मुआवजा या मुर्दे के मूल्य

हाल में कृपालु महाराज के आश्रम में भगदड़ की खबर तो आप सभी ने सुनी और देखी ही होगी। मंदिरों और बाबाओं के आश्रम में भगदड़ से लोग तो मरते ही रहते हैं। इसके अलावा लोगों की मौत और भी दूसरे तरीके से होती है। आज सेना में बहाली की जगह पर युवकों की तादाद ज्यादा होने और धांधली होने के चलते भगदड़ का होना आम बात है। यहां देश के लिए मरने से पहले उस योग्य होने के लिए लोग खेत आ जाते हैं। हाल मे बेंगलुरू के कर्लटन टावर में आग से भी कुछ लोगों की जानें जाती हैं। पुलिस और पब्लिक के बीच प्रदशर्न से भी कुछ लोगों की मौत हो जाती है। राजस्थान में गुर्जर आंदोलन का मामला ज्यादा पुराना नहीं है। इन सभी में मरने वालों के बीच एक ही समानता है। इनके मरने के बाद इनके परिजनों के लिए सरकार मुआवजे की घोषणा जरूर करती है। एक तरह से मरे हुए लोगों की कीमत तय करती है। यानी मुर्दे की कीमत भी हमारे यहां ही तय होती है। जो जीते जी अपने परिवार के लिए कुछ नहीं कर पाते, वह मरने के बाद अपने परिवार को मालामाल कर जाते हैं। मरने के बाद इन लोगों का हिसाब किताब लगाया जाता है। बिल्कुल बनिए की तरह। खून की कमत तय करके दे दी जाती है। कुछ इस तरह... जो मरा उसको पांच हजार दे देंगे। जो घायल होकर अस्पताल में हैं उसे हजार रुपए। जिसकी सिर्फ मरहम पट्टी हुई है, उसे ढाई सौ रुपए। हो गया हिसाब साफ!

अब इस पर मरने वाले परिवार की औरतें बात करती हैं- हमारी तो किस्मत फूट गई। हमारे मर्द को मामूली मरहम पट्टी हुई तो तो हमें सौ रुपए ही मिलेंगे। तू भगवान है बाई कि तेरा मरद मर गया तो तुझे पांच हजार मिलेंगे। हमारा मरद से शूरू निखट्टू है। पड़ोसी का घरवाला फिर भी ठीक है तो अस्पताल मे पड़ा है तो उसे हजार रुपए मिलेंगे। सरकार ने मरने वालों के परिवार का मनोबल कितना बढ़ा दिया है कि रोटी के बदले लोग गोली खाने यानी मरने को भी तैयार हैं। सरकार को शायद रोटी से गोली सस्ती पड़ती है। इसलिए वह रोटी क बदले गोली सप्लाई ज्यादा करती है। खैर, इनके अलावा भी लोग सरकार के हाथों या उसके जरिए मरते हैं। नक्सलवाद के नाम पर आदिवासी, आतंकवाद के नाम पर बेकसूर और बेगुनाह मुसलमान, अपराधी के नाम पर फर्जी मुठभेड़ के चलते पुलिस के ही मुखबिर या आम आदमी। पर इनकी या इनके परिवार वालों की करम फूटी है। इन्हें सरकार की ओर से कोई मुआवजा नहीं मिलता। लेकिन बेकसूर मुसलमान, आदिवासी, आम आदमी को मारने अफसरों को तरक्की या ईनाम की राशि जरूर मिलती है। पहले वाली स्थिति में फायदा परिवार को, जबकि दूसरी हालत में फायदा किसे आप समझ ही रहे हैं....इसलिए दोस्तों मरने का कौन सा विकल्प चुना जाए..................

नोट- टर्म एंड कंडीशन अप्लाई!

2 comments:

  1. हाहाहा...
    बहुत ही बेहतरीन कटाक्ष किया है भाई...
    मरना तो यूं भी है ही एकदिन...बेहतर है कि किसी प्रायोजित हादसे में मरें कम से कम...कुछ तो भला हो ही जाएगा...

    आलोक साहिल

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