लॉकडाउन में भूख से मरते ग़रीब, लेकिन गिद्धभोज में जुटे हैं सत्ता के सरमायेदार


दिल्ली-जयपुर नेशनल हाइवे पर एक मजदूर भूख की वजह से मरे हुए कुत्ते का मांस खाने को मजबूर हो गया। ख़बर बस इतनी है। एक ऐसी ख़बर जिससे सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। गरीबों की आंखों के आंसू पोछने की बात कहने वाले नरेंद्र मोदी 6 साल से देश के प्रधानमंत्री हैं और उसी दिल्ली में रह रहे हैं, जहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर यह वाकया होता है।
देश की गरीबी दूर करने की बात कहने वाले भुखमरी तक हालात लेकर आ गए। लोकतंत्र को गाली देने वाले लोकतंत्र के मंदिर में बैठकर गिद्धभोज करने लगे। सरकारें बिल्कुल फेल हो चुकी हैं, कृपया यह तस्वीर कोई सरकारों तक पहुंचा दे। खुद को राजनीति का चाणक्य कहने वाले बस चुनावी जयचंद बन कर रह गए हैं। जब अपना घर यानी देश त्रासदी से घिरा है, तो उनकी खोजखबर भी नहीं है। चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता हासिल करना, फर्जी राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदू-मुसलमान की खाई पैदा करना ही चाणक्य नीति नहीं होती है। वक्त बुरा है...वक्त बदलेगा, लोग भी बदलेंगे...
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दिल्ली-जयपुर हाईवे पर भूख को बर्दाश्त न करने वाली रोंगटे खड़े करने वाली तस्वीर क्या सत्ता में काबिज अंधों को नहीं दिखती। यह तस्वीर बताती है कि कोरोना वायरस को लेकर सरकार की नीतियों ने आम इंसानों को क्या बना दिया है। इंसान एक मरे हुए कुत्ते को खाने को मजबूर है। आख़िर यह सरकार किसकी है। बस अमीरों और नेताओं की, जिनकी भूख इन ग़रीबों की भूख से अलग है। ग़रीबों की भूख कुछ खाने की है, तो उनकी कुछ पाने की। गरीबों की भूख को बस रोटी चाहिए, इन नेताओं की भूख पैसा और सत्ता की मांग करती है।
इस लॉकडाउन में भूख से मौतों की घटनाएं आम हो रही हैं और अब यह नया मामला भी सरकार को अगर सोचने पर मजबूर नहीं करती है, तो सोचिए हालात कहां तक बदल गए हैं। पहली बार लॉकडाउन लागू होने के बाद से ही देश भर में लोगों को काम मिलना बंद हो गया। गरीब दिहाड़ी मजदूरों पर सबसे ज्यादा मार पड़ी। इसकी एक मिसाल यह है। घटना 31 मार्च की बिहार के भोजपुर ज़िले के आरा की है। मुसहर समुदाय से आने वाले आठ वर्षीय राकेश की मौत 26 मार्च को हो गई थी। उनकी मां का कहना है कि लॉकडाउन के चलते उनके पति का मजदूरी का काम बंद था, जिससे 24 मार्च के बाद उनके घर खाना नहीं बना था। इसके बाद 17 अप्रैल को मध्य प्रदेश में एक बुजुर्ग की भूख से मौत की खबर आई। बुजुर्ग सड़क किनारे बैठकर लोगों से मांगकर खाता था। लॉकडाउन में सब बंद हुआ तो उन्हें खाना देने वाला भी नहीं रहा। सरकारें तो दावा करत रहेंगी कि सबका ख्याल रखा जा रहा है, लेकिन किस तरह रखा जा रहा है, वह भूख से होने वाली मौतें साफ बयां कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में एक 60 साल के प्रवासी कामगार की भूख से मौत हो गईयह शख्स तीन दिन पहले महाराष्ट्र से अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ यात्रा शुरू की थीपरिवार के सदस्यों का कहना था कि कई दिनों से उन्होंने खाना नहीं मिलने पर कुच नहीं खाया था। फिर एक खबर आई 19 मई को कि झारखंड में महज पांच साल की बच्ची की भूख से मौत हो गई। सरकार अमला भूख से मौतों से इनकार करने में जुट गया, लेकिन जिस परिवार ने अपनी बच्ची को खोया कोई उसकी फरियाद नहीं सुनने वाला।
अगर किसी मामले का आकलन करने के लिए सैंपल सर्वे का सहारा लिया जाता है, तो भूख से होने वाली मौतें आखिर क्या कहती हैं। सिर्फ एक क्षेत्र या राज्य ही नहीं... लॉकडाउन के बाद और सरकारी सुस्ती के बीच भूख से मौतें हर तरफ हो रही हैं। हम वैसे मामलों को ही देख-सुन या जान पा रहे हैं, जो मीडिया में आ रहे हैं। कई मामलों को दबाया जा रहा है या फिर उसे अखबारों/मीडिया तक आने से पहले ही खत्म कर दिया जा रहा है।

लॉकडाउन में पलायनः 16 दिन की बच्ची, 40 डिग्री सेल्सियस की धूप... शर्म तो नहीं ही आती होगी सरकार


