हादसे वाली ट्रेन ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस से दो नन्हीं जुड़वां बच्चियां भी अपने अम्मी-अब्बू के साथ मुंबई जा रही थीं। शिरिन और शरमिन। उन्हें शायद यह भी पता नहीं था, माओवादी कौन होते हैं और न ही यह कि नक्सलियों न उनके ट्रेन को क्यों निशाना बनाया? शिरिन और शरिमन की यह पहली छुट्टियां थी। उस रात आंखों में मुंबई देखने का सुनहरा सपना लिए दोनों बहनें एक-दूसरे को गले लगाकर सोई थीं। और, इसी तरह उन्होंने दुनिया को भी अलविदा बोला। शुक्रवार सुबह जब सीआरपीएफ के कठोर दिल जवानों ने जब शिरिन-शरमिन को एस-4 डिब्बे से बाहर निकाला तो उनकी आंखों से भी आंसू छलक पड़े। उनके माता-पिता सैय्यद जावेद आलम-साबिया स्कूल टीचर थे। अपनी जुड़वा बेटियों को सात दिनों की खुशी देने के लिए इन्होंने वर्षों तक इंतजार किया था। वह भी इस हादसे में मौत के शिकार हो गए। बचाव दल ने पहले जावेद और साबिया शव ही बाहर निकाला था। फिर अचानक उनकी नजर छोटी-छोटी अंगुलियों, गाल और गहरे भूरे रंग से गूंथी बालों पर पड़ी। सीआरपीएफ के बचाव अभियान ने तेजी पकड़ ली, लेकिन उनका यह पहला बचाव कार्य जल्द ही मातम में बदल गया। शिरिन और शरमिन को एस-4 से बाहर निकाला तो दोनों बहनें उस कुचले हुए बर्थ पर पड़ी हुई थीं। एक-दूसरे को जोर से पकड़े हुए थीं, एक का सिर दूसरे के सीने में धंसा था। शिरिन और शरमिन एक जैसी ही फ्रॉक पहने हुए थीं। एक के फ्रॉक का रंग हरा तो दूसरे का पीला था। ऐसा लगता था, मानों दोनों अभी भी सोई हैं। पर...उनके चेहरे पर खून का थक्का जमा था। दोनों बहनों को एक-दूसरे से अलग करने में जवानों को काफी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ी। मानों वे किसी दो गुथ्थम-गुत्थे शव को अलग नहीं, बल्कि दो बहनों को हमेशा के लिए एक-दूसरे जुदा कर रहे हों। ट्रेन पर चढ़ने से पहले, शिरिन-शरमिन की अम्मी साबिया बेहद खुश और उत्साहित नजर आ रही थी। वह खुश थी कि उनकी बेटियां मुबंई देखेगी। वह ट्रेन के सफर के दौरान कई चीजों को देख सकेगी, लेकिन उनका सफर चंद घंटों में ही हमेशा के लिए खत्म हो गया। भला किस्मत किसी के साथ इतना क्रूर कैसे हो सकता है? शिरिन और शरमिन का क्या कसूर था? वे तो दो नन्नी परियां थीं। जिन चीजों से दूर-दूर तक वास्ता नहीं था, उसने शिरिन-शरमिन और उनकी अम्मी-अब्बू से छीन लिया।
नक्सलियों ने छिनी शिरिन-शरमिन की खुशियां
हादसे वाली ट्रेन ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस से दो नन्हीं जुड़वां बच्चियां भी अपने अम्मी-अब्बू के साथ मुंबई जा रही थीं। शिरिन और शरमिन। उन्हें शायद यह भी पता नहीं था, माओवादी कौन होते हैं और न ही यह कि नक्सलियों न उनके ट्रेन को क्यों निशाना बनाया? शिरिन और शरिमन की यह पहली छुट्टियां थी। उस रात आंखों में मुंबई देखने का सुनहरा सपना लिए दोनों बहनें एक-दूसरे को गले लगाकर सोई थीं। और, इसी तरह उन्होंने दुनिया को भी अलविदा बोला। शुक्रवार सुबह जब सीआरपीएफ के कठोर दिल जवानों ने जब शिरिन-शरमिन को एस-4 डिब्बे से बाहर निकाला तो उनकी आंखों से भी आंसू छलक पड़े। उनके माता-पिता सैय्यद जावेद आलम-साबिया स्कूल टीचर थे। अपनी जुड़वा बेटियों को सात दिनों की खुशी देने के लिए इन्होंने वर्षों तक इंतजार किया था। वह भी इस हादसे में मौत के शिकार हो गए। बचाव दल ने पहले जावेद और साबिया शव ही बाहर निकाला था। फिर अचानक उनकी नजर छोटी-छोटी अंगुलियों, गाल और गहरे भूरे रंग से गूंथी बालों पर पड़ी। सीआरपीएफ के बचाव अभियान ने तेजी पकड़ ली, लेकिन उनका यह पहला बचाव कार्य जल्द ही मातम में बदल गया। शिरिन और शरमिन को एस-4 से बाहर निकाला तो दोनों बहनें उस कुचले हुए बर्थ पर पड़ी हुई थीं। एक-दूसरे को जोर से पकड़े हुए थीं, एक का सिर दूसरे के सीने में धंसा था। शिरिन और शरमिन एक जैसी ही फ्रॉक पहने हुए थीं। एक के फ्रॉक का रंग हरा तो दूसरे का पीला था। ऐसा लगता था, मानों दोनों अभी भी सोई हैं। पर...