यौन दासियों की कहानी
उसे गरीबी और इज्जत की जिंदगी पसंद नहीं थी।
मेरे चाचा की भागी हुई बेटी
अगले अंक में जारी...
फीफा का फीवर यानी फुटबॉल का खुमार
क्या मेरी सोच बैकवर्ड है
टाइटल मतलब जाति
जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान। न तो मै साधू हूँ और न ही कोई ज्ञान देने जा रहा हूँ। बस अपने साथ बीती कुछ बातें आपसे साझा करना चाहता हूँ। पिछले दिनों मैं घर गया था। इस दौरान कई शादियों में शिरकत करने का भी मौका मिला। पर यह किस्सा मुजफ्फरपुर का है। ममेरे भाई की शादी थी। भारत में शादी एक ऐसा समारोह है, जिस दौरान आपकी मुलाकात दूर के नाते-रिश्तेदारों से भी हो जाती है। लेकिन यहां मुलाकात ममेरे भाई के होने वाले ससुर जी से हुई। चूंकि मैं मामाजी के हर काम को कर रहा था तो उन्होंने अपने होने वाले समधीजी से मेरा परिचय कराते हुए कहा यह मीडिया फील्ड में काम करता है। फिर उन्होंने मेरा नाम पूछा। मैंने बताया चंदन कुमार। इसके बाद उनकी प्रतिक्रिया से मैं अचंभित नहीं तो थोड़ा से ताज्जुब मुझे जरूर हुआ। उन्होंने पूछा बस चंदन कुमार, टाइटल कुछ नहीं। मैंने बोला मुझे पसंद नहीं है टाइटल रखना। इस पर उनका जवाब था, नए जमाने का लड़का है, कोई बात नहीं। पर बाद में मामाजी ने मामला संभालते हुए टाइटल बताया तब तक मैं नहां से अपना काम करके दफा हो चुका था। मुझे पहली बार इस तरह के जातिगत सवालों से दा-चार होना पड़ा। पहले तो सुनता था कि जाति का कितना प्रभाव और असर है। पर पहली बार देख भी लिया। शादी वगैरह के टाइम में जाति का तो बोलबाला और भी बढ़ जाता है। बिहार में जब लोगों को एक साथ बैठकर बातें करना को कोई भी मौका मिलता है तो उनकी चर्चा का विषय खास तौर पर राजनीति होती है और राजनीति में जाति का समीकरण। किस कास्ट की पकड़ किस क्षेत्र में अधिक है और कम। करीब साल भर बाद घर गया था तो इन चीजों को और भी करीब से देखने को मिला। इस बार रूचि ज्यादा थी कि लोग कहते हैं, मीडिया में विशेषज्ञ लोग भी राजनीति में किसी उम्मीदवार के हार-जीत का समीकरण भी इन्हीं आधार पर तय करते हैं तो दिलचस्पी बढ़ी कि चलिए इस बार इस ऱैक्टर को भी समझ कर देख जाए। आने वाले दिनों में बिहार में चुनाव भी होना है तो इसमें मदद भी मिल जाएगी।
ट्रेन से घर तक मेरा सफ़र
सबकुछ वैसा ही जैसे साल भर पहले था। शायद गांवों और शहरों में यही अंतर होता है। शहरों में विकास के लक्षण या बदलाव हररोज या हरपल नजर आता है, जबकि गांवों में नहीं। वर्षों गुजर जाते हैं तब कहीं जाकर विकास नजर आता है। इस बार घर करीब साल भर बाद गया। पिछले छह सालों से दिल्ली में हूं, पर पहली बार इतने दिनों तक घर से दूर रहा। इतने दिनों तक ट्रेन की लंबी सफर से भी दूर रहा। पर जो भी रहा, ट्रेन का यह सफर भी काफी यादगार रहा। इसलिए नहीं कि मुझे घर जाने के लिए टिकट नहीं मिल पाया। टिकट मैंने करीब 20 पहले करवाया था, कहीं भी नहीं मिला। फिर मैंने एसी-2 में वेटिंग 10 का रिजर्वेशन करवाया। यह सोचकर कि एसी में करवाया है और घर जाने में करीब 20 दिन बचा है तो कंफर्म हो जाएगा। पर आखिर दिन वेटिंग चार पर अटक गया। आप समझ सकते हैं कि जिस दिन आपको घर जाना है, उस दिन का टिकट मिलना कितना मुश्किल है। मुश्किल नहीं, नामुमकिन है। मेरे साथ भी यही हुआ। अब मेरे पास सिर्फ एक ही विकल्प बचा था। जेनरल से सफर करना। यह मेरे लिए कोई नई बात नहीं है। पहले भी कई मर्तबा जेनरल से सही भारत का दर्शन करते हुए करीब 1000 किलोमीटर की यात्रा कर