क्या खोया-क्या पाया !

पहले तो एक बचपना समझा...
फिर अपनी नादानी,
लेकिन इत्तेफाक
यह भी न हुआ कि तुम्हे
कुछ बता सकूं...

क्या मैंने सोचा और क्या पाया,
न कुछ हासिल, न ही गुमनाम,
इस दुनिया की भूलभुलैया में,
बस ख़ुद को ही भूला पाया...
इस तमाम ज़िंदगी में...
इतना ही ख़ुद के लिए कर पाया...

5 comments:

  1. क्या मैंने सोचा और क्या पाया,
    न कुछ हासिल, न ही गुमनाम,

    बहुत सुन्दर रचना, दिल को छु लेने वाले भाव है,

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  2. धन्यवाद मिथिलेशजी

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  3. बहुत सुन्दर रचना है बधाई।

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  4. धन्यवाद परमजीत जी

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