उनके चेहरे पर खून का थक्का जमा था। दोनों बहनों को एक-दूसरे से अलग करने में जवानों को काफी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ी। मानों वे किसी दो गुथ्थम-गुत्थे शव को अलग नहीं, बल्कि दो बहनों को हमेशा के लिए एक-दूसरे जुदा कर रहे हों। ट्रेन पर चढ़ने से पहले, शिरिन-शरमिन की अम्मी साबिया बेहद खुश और उत्साहित नजर आ रही थी। वह खुश थी कि उनकी बेटियां मुबंई देखेगी। वह ट्रेन के सफर के दौरान कई चीजों को देख सकेगी, लेकिन उनका सफर चंद घंटों में ही हमेशा के लिए खत्म हो गया। भला किस्मत किसी के साथ इतना क्रूर कैसे हो सकता है? शिरिन और शरमिन का क्या कसूर था? वे तो दो नन्नी परियां थीं। जिन चीजों से दूर-दूर तक वास्ता नहीं था, उसने शिरिन-शरमिन और उनकी अम्मी-अब्बू से छीन लिया।
कांग्रेस और आज़ादी के फ़साने
भारतीय इतिहास में मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों का नाम सिक्के के दो पहलू की तरह है। आजादी की लड़ाई में दोनों कई मोर्चों पर साथ रहे। कई मोर्चों पर बिल्कुल विपरीत। लीग को कांग्रेस से शिकायत थी कि वह उसे अहम ओहदे और सत्ता में भागीदारी देने के लिए तैयार नहीं है। कांग्रेस का आरोप से मुकरना और कहना, वह गलत मांग उठा रहा है। यह कहना कि कांग्रेस में जो भी लोग पदों पर काबिज हैं, वह जनतांत्रिक तरीके से आए हैं। यह बात लीग हजम नहीं कर पाया। बात सही भी थी। आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कांग्रेस में उस वक्त भी सबकुछ ठीक नहीं चल रहा था, जैसा कि आज भी नहीं चल रहा है। बंकिम चंद्र चटर्जी की रचना ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगीत का दर्जा हासिल है। उन्होंने उस वक्त कहा था, कांग्रेस के लोग पदों के भूखे हैं। क्या यह बात आज भी सही नहीं है? खैर, भारतीय इतिहास में 1857 की क्रांति को इतिहासकार कई नजरिए से देखते हैं। कुछ के मुतिबक, यह सैनिक विद्रोह है तो टी आर होम्स जैसे विद्वानों ने इसे सभ्यता और बर्बरता का संघर्ष बताया है। इस क्रांति को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम वीर सावरकर ने दिया। वही वीर सावरकर जिन्होंने अभिनव भारत की बुनियाद रखी थी। अभिनव भारत, जिसका नाम आजकल हिंदू आतंकवाद को पनाह देने वाले संगठन के तौर पर लिया जाने लगा है। सावरकर की मूर्ति की स्थापना के नाम पर ही कांग्रेसी मंत्री मणिशंकर अय्यर भिड़ पड़े थे। शायद उनके हिसाब से भारत गांधी खानदान की विरासत है। हर जगह उनका ही नाम होना चाहिए। गांधी से मतलब महात्मा गांधी से नहीं, नेहरू परिवार से है। इसे भी छोड़िए। हां तो, अभिनव भारत उसी साल बना जिस वर्ष मुस्लिम लीग अस्तित्व में आया यानी 1906 में। यहां सबसे अहम सवाल यह उठता है कि जब पूरा देश कांग्रेस के पीछे आंख मूंदे भाग रहा था, तो भला मुस्लिम लीग जैसे संगठनों को बनाने की लोगों ने क्यों ठानी? क्योंकि इन संगठनों के संस्थापकों का ताल्लुक किसी न किसी स्तर पर शुरुआती समय में कांग्रेस से संबंध रहा है। फिर कांग्रेस से अलग होने का फैसला