ठीक इसी तरह भाजपा ने मंडल की हवा निकालने के लिए कमंडल के कार्ड खेला. उन्मादी कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद गिरा दी. फिर दंगे भड़के. बदला लेने के लिए मुम्बई में धमाके हुए. उसके बाद गोधरा में कारसेवकों से भरी बोगी जला दी गयी. फिर उसके अगले दिनों गुजरात में २००० मुसलमानों की हत्या की गयी. उसकी प्रतिक्रिया में आज भी हिंसा जारी है.
ये पंक्तियाँ मेरी नहीं हैं. बहुत दिन पहले तहलका पत्रिका में पढ़ी थी. पता नहीं क्यों एक बार पढने के बाद ही पूरी तरह याद ही गयी. बहुतों को लगता होगा कि आतंकवाद के सन्दर्भ में लिखी गयी इन बातों का अभी क्या मतलब हो सकता है. लेकिन मेरे हिसाब से इन्हें सिर्फ आतंकवाद के नजरिये से देखना हमारी नादानी होगी. दरअसल आज हमारे प्रधानमन्त्री से लेकर तमाम बड़े नेता और अधिकारी तक यही खाते घूम रहे हैं कि आज देश कि सबसे बड़ी समस्या नक्सलवाद है. पर यहाँ भी यह ध्यान देने वाली बात है कि कुछ राजनितिक दल इस नक्सलवाद का फायदा उठाने में लगे हैं. कई मर्तबा तो यह आरोप भी लग चुका है कि जो राज्य नक्सलवाद कि समस्या से प्रभावित हैं वहा के कद्दावर नेता इन्ही नक्सलियों कि मदद से अपनी चुनावी तकदीर का फैसला करवाते हैं. वह न तो अपने कार्यों और न ही जनता कि सेवा चुनाव जीतते हैं. होता यह है कि चुनाव के पहले यह नेता उनकी मदद लेते हैं और चनाव के बाद उनकी मदद करते हैं. फ़िलहाल बिहार और पश्चिम बंगाल में चुनाव की दुदुम्भी बजने वाली है. झारखण्ड में भी सत्ता समीकरण डगमगा चूका है तो वहा भी इसकी सम्भावना या फिर आशंका कह लीजिय, बढ़ गयी है. मै यह नहीं कह रहा हूँ कि इन राज्यों के नेता पूरी तरह नक्सलियों से मिले हुए हैं. ऐसा हो भी नहीं सकता पर क्या वजह है चुनाव के वक़्त नेता कोई ठोस कदम उठाने से बचने लगते हैं. दरअसल उन्हें मालूम है कि नक्सलियों का दायरा काफी बढ़ चुका है, उनका अधिकारक्षेत्र भी पहले की अपेक्षा बाधा है. आम जनता नेता से दूर भाग रही है. नेता पर उसका यकीं नहीं रहा. वह हर समस्या के लिए नाता को ही जिम्मेदार मानाने लगी है. नेता भी इस बात को समझ चुके हैं. इसलिए वह चुनाव जितने के लिए अपनी यह तरकीब अपनाने लगे हैं.