हमारे घरों में जब बच्चे का जन्म होता है, तो मां और बच्चे को कितने ख्याल से रखा जाता है यह तो मिडिल से क्लास से लेकर सोशल मीडिया वाले क्लास को भी बखूबी पता ही होगा। जब कोई महिला बच्चे को जन्म देती है, तो संवर कहे जाने वाले 15 दिन के पीरियड में मां-बच्चे को बाहर की हवा नहीं लगने दी जाती, लेकिन गरीबों पर यह भला कब से लागू होने लगा...
इंदौर में भट्ठों पर काम करने वालीं सुमन अपनी 16 दिन की बच्ची के साथ 40 डिग्री सेल्सियस तापमान में लू के थपेड़ों के बीच पलायन कर रही हैं... फिर भी हमारे साथी कहते हैं कि इनको चुल्ल क्यों मची है भागने की... सरकारों को तो शर्म नहीं ही आती है, इंसान भी जब ऐसे लोगों के दुख और तकलीफ का मज़ाक उड़ाता है तो फिर दुनिया में बचता ही क्या है? इससे तो बेहतर है कि चौपाया ही बना रहता...
सुमन अपनी बच्ची के साथ। फोटोः ट्विटर
अब सरकारों का हाल कैसा है, यह अंदाजा लगाना चुटकी भर का खेल है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को ही देख लीजिए। दावे बहुत बड़े-बड़े। खुद को मजदूर प्रेमी साबित करने की होड़ और पीआर यानी विज्ञापन पर जितना पैसा खर्च किया, उससे कम सुध भी लोगों की ले लेते तो यह हालत बेघर और जरूरतमंद मजदूरों की नहीं होती। एक तरफ कांग्रेस की तरफ से मुहैया कराई गई बसों से भेजना उन्हें मुनासिब नहीं लगा। अगर इरादा नेक न हो तो बहाने कई बनाए जा सकते हैं। वही किया गया इस पूरे मामले में। पहले 1000 बसों की लिस्ट मंगाई गई और जब आ गई तो बसों में नुक्ताचीनी। यह माना जा सकता है कि 1000 बसों में 300 से ज्यादा सही नहीं भी रहे होंगे, लेकिन बाकी की बसों से भेजने से क्या हो जाता? लेकिन दूसरे दलों से बात-बात पर राजनीति न करने की अपील करने वाली भाजपा और इसके नेता कण-कण में राजनीति की तलाश करते हैं, जैसे कि कण-कण में प्रभु श्रीराम बसे हों।
लेकिन इरादा तो कभी इन गरीबों की मदद का रहा ही नहीं। यह तस्वीर है उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के अतर्रा की... कोरोना वायरस लॉकडाउन के दौरान फूड सब्सिडी स्कीम के तहत गरीबों को मुफ्त में एक किलो दाल दी जा रही है। चने की दाल का हाल आप खुद ही देखिए... दाल कम फफूंदी ज्यादा... इस दाल को जानवरों को भी खिलाना ज़हर के समान है और यहां उत्तर प्रदेश में महंथ जी की सरकार बड़े प्यार से ग़रीबों को खिला रही है। जितनी मेहनत बसों की फिटनेस और कागज की जांच में महंथ जी लगवाई है, काश इस दाल की हालत की भी जांच करवाकर लोगों को देते तो क्या हो जाता? लेकिन नहीं... पिसना तो दोनों ही स्थिति में गरीबों को ही है... भले वहां बसों को लेकर बहाना बनाना या फफूंदी वाली दाल खिलाना...
सरकार तो सरकार आम आदमी भी उससके प्यार में इतना अंध भक्त भला कैसे हो सकता है कि अपने जैसे लोगों की हालत भी उसे दयनीय नहीं लग रही है। कुछ लोग इस मामले में दोहरे पिच पर खेलते साफ दिख रहे हैं। इनको देश के मजदूर कोरोना के कैरियर नजर आते हैं, जबकि विदेशों से वंदे भारत मिशन के तहत जिन लोगों का बचाव करके लाया जा रहा है, उसके बारे में चूं तक करना मुनासिब नहीं समझते। ऊपर से तर्क यह कि विदेशों से आने वाले लोग अपने घर पहुंचकर नमक-रोटी का इंतजाम करने में सक्षम हैं, जबकि ये प्रवासी मजदूर घर लौटने के बाद भी सरकारी मदद के भरोसे रहेंगे। तो फिर सरकारें होती किसलिए हैं? लोगों का तर्क यह भी है कि मजदूर जहां थे, वहां ही सरकार मदद देती तो ठीक रहता। बिल्कुल ठीक रहता। लेकिन मदद करती तब तो.. आख़िर मदद मिल रही होती और जो समस्याएं इन मजदूरों के सामने हैं, उन्हें हल किया जाता, तो भला ये हजारों किलोमीटर पैदल चलक, अपने 4-5 साल के बच्चों को तेज धूप में लेकर और गर्भवती पत्नी को साथ बिठाकर क्यों ले जा रहे होते?
सवाल तो साफ है कि फिर सरकारों ने इनके लिए किया क्यों नहीं...सरकार पर सवाल उठाने के बजाय लोग मजदूरों पर ही सवाल उठा रहे हैं...सरकार अगर उनकी सोचती तो वे जाते भी क्यों...सरकार बस यही सोच रही है कि हादसे के बाद उसी ट्रक में लाश और घायलों को वापस गृह राज्य भेज दे रही है...इस पर तो बोलते नहीं देखा... अगर गलती मजदूरों की लग रही और यह भी कि मजदूर गांव जाकर कोरोना फैला रहे हैं तो गजब ही कहा जाए... फिर तो विदेशों से आने वाले क्या देश की डूबती अर्थव्यवस्था की नैया पार कराने के लिए सोना और कोरोना मरीजों के इलाज के लिए वैक्सीन लेकर आ रहे हैं...
बात यहीं तक खत्म नहीं होती? विदेशों से आने वालों के प्रति सहानुभूति कुलांचे मार रही हैं। लेकिन जान जोखिम में डालकर अपने घरों को जाने वाले मजदूरों से तीखे सवाल पूछने से बाज नहीं आते कि ये घर किसके भरोसे जा रहे हैं? बाप-दादा का खजाना गड़ा है? सहानुभूति से सत्य को नहीं झुठलाया जा सकता। इनकी मूर्खता पर संवेदना नहीं जताई जा सकती। जवाब तो साफ है कि संवेदना ऐसे लोगों से या फिर सरकार से ही कौन मांग रहा है? ये प्रवासी मजदूर तो कतई नहीं मांग रहे। हादसे में मौत के बाद लाशों और घायलों को एक ही गाड़ी से उके गृह राज्य पहुंचाने वाली सरकार से संवेदना की उम्मीद तो की भी नहीं जा सकती है। ऐसे लोगों से भी नहीं, जो 16 दिन के बच्चे के लिए आवाज़ नहीं उठाकर उसी से सवाल करते नजर आते हैं।
इन सबसे भी बड़ी बात कि क्या ऐसा नहीं है कि हमने बतौर देश इस मानवीय आपदा की घड़ी में एक वेलफेयर स्टेट की आवधारणा को पूरी तरह विफल कर दिया। यह किया है हमारे हुक्मरानों ने जो दिल्ली की गद्दी पर सत्ता के नशे में चूर हैं। खुद को राजनीति का चाणक्य कहने वाले बस चुनावी जयचंद बन कर रह गए हैं। जब अपना घर यानी देश त्रासदी से घिरा है, तो गृह मंत्री की खोजखबर भी नहीं है। चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता हासिल करना, फर्जी राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदू-मुसलमान की खाई पैदा करना ही चाणक्य नीति नहीं होती है। वक्त बुरा है, लोग नहीं। वक्त बदलेगा, लोग बदलेंगे।

तो क्या ज़ी न्यूज के संपादक ने ऑफिस आने के लिए साथी पत्रकारों को धमकी दी...


