भारत में जब भी दलितों की चर्चा होती है, तो उनसे जुड़ी घटनाएं-दुर्घनाएं ही हमारे सामने आती है। दलित उत्थान का जिक्र जब हम करते हैं तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का ही चेहरा हमारे सामने आता है। खुद को दलित प्रतिमान के तौर पर पेश करने से वह भी बाज नहीं आती हैं। पर वहीं दूसरी तरफ हरियाणा के जाट समुदाय और दलितों की लड़ाई में जिंदा जलाई गई उस विक्लांग लड़की भी चेहरा नजर के सामने घूमने लगता है, जिसे जिंदा जला दिया गया। कहानी हरियाणा के हिसार जिल की है। एक मामूली सी बात ने इतना तूल पकड़ लिया कि लोगों ने राई का पहाड़ और रेत से महल बना लिए। फिर क्या था रेत का महल कब तक टिकता। नतीजतन हिंसा की वारदात हुई कई दलितो के घर फऊंके गए। दो दलित इस अगजनी की घटना में मारे गए। इसके बाद दलितों में खौफ का माहौल इस कदर समा गया कि उन्होंने इलाके से परिवार समेत पलायन करना ही बेहतर समझा। हालात यहां तक हैं कि पुलिस प्रहरी बनी हुई है। फिर भी दलित खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहे हैं। इस तरह के कई वारदात अतीत में भी हो चुके हैं। दलित महिलाओं को दुत्कारने वाले समाज के उच्च वर्ग के लोग उनकी अस्मत लूटते हैं। यूं तो आ जिंदगी में उन्हें इन दलितो से छुआछूत नजर आती है। पर इनकी बहन-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ करते समय इन्हें वह सबकुछ नजर नहीं आता। यह समाज के उच्च वर्ग का दोगलापन और पाखंडी चेहरा नहीं तो और क्या है। यह एक ऐसा क्रूर सच है कि जिसे छिपाया जाता है कि दलितो की हालत पहले की अपेक्षा सुधरी है। पर कहीं सुधरी वह नजर नहीं आती। इससे तो यही लगता है कि संविधान और कानून जो भी कहे, पर कानून का ठेका तो समाज का प्रभुत्व वर्ग के ही जिम्मे मालूम पड़ता है। दलित हजारों सालों से पीड़ित हैं, शोषण के शिकार हैं और आज भी हो रहे हैं। ब्राह्मणवादी विचारधारा ने दलितों को दबा कर रखा है और रखना चाहता है। इसी मानसिकता के लोग उस वक्त भी विरोध करते हैं, जब इनको समान अधिकार के नाम पर आरक्षण देने की बात उठती है। हाल में कहीं एक टिप्पणी पढ़ी थी, जिसमें कहा गया था कि लोगों को मायावती की मूर्तियां दिखती हैं, पर कानूनी तरीके से सत्ता तक पहुंचने का का चमत्कार नहीं दिखता है। यदि पेड़ काट कर बनाया गया अंबेडकर पार्क कॉनक्रीट जंगल है तो भला अक्षरधाम मंदिर क्या है?
बहुत बढ़िया पोस्ट
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