यूँ तो मनवाधिकार के दायरे में सभी आते हैं। चाहे वह भले ही सजायाफ्ता मुजरिम हो या जेल में ही क़ैद कोई अपराधी। ऐसे में सवाल उठता है कि मानवाधिकार के नाम पर किसी कैदी को किस हद तक आज़ादी दी जा सकती है। जेल में बंद एक कैदी ने अपनी पत्नी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनने की मांग की है। क्या उसे यह इज़ाज़त दी जा सकती है। दिल और दिमाग कहता है नहीं। उसे कतई इज़ाज़त नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि सजा के नाम पर उसे क़ैद में रखा जाता है। क़ैद में इसलिए भी रखा जाता है कि उस शख्स ने कोई अपराध किया होता है। तो उसे दंड के तौर पर उसे उसके अधिकारों से महरूम रखा जाता है। यदि ऐसे में उसकी मांगो को जेल में भी मन जाने लगा तो, जेल जेल न हो कर, ऐश करने का अड्डा हो जायेगा। हालाँकि कुछ मानवाधिकार वाले कहते हैं कि कैदियों को उनके अधिकारों से महरूम नहीं रखा जा सकता है। उनकी दलील है कि दांपत्य संबधों का अधिकार जीवन के अधिकार का ही एक हिस्सा है। वहीँ दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि जघन्य अपराध के दोषी एक आम आदमी कि जिन्दगी जीने की कल्पना भी कैसे कर सकता है। यानी किसी को यदि सजा मिली है तो उसे उसके कुछ अधिकारों से वंचित रखने के लिए ही, ऐसे में वह इस तरह की फरमाइश का हक़दार कैसे हो सकता है।
एक तरह से देखा जाये तो सारा मामला इस तरह उलझ गया है कि कोई भी फैसला लेने से कही न कही चूक हो सकती है। ज्यादातर लोग हालाँकि इस पक्ष में होंगे कि उसे यह अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। पर यह अधिकार नहीं देने पर इससे उसके अधिकारों का हनन हो सकता है। यदि दिया जाता है तो कई लोग यह कह सकते हैं कि जेल अब् जेल नहीं कुछ और बन गया है।
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