शशि थरूर ने जिस तरह सफलता का ग्राफ छूआ है, वह सभी को आकर्षित करता है। वह एक नौजवान और हैंडसम राजनेता हैं। कई बूढ़े नेता उनकी इस हैंडसमनेस यानी खूबसूरती पर जल-भून जाते होंगे। लेकिन अंग्रेजीदां के सत्ता वाले फॉर्मूले वह सटीक बैठते थे, इसलिए उन्हें मनमोहन सिंह ने पहले संयुक्त राष्ट्र में महासचिव पद के लिए उनका समर्थन किया। हालांकि मनमोहन जानते थे कि वहीं थरूर को मात मिलने वाली है। लेकिन इससे उनकी भविष्य योजना सफल हो जाती। कहते हैं ना हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं। थरूर भी महासचिव का चुनाव हारकर बाजीगर बन गए. भारत लौटे और केरल से लोकसभा का चुनाव लड़ा। जीतकर आए और मनमोहन सिंह की नीतियों के मुताबिक, विदेश राज्यमंत्री बन बैठे। लेकिन इस दौरान अपने काम से ज्यादा ट्विटर पर सक्रिय नजर आए. सरकार को कई विवादों में भी घेरा। भारतीय राजनीतिक परंपरा और संस्कृति से अनजान थरूर मगरूर बन बैठे। अब आईपीएल की बात करें तो एक तरह से इस हम सभी राजनीतिक पार्टियों का ब्रेन चाइल्ड कह सकते हैं। कांग्रेस से लेकर बीजेपी, एनसीपी और यहां तक लालू यादव भी (उनका बेटा दिल्ली टीम का सदस्य है) इसमें शामिल हैं। जिनका जिक्र नहीं हुआ, वह भी प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर इसमें भागीदार हैं। यह एक लॉटरी की तरह है। जिसमें सभी लोग टिकट खरीदने को आजाद होते हैं। इसमें पैसा जनता के पॉकेट से आता है, लेकिन जाता अमीरों के हातों में है, क्योंकि सवाल सेटिंग का है। इसकी एक खासियत यह भी है कि इस खेल में सभी भागीदार एक समान नहीं होते, पर सभी समान तौर पर खुश जरूर होते हैं।
थरूर ने दरअसल इन मामलों में दो पाटों के बीच झूलते नजर आए। अपनी गलती और दुर्भाग्य के बीच। उनकी गलती यह थी कि वह बिन बुलाए मेहमान बन गए। उन्होंने सोचा कि वह दुबई और गुजरात के जरिए पैसा लगाकर कोच्चि पर दांव खेलकर राजनीतिक लाभ ले सकते हैं। जब कोच्चि ने फ्रेंचाइजी अधिकार जीता तो फ्रेंचाइजी का अता-पता कहीं नहीं था। सारा क्रेडिट थरूर को मिल रहा था। जबतक ललित मोदी ने अपने स्वाभिमान पर हुए प्रहाक का बदला लेने के लिए इनाक खुलासा किया तो सारा कच्चा-चिट्ठा सामने आ गया। अब थरूर और मोदी की बात करें तो दोनों में कई समानता है। दोनों ने मीडिया का बखूबी इस्तेमाल अपने हक में किया। दोनों तेजतर्रार हैं। इसलिए एक जंगल में दो शेर तो कतई नहीं रह सकते ना। मसलन मीडिया को अचूक हथियार दोनों ने बनाया। मोदी थरूर की चाल चलने लगे। लगातार ट्विटंग कर अपने मोहरे चलने लगे। उधर थरूर भी मोदी की मांद में आ गए। हालांकि मोदी प्राइवेट सेक्टर से ताल्लुक रखते थे। इसलिए वह फायदे में और थरूर अपनी चाल बर्बाद कर चुके थे। एक तरह से कहें तो शशि मोदी हो गए और ललित थरूर।
थरूर ने दरअसल इन मामलों में दो पाटों के बीच झूलते नजर आए। अपनी गलती और दुर्भाग्य के बीच। उनकी गलती यह थी कि वह बिन बुलाए मेहमान बन गए। उन्होंने सोचा कि वह दुबई और गुजरात के जरिए पैसा लगाकर कोच्चि पर दांव खेलकर राजनीतिक लाभ ले सकते हैं। जब कोच्चि ने फ्रेंचाइजी अधिकार जीता तो फ्रेंचाइजी का अता-पता कहीं नहीं था। सारा क्रेडिट थरूर को मिल रहा था। जबतक ललित मोदी ने अपने स्वाभिमान पर हुए प्रहाक का बदला लेने के लिए इनाक खुलासा किया तो सारा कच्चा-चिट्ठा सामने आ गया। अब थरूर और मोदी की बात करें तो दोनों में कई समानता है। दोनों ने मीडिया का बखूबी इस्तेमाल अपने हक में किया। दोनों तेजतर्रार हैं। इसलिए एक जंगल में दो शेर तो कतई नहीं रह सकते ना। मसलन मीडिया को अचूक हथियार दोनों ने बनाया। मोदी थरूर की चाल चलने लगे। लगातार ट्विटंग कर अपने मोहरे चलने लगे। उधर थरूर भी मोदी की मांद में आ गए। हालांकि मोदी प्राइवेट सेक्टर से ताल्लुक रखते थे। इसलिए वह फायदे में और थरूर अपनी चाल बर्बाद कर चुके थे। एक तरह से कहें तो शशि मोदी हो गए और ललित थरूर।
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