क्यों? कुछ जानकारों की मानें तो आज़ादी की लडाई गांधीजी के नेतृत्व में लड़ी जा रही थी, पर नाम कांग्रेस के शीर्ष पदों पर काबिज लोगों का भी हो रहा था। इससे आपत्ति किसी को नहीं हो सकती। पर कुछ ऐसे लोग भी थे जों बगैर कुछ किए सबकुछ हासिल कर रहे थे। वहीं कुछ ऐसे भी लोग थे, जो सबकुछ कुर्बान करने के बावजूद आजादी की लड़ाई के परिदृश्य में कहीं नजर नहीं आ रहे थे। यदि मुस्लिम लीग जैसे संगठनों के इतिहास पर नजर डालें तो अपनी उपेक्षा से आजिज आकर इनके लोगों ने अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी। जैसा कि ये लोग कहते आ रहे थे, हमें हमारी उपयोगिता साबित करनी पड़ेगी। नतीजतन इन्होंने कांग्रेस के जवाब में मुस्लिम लीग बनाई। ऐसे में बंकिम चंद्र की बात सौ फीसदी सही साबित होती है।
बांग्लादेश बनने की त्रासद कहानी
-हामिद मीर, कार्यकारी संपादक, जीओ टीवी (पाकिस्तान)।
26 मार्च और पाकिस्तान
पाकिस्तान के मशहूर टीवी पत्रकार हामिद मीर के मुतिबक, मार्च 1971 में बांग्लादेश में नरसंहार की वारदात को अंजाम देने की वजह से पाकिस्तान सरकार को बांग्लादेश की आवाम से माफी मांगनी चाहिए। 26 मार्च को माफी दिवस के तौर पर मनाया जाना चाहिए। मीर ने कहा कि पाकिस्तान में कुछ लोग मुझसे बेहद नफरत करते हैं। वह मुझसे नफरत करते हैं, क्योंकि दो बरस पहले, मैंने पाकिस्तानी 1971 में सेना की क्रूरता के लिए बांग्लादेशियों से इस्लामाबाद प्रेस क्लब में माफी मांगी थी। वे मुझसे नफरत करते हैं क्योंकि मैंने 1971 में बांग्लादेशियों के साथ सेना की निर्मम और क्रूर कार्रवाई के लिए पाकिस्तान सरकार से भी आधिकारिक तौर पर माफी मांगने की मांग की थी। वे कहते हैं कि मुझे कुछ मालूम नहीं है। वे कहते हैं, मैं एक पाक पाकिस्तानी नहीं है। उनके मुतिबक, 1971 में मैं बहुत छोटा था और मैं हक़ीक़तों से वाक़िफ नहीं हूं। हां, यह सच है कि तब मैं एक छोटा स्कूली बच्चा था, लेकिन मैंने उस नरसंहार के बारे में काफी कुछ सुना और पढ़ा है। भला मैं अपने अब्बा, जो एक प्रोफेसर थे और उन्होंने अक्टूबर 1971 में पंजाब विश्वविद्यालय के छात्रों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ ढाका गए थे, उनकी बातों को कैसे नकार सकता हूं? मेरे अब्बा लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के शिक्षक थे। विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनसे छात्रों के प्रतिनिधिमंडल के साथ तुर्की जाने की तैयारी करने को कहा था, लेकिन उन्होंने अपनी इच्छा के मुताबिक लड़कों को ढाका ले गए। वे जानना चाहेत थे कि आखिर ढाका में क्या चल रहा था। मुझे अब भी याद है, ढाका से लौटने के बाद वह कई दिनों तक रोए थे। उन्होंने हमें उस खूनी वारदात की कहानियां बताई थीं। वे कहानियां मेरी मां की कहानी से बिल्कुल मिलती जुलती थी। 1947 में जम्मू से पाकिस्तान में माइग्रेशन के दौरान मेरी मां ने अपने पूरे परिवार को गंवा दिया। उनकी आंखों के सामने हिंदू और सिखों ने उनके भाइयों की हत्या कर दी। उनकी मां का अपहरण कर लिया गया। अपने संबंधियों के शवों के नीचे छिपकर उन्होंने अपनी जान बचाई। मुझे याद है कि मेरी अम्मी खूब रोई थीं, जब अब्बा ने उन्हें बताया कि पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों ने कई बंगाली महिलाओं के साथ बलात्कार किया। मेरी अम्मी ने कहा था, हमने अपने सम्मान के लिए कुर्बानियां दीं, लेकिन क्यों हम एक-दूसरे की इज्जत से खिलवाड़ कर रहे हैं? मेरे अब्बा हमेशा कहा करते थे कि बंगालियों ने पाकिस्तान बनाया और पंजाबियों ने उसे तोड़ा। एकबार उन्होंने कहा कि 23 मार्च को हम पाकिस्तान दिवस के तौर मनाते हैं, 26 मार्च को माफी दिवस हना चाहिए और 16 दिसंबर जिम्मेदारी दिवस के तौर पर मनाया जाना चाहिए। जब 1987 में, मैं पत्रकार बना तो अपने मैंने अपने मरहूम अब्बा के विचारों को समझना शुरू किया।
