लोकतंत्र की शानदार जिन्दगी

आज हम अपनी उस दुनिया से बेगाने होते जा रहे हैं, जिसमें रहकर हम दुनियावालों की दुनिया में अपनापन महसूस करते थे। वह हमारी खास दुनिया या तो नकली उदासीनता या खोखली दिलचस्पी से कमोबेश छिन्न-भिन्न हो चली है। यदि कोई चीज उसे संभाले हुए है तो वह यह जिद की हमारी भी एक अपनी दुनिया होगी। पर हमें पहले उस दूसरी दुनिया को देखें, जिसमें हमें पहले से ज्यादा रहना पड़ रहा है। जबिक इस दुनिया से न हमें लगाव है और न ही विलगाव। लोकतंत्र ने हमें शानदार जिंदगी और कुत्ते की मौत के बीच पतली दीवार में दबा रखा है। ऐसी हालत में सबसे आसान यही लगता है कि अपनी व्यक्तिगत आजादी की अभी तक बची-खुची सुविधा का फायदा उठाकर अपने लिए कुछ रियायत ले सकूं। वरना मेरे दोस्त तो यहां तक कहते हैं कि मैं जिस रफ्तार से जिंदगी जी रहा हूं, वह कछुए की चाल से भी धीमी है। खरगोश तेंदुआ से भी तेज दौड़ लगा रहा है। अक्सर उनकी बातों पर ध्यान नहीं देता हूं। पर कई मर्तबा सोचता हूं, तो लगता है वह सही हैं। मेरी आदत दस कदम चलकर दूरी को नापने की है। जबिक बाकियों की आदत हर बाधा दौड़ के बाद अगले दौड़ की तैयारी की है। ऐसे में इस दुनिया में बने रहने के लिए मेरे पास एक ही विकल्प बचता है। वह यह कि मैं सब सेनाओं में लड़ूं। किसी में ढाल के साथ तो किसी में बगैर कवच के। क्योंकि आज ऐसा लगता है कि दुनिया की इस अंधी दौड़ और भीड़ को समाज में तब्दील करने का सिर्फ एक ही साधन है। वह है उस सत्ता का उपयोग जो हरेक व्यक्ति अलग-अलग फैसलों से कुछ हाथों में देता है।
रघुवीर सहाय की कविताओं से उधार लेकर कुछ पंक्तियां कहूं तो,
आज हम
बात कम, काम ज्यादा करना चाहते हैं
इसी क्षण
मारना या मरना चाहते हैं
और एक बहुत बड़ी आकांक्षा से डरना चाहते हैं
ज़िलाधीशों से नहीं।
कुछ भी लिखने से पहले हंसता और निराश
होता हूं मैं
कि जो लिखूंगा वैसा नहीं दिखूंगा।
बहुत दिन हुए तब मैंने कहा था लिखूंगा नहीं
किसी के आदेश से।
एक मेरी मुश्किल है जनता
जिससे मुझे नफरत है सच्ची और निस्संग
जिस पर कि मेरा क्रोध बार-बार न्योछावर होता है।

1 comment:

  1. आलेख के बहाने रघुवीर सहाय की उम्दा रचना पढ़वा दी..कितना सटीक कहा है/.

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