छोड़कर दुनिया को अब जरा आजाद रहो,
हरबार सोचकर, एकबार ये फैसला आज करो,
बहुत हुआ संगी-साथी,
सब साथ छुट जाते हैं,
एकबार भावनाओं को शब्दों के समंदर से,
जरा निकाल कर उतार फेंको,
बहुत हुआ स्नेह-निमंत्रण,
अब तो हो कुछ ऐसा भी,
हर पल हर क्षण में हो जीवन की तृष्णा,
मृग तृष्णा ने खूब नचाया,
जिंदगी ने खूब झुलाया,
अब उतार दो झूठ का चोंगा।
हररोज सोचता हूं और करता हूं प्रण,
हररोज होती है वादाखिलाफी,
हररोज कुंठित जिंदगी,
गम नहीं कि कुछ नहीं है मेरे पास,
जो सबकुछ मिल जाए तो भी,
क्या खुश हो पाऊंगा।
प्रण लेता हूं अपनी बीमार आदतों से मुक्ति का,
प्राणघातक बनेगा किसी दिन यह प्रण मेरा।
हररोज सोचता हूं और करता हूं प्रण,
ReplyDeleteहररोज होती है वादाखिलाफी,
हररोज कुंठित जिंदगी,
गम नहीं कि कुछ नहीं है मेरे पास,
जो सबकुछ मिल जाए तो भी,
क्या खुश हो पाऊंगा।
प्रण लेता हूं अपनी बीमार आदतों से मुक्ति का,
प्राणघातक बनेगा किसी दिन यह प्रण मेरा।
bahut khub
shekhar kumawta
http://kavyawani.blogspot.com/
प्राणघातक बनेगा किसी दिन यह प्रण मेरा।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
बहुत सुन्दर
हररोज सोचता हूं और करता हूं प्रण,
ReplyDeleteहररोज होती है वादाखिलाफी,
bahut khoob likhte rahiye...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/