ज़ी न्यूज में पत्रकारों को कोरोना हुआ उससे दिक्कत नहीं है। वे सभी जल्दी स्वस्थ होकर फिर से लौटें। यही दुआ है। लेकिन दिक्कत इस बात से हैं कि किस तरह से खुद को बड़ा पत्रकार कहने वाले और रामनाथ गोयनका सम्मान से सम्मानित तिहाड़ी संपादक ने अपने साथियों को धमकाया। प्रमाणिक ख़बरें है कि जब ज़ी न्यूज़ में एक के बाद 13 लोग संक्रमित पाए गए तो तिहाड़ी संपादक ने मोटिवेशनल स्पीचदिया।
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कोरोना वायरस का मामले आने के बाद सबसे ज़ी न्यूज के स्टाफ को WION बिल्डिंग में शिफ्ट किया गया। इस पर एक पत्रकार ने कथित तौर कहा, ‘क्या हम सभी तब्लीगी हैं?’ इसके बाद रामनाथ गोयनका (पता नहीं किन-किन लोगों को मिल जाता है, उन्हें भी जिन्होंने दलाली के बदले तिहाड़ की सैर कर ली हो) अवॉर्डी संपादक जी ने मोटिवेशनल स्पीचदिया और कहा, “ घबरा क्यों रहे हों? मैं भी कैरियर (कोरोना का वाहक/फैलाने वाला) हो सकता हूं। पर काम कर रहा हूं न।इसके बाद बाकियों से धमकी भरे लहजे में कहा गया, “जो लोग बहाना बनाके ऑफिस नहीं आ रहे हैं, उनको हम देख रहे हैं...कब तक नहीं आएंगे? 5, 10 या फिर 15 दिन...
अब यह तो हाल है... (और इनपुट का इंतजार...)

महंथजी की सरकार और यूपी पुलिस की लाठियों से छलकती 'मर्दानगी'


लोग सवाल कर रहे हैं... आख़िर कोई पुलिस, जो एक इंसान भी होता है, वह इतना क्रूर और अमानवीय कैसे हो सकता है। आपको उत्तर प्रदेश पुलिस के दानवीय और राक्षसी चेहरे से रूबरू कराने वाले कुछ विडियो से रूबरू कराता हूं। फिर सोचिए यह पुलिस का काम है...या पुलिस अपनी वर्दी का धौंस दिखाकर हैवानियत पर उतर आई है, क्योंकि कोरोना वायरस की वजह से उस पर काम का दबाव ज्यादा है और ऊपर से पहले जो ऊपरी माल यानी घूस मिलता था वह मिलना बंद हो गया है, जिससे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है, क्योंकि यही पुलिस अमीरों के घर पर उनके बच्चों के जन्मदिन के मौके पर केक लेकर जा रही है, लेकिन गरीबों के बुजुर्गों को लाठियों से मार रही है। बुजुर्गों को तो छोड़िए, उत्तर प्रदेश की पुलिस ने गरीब बच्चे को भी नहीं बख्शा है। उसके साथ इतनी हैवानियत भला क्यों? क्योंकि वह गरीब का बच्चा है... शर्म है...
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महोबा पुलिस एक बुजुर्ग की पिटाई करती हुई। अमीरों के बच्चो के लिए यही पुलिस बर्थडे में केक लेकर पहुंच रही है, जबकि गरीबों के बुजुर्गों को लाठियों से स्वागत कर रही है। यही है दोहरा चेहरा सरकार पुलिस का... हालांकि, महोबा पुलिस के ट्विटर अकाउंट से कहा है है कि इस मामले में जांच के साथ कार्रवाई की जा रही है।
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यह वीडियो उत्तर प्रदेश के नोएडा की है। महिलाएं राशन के लिए बाकायदा लाइन में लगी हैं, लेकिन पुलिस आती है और लाइन में लगी महिलाओं पर अपने पौरुष बल का प्रयोग करने लगती है। यह योगी आदित्यनाथ की पुलिस है। जहां नियमों का पालन करने वाले लोगों और महिलाओं को भी पुलिस की लाठी खानी पड़ती है। फिर से कहूंगा कि जो गरीब महिलाएं खुद बाहर आकर बेबसी में राशन ले रही हैं और वह भी लाइन में लगकर, ताकि अपने बच्चों का पेट भर सकें, उन्हें लाठी मिल रही है, जबकि कोठियों और फ्लैटों में अमीरों के घर पुलिस सरकारी गाड़ी से जन्मदिन का केक पहुंचा रही है। बहुत बहादरी का काम कर रहा महिलाओंहाथ उठाकर। बकौल पुलिस विभाग इस मामले में प्रारंभिक जांच पर घटना की सत्यता स्थापित की गई है। उपनिरीक्षक सौरभ शर्मा को तुरंत निलंबित कर, विभागीय कार्यवाही शुरू की गई है।
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यह घटना उत्तर प्रदेश के ही बरेली की है। एक बच्चा फल की ठेली के पास खड़ा था, क्योंकि उसके पिता नहाने गए थे। तभी पुलिस वाले आए और डंडों से ताबड़तोड़ पीटना शुरू कर दिया। मासूम बच्चे को डंडे से बेरहमी से पीटा। शायद पुलिसवालों का अमीर के घर पहुंचाने वाले बर्थडे केक खत्म हो गया था, तो बच्चे को डंडों से पीटना शुरू कर दिया।
अब बताइए भला कोई इतना क्रूर कैसे हो सकता है? क्या यह बालक भेदभाव का शिकार हुआ? एक तरफ जहां पुलिस टीम केक लेकर घर पर पहुंच रही है, क्योंकि उसका पिता लेफ्टिनेंट है। वहीं, यह बच्चा इसलिए शिकार हुआ क्योंकि इसका पिता फल का ठेला लगाता है?
कायदे से इन सभी पुलिसवालों को 15 अगस्त के दिन परमवीर चक्र देना चाहिए। गरीबों पर बहादुरी जो दिखाई है।
Note...All Video from Social Media

लॉकडाउन में पलायनः यह अंधा नहीं, सुप्रीम कोर्ट का धंधेबाज कानून है...

सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन में प्रवासी मजूदरों की घर वापसी और हादसों में उनकी मौतों के मामले पर याचिका की सुनवाई से इनकार कर दिया। देश की सबसे बड़ी अदालत का कहना है कि अगर लोग रेलवे ट्रैक पर सो जाएंगे तो इसमें क्या किया जा सकता है? जिन्होंने पैदल चलना शुरू कर दिया है, उन्हें कोर्ट कैसे रोक सकता है?
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सुप्रीम कोर्ट की यह बात पूरी तरह सही है। आखिर अदालतें कैसे रोक सकती है कि कोई पैदल क्यों जा रहा है?  इस शीर्ष अदालत का चीफ (पूर्व) जस्टिस तो उन्हीं मामलों की सुनवाई करेगा, जिसमें खुद पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा हो। मजेदार बात कि अपने ऊपर लगे आरोपों की सुनवाई के बाद जज साहब खुद के पक्ष में फैसला भी सुना देते हैं।
ऐसे में जब सुप्रीम कोर्ट कहता है कि कोर्ट के लिए यह निगरानी करना असंभव है कि कौन ट्रैक पर चल रहा है और कौन नहीं चल रहा है? सही बात है। सुप्रीम कोर्ट तो बस इस बात की निगरानी करेगा कि जब गुजरात हाईकोर्ट ने बीजेपी के एमएलए और राज्य के कानून मंत्री को अयोग्य ठहरा दिया, तो उसकी अयोग्यता के फैसले पर कैसे विराम लगाना है।
मजदूरों और बेसहारा लोगों को लेकर आखिर याचिका में क्या कहा गया था? यही न कि अदालत केंद्र सरकार से सड़कों पर चलने वाले प्रवासी मजदूरों की पहचान करने, उन्हें भोजन और रहने का ठिकाना देने के लिए कहे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट को क्या फर्क पड़ता है कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेलवे पटरियों पर सो रहे 16 मजदूर मालगाड़ी की चपेट में आएं या फिर उत्तर प्रदेश के औरैया में भीषण सड़क हादसे में 24 मजदूरों की मौत हो जाए। ये मजदूर तो अपनी गलती और खुद की मर्जी से जा रहे हैं न... तो इन मजदूरों की ही जवाबदेही बनती है कि उनके साथ क्या होता है सही बात है कि सुप्रीम कोर्ट उनके साथ क्या कर सकता है? तब तो सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन को हटवा देना चाहिए। वायरस से मजदूर मरते हैं तो मरने दें। इससे पहले 31 मार्च को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि सड़कों पर अब एक भी दिहाड़ी मजदूर नहीं है। बजाय केंद्र सरकार के इस झूठ पर लताड़ लगाने के लिए कोर्ट मजदूरों को ही दोषी ठहरा रहा है। 
देशव्यापी लॉकडाउन की वजह मजदूरों के पास अब नौकरी और रहने के लिए ठिकाना नहीं है। इस वजह से हजारों मजदूर हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों की ओर जा रहे हैं। कोई पैदल चल रहा है, तो कोई साइकल चलाकर जा रहा है तो कोई ट्रक पर बैठकर अपने गांव जा रहा है। लेकिन जज साहब को इन मामलों पर सुनवाई से क्या मतलब? जज साहब को तो बस खास बंगले, सड़क पर आवारा पशुओं के घूमने से आपत्ति होती है, गाड़ी के शीशे पर काली फिल्म की मोटाई से दिक्कत होती है? इन सब मामलों पर सुनवाई के लिए बहुत समय है। दरअसल, मजदूरों का मामला गरीबी से जुड़ा है। इन मामलों की सुनवाई से सुप्रीम कोर्ट का कोई हित नहीं जुड़ा है। मामला जैसे ही राजनीतिक या फिर अमीरों से जुड़ा हो तो जज साहब तुरंत कुर्रसी लेकर बैठ जाएंगे और फैसला भी उनके हक में सुना देंगे। लेकिन पैदल चल रहे बेबस प्रवासी मजदूरों के हादसों की याचिका पर सुनवाई से साफ मना कर देंगे।
जज साहब को यह भी नहीं दिखता कि कोई 15 दिनों से चल रहा है। मध्य प्रदेश जाना है। बच्चे को चोट लगी है, तो खाट पर लेटा कर कंधे पर ढोते हुए उसे ले जा रहे हैं। महिला सड़कों पर बच्चे को जन्म दे रही है, कोई पैदल ही चलकर दम तोड़ दे रहा है। जज साहब को यह भी नहीं दिखता कि किसी ने पैर गंवाए तो सने कृत्रिम पांव से दोबारा चलना सीखा होगा, लेकिन क्रूर हालात इम्तिहान ले रहे हैं, अब वो पैदल परिवार के साथ शहर से घर को निकली है तमाम मुश्किलों के बावजूद उसका हौसला टूटा नहीं है, लेकिन क्या यह सब देखने के बावजूद सरकार कहां है? सरकारों को तो छोड़िए, अदालतों को क्यों लकवा मार गया है?
कर्नाटक में बीजेपी की सरकार बनवाने और आतंकवाद के आरोपी के मामलों कीसुनवाई के लिए आधी रात में खुलने वाली देश की सबसे बड़ी अदालत आज वाकई अंधी हो गई। लॉकडाउन के बीच सुप्रीम कोर्ट दूसरे कई मामलों को लंबित करके रखता है। लेकिन, सत्ता और भाजपा से अघोषित ताल्लुक रखने वाले रिपब्लिक टीवी के मालिक और सेलिब्रिटी एंकर अर्नब गोस्वामी की याचिका को सुप्रीम कोर्ट में मामला सामने आने के चंद घंटों में ही समय दे दिया गया, जबकि प्रवासी मजदूरों के घर जाने जैसे अहम मामलों को प्राथमिकता नहीं मिली। अब प्राथमिकता तो छोड़िए, मजदूरों की याचिका को सुनने लायक भी नहीं माना।
जबकि यही सुप्रीम कोर्ट लॉकडाउन में तमिलनाडु में शराब की दुकानों को बंद करने के फैसले को पलटकर उसे खोलने का फैसला देता है। लेकिन मजदूरों की याचिका सुनने के लायक नहीं मानता। अगर हालिया कुछ फैसलों को देखें, तो कैसे सुप्रीम कोर्ट वक्त-दर-वक्त जन-विरोधी फैसले करता चला गया है और तमाम फैसले अमीरों और सरकार के पक्ष में देता गया। चाहे पटना हाई कोर्ट के फैसले को पलटने की ही बात क्यों न हो? कहां तो संविधान समानता की बात करता है और जब बिहार में स्थायी और अस्थायी शिक्षकों की सैलरी समान करने की बात आई तो सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के पक्ष में अपना दे दिया। हाल में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता रिटायर हुए हैं। इस मौके पर विदाई समारोह में उन्होंने भी खुद माना कि जब कोई किसी गरीब की आवाज उठाता है तो कोर्ट को उसे सुनना चाहिए और जो भी गरीबों के लिए किया जा सकता है वो करना चाहिए। जज ऑस्ट्रिच यानी शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर नहीं छिपा सकते।
(जारी...)

मजदूरों का पलायनः आख़िर भागने की चुल काहे मची है इनको? कभी घर से तो कभी घर को भागना...


