निरुपमा की मौत हमारे सभ्य समाज के चहरे पर कालिख पोत गया है। वह एक पत्रकार थी। जिसका मकसद होता है, दुनिया और समाज की बुराइयों को मिटाना। खुद फैसले लेकर निष्पक्ष रहना। पर उसने एक फैसला किया और वही उसकी मौत की वजह बन गयी। हर रोज हमारे देश में ऐसी कई निरुपमा मौत की नींद सो रही है। पर उसे जगाने वाला कोई नहीं है। चंद पलों के लिए हम जागते भी हैं तो फिर कुम्भकर्ण की नींद में तब तक सो जाते हैं जब तक कोई दूसरी निरुपमा की मौत की खबर हमारे सामने नहीं आती। हम आज चाँद पर पहुँचाने की बात करते हैं। महिलों के लिए अन्तराष्ट्रीय दिवस मानते हैं। महिलाओं की तरक्की की बात करते हैं। पर जब बात उनके घर की बहू बेटिओं की आती है तो किसी पाषाणकाल के आदिमानव से कम नजर नहीं आते। निरुपमा का परिवार भी पढ़ा-लिखा था। उसके माता-पिटा जानते थे किबेटी को परदेस पढने के लिए भेज रहे हैं। जमाना बदल रहा है। लड़कों कि तरह उनकी बेटी भी अपने लिए कुछ फैसले ले सकती है। हालाँकि मुझे नहीं मालूम कि निरुपमा कि मौत कैसे हुई। मेरे पास इसके पक्का सबूत नहीं हैं। पर सवाल उठ रहे हैं, उससे शक कि सुई उसके माता-पिता पर ही जा रहा है। सुना है उनको हिरासत में भी लिया गया है। पर मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि यदि निरुपमा कि हत्या उसके माता-पिता ने कि है तो क्या यही कोशिश वह अपने बेटे के लिए करते। जब निरुपमा का भाई अपनी पसंद से कोई लड़की चुनता। उससे शादी करने का फैसला करता तो क्या उसका हश्र भी निरुपमा कि तरह होता। मुझे लगता है यह सवाल जितना मेरे लिए अहम् है उतना ही आप सभी के लिए भी। मैं सौ फीसदी विश्वास से कह सकता हूँ कि यदि कोई लड़का आज शादी करके भी अपने माता-पिता के पास जाये तो उसके माता-पिता थोड़ी देर के लिए भले ही गुस्सा करें पर ऐसी हिमाकत वह अपने सपने में भी करने कि नहीं सोच सकते। लेकिन निरुपमा ने तो बाकायदा अपने माता-पिता का मान रखते हुए उनसे इज़ाज़त लेने गयी थी। वह नहीं चाहती थी कि उसके किसी फैसले में उसके माता-पिता सहभागी न बनें। पर यह सिला मिलेगा। इस बात को सोचने के लिए भी आज इस दुनिया में मौजूद नहीं है। हम सोच सकते हैं हमारा समाज कितना तरक्की कर रहा है। हम कितना विकसित हो रहें हैं। मैं निरुपमा को नहीं जनता। फिर भी शायद इसलिए लिख रहा हूँ कहीं न कहीं मेरा नाता इस समाज से है। निरुपमा भी इसी समाज की थी। इस तरह सम्बन्ध तो बनता ही है। पर मेरे ही समाज ने, उसकी अंध परम्परों ने उसकी जान ले ली। इसका मुझे मलाल नहीं, न ही अफसोस है और न ही मैं अफ़सोस जताऊंगा। मेरा मानना है इस मातम को कबूलने से कुछ नहीं होने वाला। बस मैं यही सोचता हूँ आज समाज ने अपनी बेटी की आहुति दी है। उसका बलिदान लिया है। उसके रक्त से अपने दमन को लाल किया। खुश रहो समाज के रखवालों। यदि तुम्हे अपने अस्तित्व और सम्मान की यही कीमत चाहिए तो मुबारक हो तुम्हे यह तुमहरा सभ्य समाज।
स्त्री पुरुष के लिए न केवल भारतीय समाज के मापदंड अलग होते हैं अपितु आम भारतीय माता पिता के भी अपने बेटे बेटियों के लिए अलग मापदंड होते हैं। जहाँ पुत्र प्रेम बिना शर्त होता है वहीं पुत्री प्रेम सशर्त होता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती