भी ये सारी चीज़ें देखते हैं, लेकिन उनकी भी मज़बूरी है, वो क्या करें कहां तक और किस-किस की प्रॉब्लम दूर करते रहें।
शिक्षा का अधिकार क़ानून लागू हो जाएगा, क्या ये बच्चे उसे कभी पा सकेंगे, देश की मुख्य धारा में कभी शामिल हो भी सकेंगे, कोई आश्चर्य नहीं कल इसी में से कोई पॉकेटमार या उससे भी आगे कुछ और बन सकता है, आइएस बनने की गुंजाइश तो है नहीं....इनके ऐसे सुनहरे भविष्य के लिए क्या ज़िम्मेदार हम भी हैं, अगर जवाब आपके पास है तो , हमें भी बताइगा....
मीडिया की मृगमरीचिका
दूसरी बात ये कि सरकार अगर विज्ञापन देती है तो चुनावों के मौसम में क्योंकि उसे भी मालूम है कि कब चैनलों से अपना काम निकलवाना है। जिसे देख हमलोग हल्ला मचाने लगते हैं कि चैनल वाले पैसे लेकर किसी ख़ास पार्टी या कैंडीडेट की बातों को ख़बर के तौर पर दिखा रहे हैं। फिर वही बात आ जाती अपने-अपने हितों की, कि घोड़ा अगर घास से दोस्ती कर ले तो खाएगा क्या ? कुल मिलाकर बात ये कि हम बाज़ारवाद के युग में जी रहे हैं और बाज़ार सारी चीज़ें तय कर रही हैं। एकबार एक प्रतिष्ठित चैनल के मैंनेजिंग एडीटर ने एक बात कही कि आज हम बाज़ार की ताकत को नकार नहीं सकते और आप भी यदि अपने हिसाब से ख़बरें देखना चाहते हैं तो पैसा लगाइए, फिर हम किसानों की आत्महत्या दिखाएंगे, बुंदेलखंड की समस्या दिखाएंगे , भारत को दिखाएंगे बजाय इंडिया के। सबसे बड़ी बात ये दुनिया हमारी बनाई हुई दुनिया ही है, अगर हमें वही दिखाया जा रहा है जो हम देख रहे हैं या देखना चाहते हैं। उसी से उनकी टीआरपी बढ़ती या घटती है, जिससे विज्ञापन कम या अधिक का मिलना अमुक चैनल को तय होता है। इस सिस्टम को हमीं ने मज़बूत किया है, हमी को कुछ करना होगा। बस बारबार गाली देना और उसी टीवी को देखना हमारी फितरत में शामिल हो चुकी है, न्यूज़-प्रोग्राम देखना और उसी की फज़ीहत करना, ऐसा करने से बाज आना होगा,जिसे ख़ुद बदलना होगा। न कि कोई हमारी मदद करने आएगा।
कुछ यूं तय की अपनी ज़िंदगी, मैंने.........
कि बस न मिलेगा सुकुन मेरे रूह को
ऐसा एहसास था, पता नहीं क्यूं
शायद मैं क़ाबिल नहीं तुम्हारे....
तुम्हारे एहसास के लिए।
दिल की हर धड़कन के साथ तड़पता हूं,
हरपल एक कशिश को सीने से लगाए रहता हूं।
इबारत क्यों भला उस ख़ुदा की,
माना पनाह दी है, ज़िदगी तो नहीं,
गर ज़िंदगी दी तो मक़सद तो नहीं,
गोत्र, गांव और ग्लोब्लाइजेशन
मुल्क का बंटवारा ही है समाधान ।
बलात्कार, एन्काउंटर और पूर्वोत्तर !
अधूरी मुलाक़ात का फ़साना
कभी इज़हार तो न कर पाए उनसे,
कहीं-न-कहीं मेरे लिए भी होगी उनके दिल में जगह,
यही सोचकर अब तक जीये जा रहा हूं।।
कौन करता है याद उस दौर को,
जब कुछ नहीं था पास,
फिर भी बहुत कुछ था,
आज सबकुछ है, फिर भी कुछ नहीं है।
उनकी गलियों से गुजरे एक ज़माना हो गया,
फिर भी यादों में वो आज भी बसे हैं,
एक अधूरी मुलाक़ात तो हुई थी,
चंद पलों की वो कहानी,
अब फसाना है......................।