जब मैंने पहली बार हमूदुर रहमान आयोग की रिपोर्ट पढ़ी तो मुझे शर्मिंदगी का एहसास हुआ। इस पाकिस्तानी की आयोग की रिपोर्ट में बांग्लादेशियों की हत्या और बलात्कार की बात कबूली गई थी। पर इस कागजी सबूत के बावजूद पाकिस्तान में अब भी कई लोग हक़ीक़त को झुठलाते रहे हैं और वे स्टेट ऑफ डिनायल में जी रहे हैं। वे कहते हैं कि शेख मुजीब-उर-रहमान एक देशद्रोही थे, जिन्होंने भारत की मदद से मुक्तिवाहिनी सेना बनाई ओर कई निर्दोष पंजाबियों और बिहारियों को मौत के घाट उतारा। मैं कहता हूं शेख मुजीब पाकिस्तान मूवमेंट के कार्यकर्ता थे। 1966 तक वह मुहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना के समर्थक थे। उन्होंने महज कुछ प्रांतीय स्वायत्ता मांगी थी, लेकिन सैन्य शासकों ने उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया। दरअसल, ये सैन्य शासक ही देसद्रोही थे, क्योंकि इन सैन्य शासकों की सेना ने उनकी अपनी मां और बहन का बलात्कार किया। कुछ पाकिस्तानी कहते हैं कि मैं झूठा और पाकिस्तान का दुश्मन हूं। भला मैं पाकिस्तान का दुश्मन का कैसे हो सकता हूं? मेपी मां ने पाकिस्तान के लिए ही अपने पूरे परिवार की कुर्बानी दी। मेरी समस्या यह है कि मैं हक़ीक़त को नहीं झुठला सकता। उसे नहीं नकार सकता।
मीर का कबूलनामा और भारत-पाकिस्तान का मीडिया
हामिद मीर पाकिस्तानी हैं। वह एक पत्रकार हैं। उनका मुल्क या मजहब भले ही क्या है हमें उससे कोई मतलब नहीं। पर पत्रकारिता के पेशे में वह दुनिया के कई धुरंधर और कई दिग्गजों से कहीं बेहतर हैं। पूरे दक्षिण एशिया में उनसे बेहतरीन टीवी पत्रकार का मिलना मुश्किल है। आज भारत में ही कई ऐसे नामी-गिरामी और नामचीन पत्रकार हैं, जिनकी ताकत के आगे सत्ता भी नतमस्तक है। लेकिन इन सबमें वह बात नहीं जो हामिद मीर में है। हमारे भारतीय पत्रकार अपनी उठा-पटक में लगे रहते हैं। अब पत्रकारिता की दुनिया की यह कड़वी हकीकत हो चुकी है। पर मीच में सच को कबूलने का माद्दा है। उन्होंने 26 मार्च के अवसर पर एक लेख लिखा। 26 मार्च क महत्व क्या है? क्यों पाकिस्तान को इसे माफी दिवस के तौर पर मनाना चाहिए? आज पकिस्तान में सेना की अहमियत को कोई नहीं झूठला सकता। 1971 के जंग में बांग्लादेश में उनकी वहशी हरकत और क्रूरता के बारे में आज के दौर में मीर ने ही कुव्वत जुटाई है। आज जबकि भारत में पत्रकारिता सानिया मिर्जा की शादी होने से पहले तोड़ने में लगी थी, आम आदमी की बात करने के बजाय उसे बेचने के बात कर रही है, देश के दो बड़े मीडिया दिग्गज पर एक मंत्री को संचार मंत्रालय दिलाने के लिए लॉबी करने का आरोप लग रहा है, हम भूत-प्रेत से आगे निकल नहीं पा रहे हैं, सरकार से साठगांठ करके उसके पक्ष में खबरे दिखा रहे हैं, आम आदमी से जुड़ी, उसके हितों की खबरों को भांड़ में रखकर पत्रकारिता के पेशे को ठेंगा दिखा रहे हैं, ऐसे में हमें पाकिस्तान के इस पत्रकार से सीखने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि भारत में ऐसी सच्ची पत्रकारिता नहीं है। है, लेकिन जब वह सच्चाई का साथ देते हैं। आम आदमी की बात करते हैं तो सरकार की ओर