12 मई की घटना है। 35 साल के रंजन यादव पिछले तीन दिनों से सड़कों पर ऑटो भगा रहे थे। उस ऑटो को जिसे उन्होंने महज छह महीने पहले ही खरीदा था। 12 मई तक उन्होंने मुंबई से अपने घर पहुंचने के लिए करीब 1500 किलोमीटर की दूरी भी तय कर ली थी। घर अब बस 200 किलोमीटर के फासले पर रह गया था, तो ऑटो की स्पीड थोड़ी बढ़ा दी। तभी एक ट्रक से ऑटो जा टकराई। इस हादसे में रंजन की पत्नी और 6 साल की बेटी की मौत हो गई। रंजन यादव कहते हैं, कहां तो 1500 किलोमीटर की दूरी तय कर ली थी, सोचा था लॉकडाउन में अपने परिवार के साथ घर पर रहूंगा। लेकिन अब अपनी पत्नी और बेटी का शव लेकर घर जा रहा हूं।
आपको क्या लगता है? अगर सरकार सोच-समझकर लॉकडाउन लगाती। मजदूरों और रंजन यादव जैसे लोगों को घर पहुंचाने का इंतजाम करती, तो यह हादसा रुक नहीं सकता था। तब रंजन अपनी हंसती-खेलती 6 साल की बेटी और पत्नी के साथ घर पर खुशहाल जिंदगी जी रहे होते। लेकिन, सरकार की नासमझी और ऑटो चलाकर अपना जीवन गुजर बसर करने वाले रंजन की तो दुनिया ही बर्बाद हो गई। आख़िर कौन है इसका जिम्मेदार?
12 मई की ही घटना है। बिहार के बांका जिले के रहने वाले सुदर्शन दास दिल्ली के नांगलोई से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए था, ताकि ट्रेन पकड़ सकें। लेकिन रास्ते में किसी ने उनके टिकट और दो जोड़ी कपड़ों से भरा भाग साफ कर दिया। जब स्टेशन पहुंचे तो आंखों में आंसू और चेहरे पर मजबूरी थी। वह बताते हैं, मेरी पत्नी प्रेग्नेंट है। 9 महीने हो चुके हैं और कभी डिलिवरी हो सकती है। मैं यहां था, ताकि कुछ पैसे कमा सकूं और बच्चे के जन्म के समय घर पहुंच सकूं।
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सुदर्शनदास जैसे लोग आखिर क्यों घर जाना चाहते हैं? क्या दिल्ली में रहने के लिए उन्हें खाना नहीं मिल रहा है। मेरे एक साथी ने पूछा कि आखिर ये लोग पैदल भागे क्यों जा रहे हैं? कभी घर से भागकर नौकरी के लिए आते हैं, तो कभी यहां से घर के लिए। उन्होंने बोला, इतनी भी भागने की चुल काहे मची है इनको। कभी घर से भागेंगे तो कभी घर को भागना। सुदर्शन दास जैसे लोगों के पास है क्या उनके इस सवाल का जवाब।
रोहित कुमार को गुड़गांव से उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुरी अपने घर जाना है। वह बताते हैं कि कुछ महीने पहले ही घर से आया था। जहां काम करता हूं, वहां कॉन्ट्रैक्टर ने बोला कि अब काम बंद है, तो सैलरी नहीं दे सकता। दो महीने तक इंतजार के बाद सारे पैसे खत्म हो गए। आखिर कब तक यह चलेगा किसी को पता नहीं। कभी खाना मिल पाता है, तो कभी नहीं। आखिर हम अपने घर जाएं, नहीं तो क्या करें? यहां किसके भरोसे रहें?
यह खबर हरियाणा की है। गुड़गांव में एक शख्स और उसके बेटे ने मणिपुर के इंफाल की रहने वाली 19 साल की लड़की की पिटाई कर दी। बाप-बेटे का आरोप था कि वह लड़की कोरोना वायरस फैला रही थी। मतलब कुछ भी और किसी भी तरह का आरोप लगाकर लोगों की पिटाई शुरू है। कुछ दिनों पहले तबलीगी जमात की आड़ में मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा था और अब सहूलियत के हिसाब से लोग अपना एजेंडा और खुन्नस निकालने के लिए किसी को भी टारगेट बना ले रहे हैं।
अपने घरों को लौट रहे इन तमाम लोगों पर मेरे कुछ दोस्तों और राष्ट्रवाद की अलख जगा रहे लोगों को सवाल कई हैं। पिछले दिनों ही मेरे मित्रों कुछ सवाल उठाए कि देश स्पेशल ट्रेनें चलने के बाद दिल्ली ने 41, महाराष्ट्र ने 36, गुजरात ने 33 कोरोना पॉजिटिव बिहार भेजे हैं। अन्य राज्य भी भागीदार हैं. ये तो रैंडमली टेस्ट के नतीजे हैं। मेरे इन्हीं मित्र को फिक्र होती है कि आखिर ये लोग भागे क्यों जा रहे हैं? कभी घर से भागकर नौकरी के लिए आते हैं, तो कभी यहां से घर के लिए।
लेकिन यही मित्र भूल जाते हैं कि जब वंदे भारत मिशन के तहत 12 मई को विदेशों से 351 लोग तमिलनाडु पहुंचे और उनमें से कई कोरोना पॉजिटिव पाए जाते हैं, तो उन पर सवाल उठाने के बजाय उनकी अंगुली टेढ़ी हो कर मुसलमानों की तरफ घूम जाती है। यह तो साफ बात है कि कोरोना वायरस हिंदुस्तान में पैदा नहीं हुआ। यहां बीमारी विदेशों से आने वाले लोगों ने फैलाई है। लेकिन विदेशों से आने वाले उन लोगों के लिए हमारे यही मित्र भागने जैसा कोई शब्द इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि उनकी नजरों में विदेशों से जो भारतीय आ रहे हैं, वे वहां फंसे हुए थे। लेकिन हिंदुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जो मजदूर फंसे हैं और अगर वे अपने-अपने गृह राज्यों को लौटना चाह रहे हैं, तो उनके हिसाब से यह लौटना नहीं, बल्कि भागना है। गजब की थ्योरी लाई है राष्ट्रवादी और छद्म दक्षिणपंथी विचारकों ने।
हम अपने घर से भेजे गए पैसों से अपना खाना-पानी चला रहे हैं। हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमें तो यह भी पता नहीं है कि हम जिंदा घर लौटेंगे भी या नहीं। पंजाब के फगवाड़ा से अपने घर बिहार के भोजपुर जिले के लिए निकले 21 साल के ब्रिज किशोर का यह कहना है। करीब 1500 किलोमीटर का सफर है, जबकि 150ल किलोमीटर की दूरी वह साइकल से नाप चुके हैं। ब्रिज किशोर बताते हैं, मैं पंजाब के अमृतसर के एख मील में काम करता था, लेकिन वह बंद हो चुका है। हमारे रहने-खाने का कोई इंतजाम नहीं है। मुझे तो घर से पापा ने 800 रुपये भेजे तो उससे साइकल खरीदी और पिछले तीन दिनों से यही चला रहा हूं। पता नहीं कब पहुचूंगा। पहुंचूंगा भी या नहीं।
ऐसे कई मामले हैं, जो आपको दिखेंगे। अगर आप देखना चाहें। कोई अपनी प्रेग्नेंट पत्नी को लेकर हाइवे पर चला जा रहा है। कोई बैलगाड़ी में कभी खुद तो कभी पत्नी को एक बैल की जगह जुतते हुए घरों को लौट रहा है। कोई जुगाड़ से स्केटिंग की गाड़ी बनाकर अपनी गर्भवती पत्नी और बच्चे को उस पर ढोकर ले जा रहा है। छोटे-छोटे बच्चे इस तपती गर्मी में पैदल चले जा रहे हैं। आखिर कौन हैं ये लोग? क्यों जाना चाहते हैं? क्या वाकई इनको भागने की चुल्ल मची है? नहीं... आपको तब तक समझ नहीं आएगा, जब तक आपके अंदर दिल नहीं होगा। बस हिंदु-मुसलमान के चश्मे को उतारकर खुद को उनकी जगह रखकर देखें, तो अपनी जान की परवाह किए बिना हजारों किलोमीटर का सफर पैदल और जोखिम में कैसे काटे जा रहे हैं।

