पहले तो एक बचपना समझा...
फिर अपनी नादानी,
लेकिन इत्तेफाक
यह भी न हुआ कि तुम्हे
कुछ बता सकूं...
क्या मैंने सोचा और क्या पाया,
न कुछ हासिल, न ही गुमनाम,
इस दुनिया की भूलभुलैया में,
बस ख़ुद को ही भूला पाया...
इस तमाम ज़िंदगी में...
इतना ही ख़ुद के लिए कर पाया...
क्या मैंने सोचा और क्या पाया,
ReplyDeleteन कुछ हासिल, न ही गुमनाम,
बहुत सुन्दर रचना, दिल को छु लेने वाले भाव है,
धन्यवाद मिथिलेशजी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है बधाई।
ReplyDeleteधन्यवाद परमजीत जी
ReplyDeletebahut achi feelings hain...
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