से उन्हें सजा झेलनी पड़ती है, वह भी बेवजह। जब बीजेपी सत्ता में थी, तो तहलका के स्टिंग ने सत्ता की चूल हिला कर रख दी थी। फिर उसके संपादक का जो हाल इन भाजपाइयों ने किया, वह न याद किया जाए तो ही बेहतर। यही आजकल पाकिस्तान में भी मीर शायद को सच बोलने की सजा दी जा रही है। उन्हें एक टेप के आधार पर तालिबान का समर्थक बताया जा रहा है। पर यह सरकार की कार्रवाई की अपेक्षा बदले की कार्रवाई ज्यादा नजर आ रही है। फिलहाल मैं आपको हामिद मीर के उस लेख से वाकिफ करना चाहता हूं, जिसे उन्होंने 26 मार्च के सिलसिले में लिखा। अपना सच कबूला। पाकिस्तान का सच कबूला। अंग्रेजी का यह लेख खुद मैंने अनुवाद किया, सो थोड़ी-बहुत भाषाई छूट मैंने लेने की कोशिश की। उनसे अनुमति नहीं ली, फिर भी उनका साभार अदा करता हूं। अगले पोस्ट में उनकी बातों को रखूँगा।
लोकतंत्र की शानदार जिन्दगी
रघुवीर सहाय की कविताओं से उधार लेकर कुछ पंक्तियां कहूं तो,
आज हम
बात कम, काम ज्यादा करना चाहते हैं
इसी क्षण
मारना या मरना चाहते हैं
और एक बहुत बड़ी आकांक्षा से डरना चाहते हैं
ज़िलाधीशों से नहीं।
कुछ भी लिखने से पहले हंसता और निराश
होता हूं मैं
कि जो लिखूंगा वैसा नहीं दिखूंगा।
बहुत दिन हुए तब मैंने कहा था लिखूंगा नहीं
किसी के आदेश से।
एक मेरी मुश्किल है जनता
जिससे मुझे नफरत है सच्ची और निस्संग
जिस पर कि मेरा क्रोध बार-बार न्योछावर होता है।
कौन है आम आदमी का पैसाखोर
आजकल हो क्या रहा है तो बस राजनीति के नाम पर तमाशा। दरअसल हकीकत है कि आजकल सरकार का खर्च दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। इसलिए वह खुद पर खर्च के पैसा जुटाने की कवायद के तहत कभी टैक्स बढ़ाती है तो कभी चीजों की कीमत बढ़ाती है। उन्हीं चीजों की कीमत बढ़ाती है, जिसका असर देश के बड़े तबके पर पड़ता है। हाल में झारखंड में मधु कोड़ा 50, 000 करोड़ रुपया निगल गया, जांच जारी है। है किसी सरकार या नेता या जांच अधिकारी की मजाल जनता का यह पैसा वापस उसकी झोली में लौटा सके नहीं। ठीक इसी तरह बरसों पहले लालू यादव जानवरों के चारा के नाम हजारों करोड़ डकार गए। बाद में उन्हें इसके इनाम के तौर पर रेल मंत्री बनाया गया। अब कांग्रेस समर्थन के नाम पर लालू को ब्लैक मेल करती है। आईपीएल में बेइंतरा ब्लैक पैसा लगा है, पर किसी की मजाल की उसे उसके सही हकदार तक पहुंचा सके। नहीं। स्विस बैंक का किस्सा भूल ही जाइए। तमाम मलाईदार पदों पर नेता बैठे हैं, वहां खजाना खाली करके ही वह हटते हैं। जब हटते हैं तो दूसरे के लिए कुछ नहीं बचता। मार पड़ती है आम आदमी पर। कभी टैक्स बढ़ोतरी के तौर पर तो कभी महंगाई के नाम पर बस किराया, आटा-चावल-दाल-गेहूं की कीमत में वृद्धि के तौर पर। अब मेरी समस्या इन सामानों की कीमत में बढ़ोतरी से नहीं है। मेरा कहना है कि इसी अनुपात में सभी की सैलरी, इनकम का स्रोत और रोजगार भी तो बढ़ाइए। नहीं तो नक्सली कभी खत्म नहीं होंगे। चाहे सोनिया गांधी ही यह क्यों न कहे कि नक्सल प्रभावित वाले इलाकों तक विकास का न पहुंचना ही मूल समस्या है। पर वह यह कहने के अलावा कर क्या रही हैं। कुछ नहीं। मुझे कांग्रेस की वंशवादी परंपरा से भी कोई परेशानी नहीं है। परेशानी इस बात से है कि राहुल के पिता राजीव गांधी भी कहते थे कि आम आदमी तक एक रुपया में से पंद्रह पैसा भी नहीं पहुंचता है। आज राहुल गांधी भी वहीं बात कह रहे हैं कांग्रेस के इस युवराज ने तो वह पैसा और भी कम कर दिया। मैं कहता हूं यह पैसा आम आदमी तक पहुंचाने