कोरोना संकट में भी गेस्ट टीचरों का हक छिनती सरकार, केजरीवाल-भाजपा सब मिले हुए हैं


टीचर यानी शिक्षक। दिल्ली सरकार के स्कूलों में सबसे ज्यादा ढिंढोरा स्कूलों की सफलता का ही पीटा गया है। लेकिन आप जानते हैं कि किस कीमत पर यह किया गया? शिक्षकों के शोषण और अब उनकी जान की कीमत पर...
10 मई को एक ख़बर आई। ख़बर यह थी कि रोहिणी में पति-पत्नी की कोरोना वायरस से मौत हो गई। पहले पति की जान गई, उसके बाद पत्नी की। महिला दिल्ली सरकार के स्कूल में कॉन्ट्रैक्ट टीचर थी। इस लॉकडाउन में भी स्कूलों में जरूरतमंदों को राशन बांटने की ड्यूटी सरकार की तरफ से लगाई गई थी। आख़िर सरकार की लापरवाही की क़ीमत उस महिला को चुकानी पड़ी। क्या सरकार को यह अंदाज़ा नहीं था कि ऐसे में ड्यूटी लगाना खतरनाक हो सकता है। एक तरफ नौकरी पक्की नहीं और कॉन्ट्रैक्ट/गेस्ट टीचर से काम भरपूर लेने के मामले में दिल्ली की सरकार सबसे अव्वल है और उस पर वाहवाही बंटोरने में भी आगे। लेकिन ये कॉन्ट्रैक्ट/गेस्ट टीचर अपनी जान दांव पर लगाकर काम कर रहे या करते हैं, फिर भी उनकी जिंदगी को स्थायित्व देने की एक छोटी-सी पहल भी नहीं की जाती है।
अब पूरा मामला यह भी देख लीजिए। देश भर में लॉकडाउन है, तो दिल्ली में भी है। दिल्ली तो सबसे ख़तरनाक रेड जोन में है। कंपनियां बंद हैं। दुकानें बंद हैं। जिन लोगों के पास स्थायी रोजगार नहीं हैं, उनके आय का साधन भी बंद है। ऐसे में उनके घरों का राशन और तमाम खर्चों का इंतजाम भी बंद हैं। इसी में दिल्ली सरकार ने एक नोटिस जारी कर स्कूलों में कॉन्ट्रैक्ट/गेस्ट टीचरों का कॉन्ट्रैक्ट भी खत्म कर दिया।
PM Modi, DElhi CM Kejriwal and Sisodia. Pic: Internet
दरअसल, दिल्ली के सरकारी स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियां शुरू होने के साथ ही इन स्कूलों में पढ़ाने वाले गेस्ट टीचर का लॉकडाउन जैसे महासंकट में आय का जरिया भी बंद हो गया है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक, दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग ने 5 मई को एक आदेश जारी किया। आदेश में कहा गया, सभी गेस्ट टीचर का भुगतान सिर्फ 8 मई 2020 तक और गर्मियों की छुट्टियों में अगर उन्हें ड्यूटी के लिए बुलाया जाता है, तो उसके पैसे दिए जाएंगे। पिछले सप्ताह शिक्षा विभाग ने स्कूलों में 11 मई से 30 जून तक के लिए गर्मियों की छुट्टियों की घोषणा की थी। यानी इस अवधि में गेस्ट टीचरों को एक भी पैसा/सैलरी नहीं मिलने वाली है, क्योंकि उन्हें एक तरह से दिहाड़ी मजदूरों की ही तरह सरकार भुगतान करती है। इसे कुछ इस तरह समझिए कि जिस तरह दिहाड़ी मजदूर काम पर जिस दिन जाता है, उसे सिर्फ उसी दिन के पैसे मिलते हैं। अगर वह किसी दिन छुट्टी करता है, तो उस दिन के पैसे कट जाते हैं। जबकि कोई परमानेंट नौकरी वाले व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं होता। उसे ली गई छुट्टियों के बदले भी पैसे मिलते हैं। गेस्ट टीचर के साथ तो दिहाड़ी मजदूरों से भी बुरा हाल है। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दिन-रात खुद को खपा देने वाले गेस्ट टीचर को नैशनल होलीडे यानी गांधी जयंती, बुद्ध पूर्णिमा जैसे सरकारी छुट्टियों के पैसे भी कटते हैं।
ख़ैर लौटतें हैं असल मुद्दे पर। एक अनुमान के मुताबिक, दिल्ली के सरकारी स्कूलों में लगभग 20 हजार गेस्ट टीचर हैं। कोरोना वायरस महामारी यानी कोविड-19 की वजह से एहतियातन मार्च में दिल्ली के स्कूलों को बंद कर दिया गया था। इस दौरान गेस्ट टीचर परमानेंट शिक्षकों की ही तरह घर से काम करते रहे। गेस्ट टीचर स्कूल के एडमिनिस्ट्रेटिव काम के अलावा ऑनलाइन क्लास भी लेते रहे। यहां तक कि कुछ गेस्ट टीचरों को कोविड-19 से प्रभावितों को राहत का सामान बांटने के लिए कई राहत केंद्रों और स्कूलों में ड्यूटी सौंपी गई। हर साल की तरह इस साल भी गर्मियों की छुट्टियां घोषित की गईं। लेकिन एक अंतर है। कोविड-19 से पहले हर साल गर्मियों की छुट्टियों में भी स्कूल पूरी तरह बंद नहीं होते थे। मिशन बुनियाद और एक्स्ट्रा क्लासेज के लिए समर कैंप होते थे। इनमें लगभग 70 प्रतिशत गेस्ट टीचरों को ड्यूटी के लिए बुलाया जाता था। इस साल हालात बिलकुल अलग हैं। सभी गेस्ट टीचरों को घरों पर रहने की मजबूरी है और इस दौरान उनकी आय का जरिया भी बंद होगा। कई गेस्ट टीचर यूपी, हरियाणा, राजस्थान, एमपी और उत्तराखंड से हैं और दिल्ली में किराए पर रहते हैं। अब वे लॉकडाउन के दौरान खुद बेबस और लाचार महसूस कर रहे हैं, क्योंकि जब न आय होगी तो भला कैसे कमरे का किराया चुकाएंगे। कैसे उनका जीवन चलेगा।
दिल्ली सरकार इनके लिए कुछ कर सकती थी। एक तरफ सरकार कह रही है कि इस लॉकडाउन और कोविड-19 संकट में कोई किसी को नौकरी से न निकालें। कोई किसी की सैलरी न काटे, लेकिन सरकार खुद गेस्ट टीचर के साथ एक क्रूर तानाशाह की तरह पेश आ रही है। दिल्ली के गेस्ट टीचरों के साथ सरकार का रवैया कुछ ऐसा है कि लॉकडाउन और कोविड-19 में गेस्ट टीचरों के सामने आर्थिक तंगी जैसे हालात हैं और उधर सरकारनुमा तानाशाह बीन बजा रहा है।
Delhi BJP Chief Manoj Tiwari. Pic: Internet
दरअसल, यह चुनाव का वक्त नहीं है। अगर होता तो हर पार्टी का नेता इनकी बातें कर रहा होता। दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का ड्रामा याद ही होगा आप लोगों को... किस तरह एलजी को ड्राफ्ट भेजा, फिर एलजी ने बोला हमें मिला नहीं...वहीं, दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी तो चुनावों के दौरान गेस्ट टीचरों के हक़ में हाईकोर्ट में पार्टी फंड से केस लड़ने की बात तक कही थी। हालांकि, बकौल इंडियन एक्सप्रेस- मनोज तिवारी ने दिल्ली के एलजी को पिछले सप्ताह एक चिट्ठी लिखी थी। उन्होंने चिट्ठी में कहा कि केंद्र सरकार और श्रम मंत्रालय पहले ही आदेश जारी कर चुका है कि इस महामारी के दौरान किसी की सैलरी कटौती नहीं की जानी चाहिए। 
तिवारी ने लिखा, “केंद्र सरकार के इन निर्देशों को ध्यान में रखते हुए इस मुश्किल घड़ी में जब तक स्कूल खुल नहीं जाते, तब तक गेस्ट टीचरों को सैलरी दी जानी चाहिए, ताकि वे अपने परिवार का ध्यान रख सकें। लेकिन अभी तक ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है। जहां तक मुझे पता चला है कि 11 मई से गेस्ट टीचरों की सेवा खत्म करने के बाद भी कई स्कूलों के प्रिंसिपल गेस्ट टीचरों से बेगारी का काम लेना चाहते/चाहती हैं। उन्हें कई प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी दी गई है, लेकिन जब उनका कॉन्ट्रैक्ट ही नहीं है, तो फिर स्कूलों के प्रिंसिपल इस तरह का काम कैसे ले सकते हैं? यह है तनाशाही रवैया। लेकिन दिल्ली सरकार को तो बस मतलब है तो खुद की पीठ खुजाने और थपथपाने से।

