मेरी छोटी-सी कहानी

जब भी मैं अपनी किसी कमजोरी पर काबू पाने की कोशिश में होता हूं तो अच्छा लगता है। दिन-ब-दिन गुजरने के बाद यह एहसास होता है कि चलो आज एक दिन और अपनी बुराई से दूर रहा। फिर यह सिलसिला लगभग महीने तक चलता है। पिछले 5 से 7 वर्षों से यह सिलसिला कायम है। शुरू के 10 से 15 दिन तक सबकुछ सही चलता है। पर हर 30 दिन के बाद मैं अपनी बुरी आदत से छुटकारा पाने का वादा तोड़ देता हूं। मैं मजबूर होता हूं ऐसा करने के लिए। लाख कोशिशें की, फिर भी उससे निजात नहीं मिल सका। अब फिर एक बार इसी जद्दोजहद में लगा हूं। पर समस्या यह है कि हर बार दृढ़ प्रतिज्ञ होने के बावजूद इस बार भी मुझे अपने मकसद में नाकामी हासिल होगी। अभी तक के अतीत को देखते हुए तो यही लगता है। पर मैं अपने विश्वास पर कायम हूं। कोशिश सौ फीसदी से अधिक होगी। दरअसल समस्या यह है कि कुछ दिनों तक जब मैं अपनी उस बुरी आदत से दूर रहता हूं तो मानसिक एकांतवास में चला जाता हूं। कुछ ऐसी यादें हैं, जो परेशान करने लगती है। फिर उससे से उबरने के लिए, खुद को कुठित जिंदगी में धकेलने के लिए उसका शिकार हो जाता हूं। इस तरह मुझे वह याद परेशान नहीं करती है। यानी एक आदत से छुटकारा के लिए दूसरी आदत का सहारा। मेरी यादें मुझे अच्छी लगती हैं। वह महज यादें न होकर किसी परिकथा से कम नहीं है. जिस तरह मां जब बचपन में परिकथा सुनाती थी तो परियों की कहानी अपनी लगती थी. खैर, एक बार फिर वहीं दौर मेरे साथ शुरू हो चुका है। तक़रीबन 15 दिनों से अपनी आदत से महरूम हूं, पर वह याद अब सताने लगी है। इतना परेशान करती है कि अंदर से छटपटाहट और बेचैनी का एहसास तोड़ देती है। लगता है कहीं कोई अपना नहीं। दुनिया में जिधर देखों इंसानों की शक्ल नजर आती है. पर कौन सी शक्ल मेरी है या मुझे अपनापन का एहसास दिलाने के लिए है, पता ही नहीं चलता। हालांकि यह कहानी सिर्फ मेरे लिए ही नहीं है। फिर भी लगता है क्या अजीब दुनिया है. सभी चले जा रहे हैं, भागे जा रहे हैं। पर पता नहीं किसे कहां जाना है। बस सब को आगे जाने है। पर मुझे अपनी चाल से चलना प्यारा है। लेकिन ऐसे में जमाने से कदमताल न करने का खामियाजा भी मुझे उठाना पड़ता है।

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