वाला कौन है, जो बीच में ही सारा पैसा गबन कर जा रहा है? और भला पैसा न पहुंचने की जानकारी इन शख्सियतों को है तो इन्हें यह भी पता होगा कि पहले कौन पैसा नहीं पहुंचाता था और आज भी जनता के उस पैसे को कौन अपने बाप की दौलत समझ रहा है। लेकिन उसकी बात भला ये लोग क्यों करने लगे। चार कुर्सियों वाली सरकार की एक टांग जो टूट जाएगी। किस्सा हाल ही का है। यूपी में कांग्रेस और मायावती की जंग जगजाहिर है। राहुल दलितों के घर ठहरकर मायावती को अक्सर चिढ़ाते रहते हैं. लेकिन जब पिछले दिनों संसद में उनकी समर्थन की जरूरत पड़ी तो कुछ दिनों पहले तक मायावती की मूर्तियों की आलोचना करने वाले उसे सही ठहराने लगे। मायावती की समर्थन के बगैर कांग्रेस की सरकार बचने वाली नहीं थी। यह सभी जानते हैं। पर हाल में मीडिया में देखा, राहुल जी कह रहे हैं, मायावती से कभी कोई करार नहीं हुआ और न कभी भविष्य में होगा। कहां तो राहुल से नई सोच और राजनीति की नई अवधारणा की अपेक्षा थी, और कहां वह भी पुराने ढर्रे पर चल पड़े। यह हाल कांग्रेस और राहुल के युवा बिग्रेड के सभी नेताओ की ही है। नवीन जिंदल खाप पंचायत के समर्थन में आ गए हैं। हत्यारी पंचायत के सामने दंडवत हो गए।
अमीरों की आमदनी की तरह बढ़ती मंगाई
महंगाई की मार झेल रही जनता के लिए एक और मुसीबत आने वाली है। हालात अब भारत में बगावती होने वाले हैं। यदि ऐसा नहीं है तो होना जरूर चाहिए। जिस तरह हररोज अमीर की आमदनी दिन दोगुना और रात चौगुनी बढ़ रही है, उसी तरह दाल-चावल-गेहूं-नमक-तेल की कीमत क्यों बढ़नी चाहिए। बिजली, बस किराया, ऑटो किराया गरीबों की aamdanee तरह कम क्यों नहीं होनी चाहिए। क्या दुनिया में सिर्फ हर चीज की बढ़ोतरी होती है। फिर देश के 77 फीसदी लोगों की आमदनी क्यों नहीं बढ़ रही है? जनवरी महीने में ही दिल्ली सरकार ने बसों का किराया दोगुना कर दिया। डीटीसी के घाटे की भरपाई के लिए। किराया बढ़ाने से मुनाफा तो नहीं हुआ, पहले से और अधिक घाटा बढ़ गया। एक फिर चार महीने बाद इन बसों समेत निजी बस वाले भी किराया बढ़ाने वाले हैं। वजह यह है कि दिल्ली में सीएनजी पर चलने वाली बसें और ऑटो की कीमत प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कमेटी ने बढ़ाने का फैसला लिया है। इसकी कीमत बढ़ाने से जनता पर सरकार की महंगाई का हंटर आम आदमी पर बरसने वाला है। भारत सरकार के ऊर्जा मंत्री सुशील शिंदे ने तो बिजली की कीमत एक रुपया प्रति यूनिट बढ़ाने की घोषणा भी कर दी है। सुशील शिंदे को सरकार का मंत्री इसलिए कहा क्योंकि वह आम जनता की नहीं सरकार के हितों को ध्यान रखकर यह फैसला लिया है। इन सबके के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो वह हम ही हैं। यानी भारत का आम आदमी। बेवकूफों की तरह सरकार के सभी फैसलों पर घोड़े की तरह हिनहिनाते रहते हैं। जरा सोचिए रिछले दिनों में कितने ऐसे फैसले लिए गए जो आम आदमी को राहत देने वाली रही हो। बात कर रहे हैं नक्सलियों के हमले की। उनका हमला जायज नहीं है। सौ फीसदी गलत है। लेकिन उनके मकसद के बारे में यही नहीं कह सकते। विकास के नाम पर हररोज दैनिक जरूरतों की कीमत बढ़ाई जाएगी तो क्या होगा। मैं यह ठोक कर कह सकता हूं कि नक्सलियों के बड़े मेता भले ही थोड़े बहुत साक्षर या पढ़े लिखे हों। लेकिन जो नक्सली लड़ाके का काम करते हैं वह दीन-हीन हैं और बंदूक चलाने के अलावा रोजी रोटी का कोई दूसरा हुनर उन्हें नहीं पता है।
मुलाकातों का इंतज़ार
जाने कहां बिछड़ गए वो दिन,