प्रधानमंत्री जी कह दीजिए मैं झूठ नहीं बोलता, क्योंकि आपके वादे चीख-चीखकर झूठ की गवाही दे रहे हैं

-    इस देश की जो सुविधाएं अमीरों को प्राप्त हैं,वह मेरे देश के गरीबों को भी मिलनी चाहिए।
जो सामान्य व्यक्ति हवाई चप्पल पहनकर घूमता है, वह मुझे हवाई जहाज में दिखाना है। 
यह दोनों ही बयान इसी देश के प्रधानमंत्री के हैं। या तो ये दोनों ही बयान झूठे हैं या प्रधानमंत्री झूठे हैं। अगर ऐसा भी नहीं है, तो उनके सारे दावे कागज़ी हैं और बातें बेमानी हैं। इस देश में लॉकडाउन है। बसें बंद हैं। ट्रेन बंद है और बंद है सारा मुल्क। अगर नहीं बंद है, तो देश के हुक्मरानों के झूठे दावे, झूठा वादा और दिलासा।
आज सुबह जब आंख खुली, तो खबर 17 मजदूरों के ट्रेन से कटकर होने वाली मौत की थी। प्रधानमंत्री का ट्वीट था, जिसमें उनका दुख था, लेकिन नहीं था तो मजदूरों का दर्द समझने वाला दिल। जिन मजदूरों की जांन गई, वे कौन थे? अपने घर ही तो जा रहे थे... ट्रेन की पटरियों पर लेटे थे कि ट्रेन आई और रौंदती हुई चली गई। पटरियों पर बिखरी सूखी रोटियां बता रही हैं कि आख़िर भूख ने किस कदर परेशान किया होगा? किन हालातों में अपने घरों के लिए निकले होंगे...
लॉकडाउन से प्रवासी मज़दूरों से सबसे ख़राब स्थिति मजदूरों की है। न काम है और न ही रहने को छत। फिर किस मुंह से किस सरकार के भरोसे शहरों में रुके रहें। 45 दिनों से देश बंद है और बंद हैं हुक्मरानों के दिल और दिमाग। वे नहीं समझना चाहते इनका दुख और दर्द। कोई 100 किलोमीटर पैदल चला जा रहा है, तो कोई साइकल से भागा जा रहा है। पुलिस लाठियां भांज रही हैं। प्रेग्नेंट महिलाएं हाईवे से सफर ऐसे तय कर रही हों, जैसे चंद मिनट में रफ्तार उन्हें हजारों मील दूर घर पहुंचा देगी। लेकिन, यह कोई बस नहीं है और न ही सेना के जहाज, जो विदेशों से अमीरों को लाने के लिए उड़ानें भर चुकी हैं। यहां पैदल जाना है, रास्ते में भूख को पेट दबाकर मार देना है।
चलते-चलते थक गए...टांगों में दर्द हो रहा है... जब 5-7 की बच्ची... 7-8 साल का बच्चा... अपने मां-बाप के साथ सड़कों पर यूं ही पैदल निकल पड़े हैं कि आख़िर कभी तो उस घर को पहुंचेंगे, जहां कोई अपना होगा...इस शहर की अमीरी और सरकारों की बेरहम नीतियों, झूठ से दूर कोई अपना तो होगा। 
आख़िर कौन हैं ये लोग...क्या ये सभी वही हैं, जिसके लिए देश के प्रधानमंत्री कहते हैं, ‘’इस देश की जो सुविधाएं अमीरों को प्राप्त वह मेरे देश के गरीबों को भी मिलनी चाहिए’’... क्या ऐसा हो रहा है... उन्हीं की पार्टी का एक मुख्यमंत्री प्रवासी मजदूरों को अपने घर जाने से सिर्फ इसलिए रोकता है कि उस राज्य के बिल्डर (अमीरों) कहते हैं कि मजदूर चले गए तो हमारा काम कौन करेगा...फिर इतनी ही चिंता है, तो मजदूरों का 45 दिनों से ख्याल क्यों नहीं रखा... बेंगलुरु में मजदूर जब कहता है, हम इन हालातों में रहने की जगह अपने घर पर मरना पसंद करेंगे...कर्नाटक के मुख्यमंत्री मजदूरों और फंसे लोगों को ले जाने वाली ट्रेन कैंसिल करने का फैसला करते हैं, तो देश के प्रधानमंत्री का ट्विटर जवाब दे जाता है...प्रवासी मजदूर अपने राज्यों/घरों को जाने के लिए गुजरात के सूरत में प्रदर्शन करते हैं, तो प्रधानमंत्री के ट्वीट से देश के इन गरीबों के लिए एक ट्वीट नहीं निकलता...एक शब्द खर्च नहीं होता।
