भारत भ्रष्ट महान- भ्रष्टाचार भी एक कला है।

अपनी इच्छा से किसी चीज को चुनना वरदान से कम नहीं होता। सुख का मतलब है कि हम अपना चुनाव खुद कर सकें। लेकिन चुनना एक बात है, आदी हो सकना बिल्कुल दूसरी बात। हम एक जिंदगी से दूसरी जिंदगी में हमेशा गोता लगाना चाहते हैं। कभी इधर, कभी उधर, कहीं का भी नहीं, न कहीं से आता हुआ, न कहीं पहुंचता हुआ। ऐसी निराशा का नतीजा तो त्रासदी और अंधेरे परिवेश में ही हो सकती है। यहां यही हुआ भी है। एक शुरुआत गलत हो गई। भ्रष्टाचार की बात करना अब वैसा ही है, जैसे सत्यवादी हरिश्चंद्र की कथा सुनाना। सत्यवादी हरिश्चंद्र की कथा जितनी पुरानी है, उतनी ही पुरानी है इस देश के भ्रष्टाचार की कथा। पढ़ाई के शुरुआती दिनों में जब हरिश्चंद्र की कथा पढ़ाई जाती है, तब वह नई लगती है और चौंकाती है। वाह, कितना सत्यवादी राजा था। सपने में जिसे दान दे दिया, जागने पर उसकी खोज कराके उसे राज दे देता है। खुद चांडाल के यहां नौकरी करता है और अपने बेटे के कफन के टैक्स के रूप में अपनी पत्नी से उसकी दी साड़ी मांगता है। पर यही कथा जब बी।ए. में पढ़ाई जाए, तो छात्र कहते हैं कि कितने पिछड़े प्रोफेसर हैं। अरे यह कथा तो हम प्राइमरी में पढ़ चुके हैं। साल दर साल दोहराते हैं। जरा इस कथा को इस तरह बनाते हैं। हरिश्चंद्र ने सपने में एक ब्राह्मण को राज्य दान में दे दिया। सुबह उन्होंने अपने सपने को याद किया। सोचा, यह सपने वाला ब्राह्मण है, जिसकी नजर मेरे राज पर लगी है। यह कभी भी आकर भीख में राज्य मांग सकता है। यह किसी राजा को उकसाकर मेरे राज्य पर हनला करवा सकता है। उन्होंने मंत्री को हुक्म दिया- जाओ पता लगाओ इस शक्ल-सूरत के ब्राह्मण का और उसे मेरे सामने हाजिर करो। वह ब्राह्मण राजा के सामने लाया जाता है। राजा उससे कहता है- क्यों रे उधम, स्वपन में मुजे बेखबर जानकर मेरा राज्य दान मे लेता है। राजा सिपाही को आदेश देता है- इस बम्हन का सिर काट लो! सत्यवादी की कथा इस तरह एक नई कथा बन जाती है। ऐसा नहीं कि वही बरसों पुरानी कहानी दोहराते चले आ रहे हैं। ईमानदारी इस देश में विलुप्त चीज हो गई है। बेईमानी इतनी पुरानी बात हो गई है कि कोई बेईमानी की बात करे तो लगता है, बड़ा पिछड़ा हुआ आदमी है। अब कौन सी बातें हमें चौंकाती हैं। जैसे- अखबारों में कभी-कभी छपता है- ईमानदार अभी भी जिंदा है! मिसाल होती है- एक रिक्शावाला सवारी को छोड़कर लौटा, तो उसने देखा कि रिक्शे में नोटों से भरा एक बटुआ पड़ा हुआ है। वह तुरंत उस सज्जन के घर गया, जिन्हें उसने अभी छोड़ी था। फिर उनका बटुआ वापस किया। इस जमाने में ईमानदार जिंदा हैं। यह समाचार कभी नहीं छपता कि एक सज्जन ने 20 रुपए में रिक्शा ठहराया, मगर सिर्फ 10 रुपया देकर निकल लिए। उसने दस रुपए और मांगे तो उसे पीटकर भगा दिया।

इस लेख को मैं परसाई जी की रचना को आधार बनाकर और उससे उधार ले कर लिख रहा हूँ,

3 comments:

  1. और इस कला के दिग्गज आज भौतिक समृधि के पर्याय बने हुए हैं चन्दन जी।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. ये ऐसी कला है ,जिसका समूल नाश अगर हमलोगों ने एकजुट होकर नहीं किया तो, इतना तय है की या सारी मानवता को खत्म जरूर कर देगा /

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