जब दिल में एक तमन्ना होती था,
किसी से मिलने को बेताब रहता था,
चंद पलों के दीदार से खुशियों की रौनक होती थी,
और होती थी हरएक बात उनकी,
बातें अब भी बाकी हैं,
मुलाकातों का इंतजार अब भी है,
पर ना अब वो हैं, ना ही वह वक्त।
उनकी यादें जब सताती है तो,
आंखों से आंसू नहीं बहता है,
कई बार सोचा, वह क्यों आती है यादों में,
जब प्यार नहीं है तो भूला क्यों नहीं देते,
पर हर बार भूलने की असफल कोशिश,
हरबार भूलकर उसी को याद करना,
यादों में उसकी धुंधली छवि,
लटों का धीरे से उठाकर पलकें झुकाना,
अब वो यादें गईं, वक्त के साथ मोहब्बत गई,
और साथ जीने की तमन्ना।
विकली ऑफ और अतिथि
मेरी छोटी-सी कहानी
जब भी मैं अपनी किसी कमजोरी पर काबू पाने की कोशिश में होता हूं तो अच्छा लगता है। दिन-ब-दिन गुजरने के बाद यह एहसास होता है कि चलो आज एक दिन और अपनी बुराई से दूर रहा। फिर यह सिलसिला लगभग महीने तक चलता है। पिछले 5 से 7 वर्षों से यह सिलसिला कायम है। शुरू के 10 से 15 दिन तक सबकुछ सही चलता है। पर हर 30 दिन के बाद मैं अपनी बुरी आदत से छुटकारा पाने का वादा तोड़ देता हूं। मैं मजबूर होता हूं ऐसा करने के लिए। लाख कोशिशें की, फिर भी उससे निजात नहीं मिल सका। अब फिर एक बार इसी जद्दोजहद में लगा हूं। पर समस्या यह है कि हर बार दृढ़ प्रतिज्ञ होने के बावजूद इस बार भी मुझे अपने मकसद में नाकामी हासिल होगी। अभी तक के अतीत को देखते हुए तो यही लगता है। पर मैं अपने विश्वास पर कायम हूं। कोशिश सौ फीसदी से अधिक होगी। दरअसल समस्या यह है कि कुछ दिनों तक जब मैं अपनी उस बुरी आदत से दूर रहता हूं तो मानसिक एकांतवास में चला जाता हूं। कुछ ऐसी यादें हैं, जो परेशान करने लगती है। फिर उससे से उबरने के लिए, खुद को कुठित जिंदगी में धकेलने के लिए उसका शिकार हो जाता हूं। इस तरह मुझे वह याद परेशान नहीं करती है। यानी एक आदत से छुटकारा के लिए दूसरी आदत का सहारा। मेरी यादें मुझे अच्छी लगती हैं। वह महज यादें न होकर किसी परिकथा से कम नहीं है. जिस तरह मां जब बचपन में परिकथा सुनाती थी तो परियों की कहानी अपनी लगती थी. खैर, एक बार फिर वहीं दौर मेरे साथ शुरू हो चुका है। तक़रीबन 15 दिनों से अपनी आदत से महरूम हूं, पर वह याद अब सताने लगी है। इतना परेशान करती है कि अंदर से छटपटाहट और बेचैनी का एहसास तोड़ देती है। लगता है कहीं कोई अपना नहीं। दुनिया में जिधर देखों इंसानों की शक्ल नजर आती है. पर कौन सी शक्ल मेरी है या मुझे अपनापन का एहसास दिलाने के लिए है, पता ही नहीं चलता। हालांकि यह कहानी सिर्फ मेरे लिए ही नहीं है। फिर भी लगता है क्या अजीब दुनिया है. सभी चले जा रहे हैं, भागे जा रहे हैं। पर पता नहीं किसे कहां जाना है। बस सब को आगे जाने है। पर मुझे अपनी चाल से चलना प्यारा है। लेकिन ऐसे में जमाने से कदमताल न करने का खामियाजा भी मुझे उठाना पड़ता है।
शादी भी नेशनल फेस्टिवल से कम नहीं
पाकिस्तानी मीडिया में हिन्दू
भारत में बमुश्किल ही नामचीन उर्दू अख़बारों के बारे में किसी को जानकारी होगी। मुझे भी बहुत कम उर्दू अखबारों के नाम मालूम हैं। आज के समय में यह सौ फीसदी सच है, यदि किसी को अपनी आवाज़ उठानी हो तो उसे अपना माध्यम चाहिए। शायद यही वजह है कि वक़्त-वक़्त पर मुसलमान अपने लिए अलग राजनीतिक दल और मीडिया की मांग करते हैं। ताकि सत्ता के शीर्ष तक उनकी बात भी पहुँच सके। ताकि वह अपनी बात ज़ोरदार तरीके से सभी के सामने रख सकें।