आख़िर जवाब भी चाहिए, तो बस ट्विटर पर ही क्यों? क्या सरकार ट्विटर के भरोसे चल रही है? अगर चल ही रही है, तो फिर ऐसी तमाम ख़बरों से हुजूर नावाकिफ तो नहीं ही होंगे कि सात महीने के गर्भवती महिला लगातार 12 घंटे चले जा रही है...न पैसा है और न ही खाना...न सरकार-प्रशासन से कोई मदद। घर कब पहुंचेंगे, इसका भी कोई अंदाज़ा नहीं। लेकिन, प्रधानमंत्री का पुराना भाषण याद कीजिए...मैं चाहता हूं कि इस देश की जो सुविधाएं अमीरों को प्राप्त वह मेरे देश के गरीबों को भी मिलनी चाहिए। क्या यही सुविधाएं देश के गरीबों को मिल रही हैं?
प्रधानमंत्री की पार्टी के सहयोग से बिहार में सत्ता पर काबिज मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की पार्टी का उप-मुख्यमंत्री जबरन 222 मजदूरों को वापस भेज देता है, ताकि दूसरे राज्यों में श्रमिकों की कमी न हो...जब दूसरें राज्यों से मजदूरों को अपने गृह राज्य (बिहार) लाने की बात होती है, तो कभी ट्रेन की कमी, कभी बस की कमी, तो कभी पैसे की कमी का रोना रोती है सरकार...लेकिन लौट चुके लोगों को वापस भेजने वाली सरकार का मुखिया कैसा है? इस पर उप-मुख्यमंत्री अखबारों में इश्तिहार देकर ढिंढोरा पीटता है कि दूसरे राज्यों को बिहार की श्रम शक्ति का एहसास हुआ... कैसी सोच है यह? कतई ही गिरी हुई मानसिकता और उससे भी बदतर कही जाएगी। लेकिन इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।
जब प्रधानमंत्री लॉकडाउन का सख्ती से पालन करने की बात कहते हैं, तो उन्हीं की पार्टी का मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश) सरेआम उनकी बातों और नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए बसों को दूसरे राज्य में भेजते हैं, ताकि फंसे हुए लोगों को अपने राज्य ला सकें...दूसरे राज्य का मुख्यमंत्री बंगले झांकता रहता है कि मुझे तो प्रधानमंत्री की बातों का पालन करना है....केंद्र सरकार के नियमों का हवाला देकर वह दूसरे राज्यों से अपने लोगों को न बुलाने को लेकर अपनी मजबूरी जाहिर कर देता है...
 अगर इन हताश प्रवासी मजदूरों की पीड़ा प्रधानमंत्री की आत्मा को नहीं झकझोर पा रही है, तो आख़िर क्या बचता है? सऊदी अरब से लोगों को लाने के लिए पांच उड़ानें...इन मजदूरों के नसीब में हाईवे पर पैदल चलने की मजबूरी है, क्योंकि प्रधानमंत्री चाहते हैं कि इस देश की जो सुविधाएं अमीरों को प्राप्त वह मेरे देश के गरीबों को भी मिलनी चाहिए। क्या यही वे सुविधाएं हैं, जो अमीरों को मिल रही है?
बाक़ी जगहों को छोड़ दीजिए देश के दिल दिल्ली में जहां, प्रधानमंत्री निवास के 10 किलोमीटर के दायरे यानी आईटीओ से मजदूरों का एक जत्था पैदल ही बिहार के भागलपुर जाने के लिए 1000 किलोमीटर से अधिक दूर के सफर पर निकल पड़ता है। लेकिन प्रधानमंत्री का ट्विटर शांत रहता है... एक शब्द या एक बार भी मुंह से नहीं निकलता कि मेरे देश के गरीबों मत जाओ...मैं तुम्हारे लिए हर वह इंतजाम करूंगा, जो इस देश के अमीरों को मिल रहा है...
कहां तो वंदे भारत मिशन के तहत एयर इंडिया की फ्लाइट से सिर्फ एक व्यक्ति को लेकर सिंगापुर के लिए उड़ान भरता है, लेकिन लाखों बेबस प्रवासी मजदूरों के लिए चलती भी है, तो क्या...वह ट्रेन जो 40 दिनों बाद चलाने का फैसला लिया गया। वह ट्रेन जिससे जाने पर किराया खुद उन मजबूरों को देना है, जिनकी नौकरी छीन गई है।
ग़रीब तो ग़रीब है, उसे अमीरों की ऐशो-आराम नहीं बस सम्मान की जिंदगी ही दे दीजिए प्रधानमंत्री जी। बस इतनी ही गुजारिश है आप से...देश में हर जगह त्राहिमाम है, कोरोना का संकट बड़ा है, लेकिन इस संकट की आड़ में अव्यवस्था, अराजकता और अनैतिकता बढ़ रही है।