हम सभी जानते हैं, पकिस्तान एक मज़हबी मुल्क है। एक इस्लामिक मुल्क है। वहा हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों से हमारे मीडिया की खबरें अटी-पड़ी होती है, लेकिन हालात बिलकुल ऐसे भी नहीं। ज़रा पाकिस्तान की यह खबर पढ़िए और खुद ही फैसला कीजिये। पाकिस्तान के सिंध से हिंदू समुदाय के लिए एक समाचार पत्र निकलता है। सिंध के हैदाराबाद से निकलने वाले इस साप्ताहिक समाचार पत्र का नाम 'संदेश' है। अख़बार के संपादक हरजी लाल जी हैं। हरजी लाल ने इसे शुरू किया तो बताया कि जब सिंध में कोई हिंदू लड़की का बलात्कार होता है तो सिंधी अख़बार खबरों के नाम पर महज खानापूर्ति खानापूरी करते हैं और उसे भूल जाते हैं। यह भी नहीं बताते कि गुनहगार पकड़ा गया या नहीं। वह कहते हैं, पिछले साल दिसंबर में कस्तूरी कोहली नामक एक लड़की का बलात्कार हुआ तो मीडिया में यह खबर तो थी लेकिन, अनमने ढंग से खबर छपी और मामला रफा-दफा। इसी तरह कुछ महीने पहले सिंध में ही जब एक हिंदू परिवार ने अपनी तीन बेटियों के साथ ख़ुदकुशी की तो मीडिया ने इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन संदेश ने इस ख़बर को बढ़ते अंधविश्वास के रुप में अच्छी खासी जगह दी. यह खबर भारतीय मीडिया में भी छाई रही यानी आपके पास माध्यम हो तो हरकोई आपकी बात सुनाने को मजबूर होता है। नहीं तो सभी आपको गूंगा समझते रहते हैं। रही बात पाकिस्तान की तो, यहाँ लगभग 20 लाख हिंदू हैं। इनमें 12 लाख से अधिक सिंध प्रांत में रहते हैं। इनकी समस्याएं भी गंभीर हैं। मुसलमान भी इन अखबारों को शक की नज़र से देखते हैं। हिन्दू समुदाय के लिए शुरू इस अखबार के लोग कहते हैं कि जब से पाकिस्तान बना है कभी कोई दलित हिंदू देश के खिलाफ़ किसी कार्रवाई में शामिल नहीं रहा है। फिर भी हिंदुओं को ग़द्दार समझा जाता है। बाबरी मस्जिद भारत में गिरती है पर इसका मलबा पाकिस्तानी हिंदुओं पर गिरता है। इस तरह यह अखबार सही मायनों में पत्रकारिता का कम कर रही है। वह महज मजहब या किसी की बदनीयती को आधार बनाकर नहीं, बल्कि मुद्दों के आधार पर अपने काम में मशगूल है।
चलते-चलते यही कि समाचार पत्र आर्थिक ज़रूरतों के अभाव में अपनी आखिरी सांसे गिन रहा है।
पाकिस्तान के ज़ख्मों की कहानी
दिल उदास और लब खामोश
दिल उदास है, लब खामोश
जिंदगी में कहीं उम्मीद अभी बाकी है,
अब अपनी गुस्ताखियों पर भी ऐतराज़ होता है,
छोड़कर सभी मुझे बेगाना समझने लगे,
ज़रा कोई बताये तो हमारी खता,
कि बरसों चाहने का सिला क्या होता है,
क्या होता है जब उनकी याद आती है
और मन मसोसकर रह जाता है
छोड़कर दुनिया खुद को भुला नहीं सकता,
शायद ऐसी बदनामी से जीना उनकों नहीं पसंद,
हर पल गिरतें है पत्तें साख से,
मझदार में छोड़ने के लिए।
हर बार अधूरा रहता है सफ़र जिंदगी का,
कभी तो सहारा मिले उस कश्ती को,
जिसे हमेशा तलाश है किनारे की।
बॉलीवुड की जुलिया रॉबर्ट्स
प्रीति जिंटा : बॉलीवुड की जुलिया रॉबर्ट्स
भारत भ्रष्ट महान
भारत भ्रष्ट महान- भ्रष्टाचार भी एक कला है।
इस लेख को मैं परसाई जी की रचना को आधार बनाकर और उससे उधार ले कर लिख रहा हूँ,
निरुपमा का ट्रायल ना हो
मुबारक हो तुम्हारा समाज- निरुपमा
जीने से पहले मरना
कितनी बार मरता है,
हर पल जीने से पहले,
वह कई मर्तबा मरता है
मरने की सोचना आज नियति है,
जीना बस एक झूठा सपना है,
हर सपना रात के अँधेरे में,
एक नयी उम्मीद जगाता है,
सुबह सपना भी टूट जाता है,
टूटना सपने की नियति है,
ठीक उसी तरह जैसे,
जीने के बीच मरना नियति है।
इसी उधेड़बुन में हमारी जिंदगी,
कहीं पीछे छूट जाती है।