चुका है। फिर जेनरल से सफर करने का जोश और तब बढ़ गया जब, एकबार एनडीटीवी इंडिया देख रहा था। कार्यक्रम था विनोद दुआ का। उन्होंने कहा था, यदि आपको सही भारत के दर्शन करने हैं, उनकी समस्याओं को समझना हो, देखना हो, किस तरह हमारा भारत इंडिया से काफी अलग उससे वाकिफ होने के लिए मैं कहीं भी जेनरल से सफर करता हूं। फिर मुझे भी लगा बात तो वाजिब है, हम एसी बोगी में बैठे जेनरल वालों को हिकारत की नजर से देखते हैं। वह लंबी-लंबी लाइनों में अपनी सीटों के लिए धक्का-मुक्की करते हुए बोगी में सवार होते हैं। बहुत ही विचित्र हालत देखने को मिलता है। वहां लोग सीटों के लिए आपस में झगड़ते, गाली-गलौज करते दिख जाएंगे। यदि आप भी साधू बनने की कोशिश करेंगे तो आपको अपने गंतव्य तक खड़े-खड़े ही पहुंचना पड़ेगा। हो सकता है आपको खड़े होने पर भी किसी को आपत्ति हो। पर एक बात यह भी सच है और आप पहली बार जेनरल सफर कर रहे हो तो ताज्जुब भी हो सकता है। दरअसल जो लोग आपस में सीटों के लिए लड़ रहे थे वहीं आपस में ताश खेल रहे हैं। एक खिलाड़ी कम पड़ गया तो नीचे फर्श पर बैठे शख्स को उठाया और अपनी सीट पर जगह देकर खेल शुरू कर दिया। इस बार मुझे भी घर कुछ इसी तरह जाना पड़ा। पर मैं यह नहीं कह रहा कि मेरी इच्छा थी कि मैं भी विनोद दुआ बनूं। लेकिन हां, मुझे अपनी इस पर मलाल भी नहीं है। मैं यह नहीं कहने जा रहा कि भारत में लोगों को बैठने, सफर करने की तमीज नहीं है। एकबार कुछ ऐसा ही हुआ था। कॉलेज की बात है। बस में काफी भीड़ थी, उनमें कई स्टूडेंट ते जो स्टाफ चलाकर फ्री में चल रहे थे। बस से उतरने के बाद सभी ने कहना शुरू किया कितनी गंदी भीड़ थी, किसी को बस में चलना भी नहीं आता। मजे की बात तो यह की सभी पत्रकारिता के स्टूडेंट थे।
रिश्तों को कैसे समझे
खैर, फिर भी मेरा सवाल अब भी बरकरार है कि वह कौन हो सकता है, जिसे हम अपना समझ सकें। उससे हर बात कह सकें। मुझे लगता है वह एक इंसान ही हो सकता है। हम उसे दोस्त, प्रेमी, प्रेमिका या कुछ और नाम दे देते हैं। नाम इसलिए कि हर किसी को उसे खोने का डर रहता है। एक रिश्ते का नाम देकर हम उससे अपना व्यक्तिगत संबंध कायम करते हैं। संबंध को नाम शायद इसलिए भी देते हैं कि हमारे अंदर असुरक्षा की भावना रहती है। उसे खोने का भय रहता है।
रास आयी 'राजनीति'
नेता पर भारी जनता बेचारी
हम भारतीय जनता बेवजह अपनी हालत पर रोते हैं। नेताओं पर लांछन लगाने की आदत हमारी गई नहीं। हमारा यह आरोप भी निराधार ही होता है कि नेताओं के पास बेइंतहा दौलत है। यह इल्जाम भी हमारा बेकार होता है कि नेता जनता के पैसे पर अय्याशी करते हैं। घोटाला वगैरह करके चंद दिनों में रोड पति से करोड़पति हो जाते हैं। इन सारे आरोपों और बातों का कोई तुक ही नहीं बनता। हमारे देश में नेता चाहे जितने घोटाले करें, अरबों रुपए जमा कर लें, स्विस बैंक भी काला धन के तौर पर क्यों न भर लें। आम आदमी की तरह वह विकास नहीं कर सकते। वह उससे हमेशा पीछे ही रहेंगे। लोकतंत्र इसी का तो नाम है। जब नेहरू भी लोकतंत्र के कमांडर बने तब भी कमोबश यही हालत थी, आज मनमोहन हैं तो भी वही। अक्सर लोगों को कहते सुनता हूं, जनता की वोटों से नेता मंत्री बन रात भर में अरबपति बन जाते हैं। उनके विकास की गति देश की विकास गति से भी कई गुणा अधिक होती है। मैं कहता हूं, ऐसा नहीं है। फिर लोग मुझसे सवाल करते हैं कि आपके पास क्या सबूत है? अब यही मैं मात खा जाता हूं। अक्सर मेरा सबूत चलता फिरता रहता है। उसे तुरंत पकड़ कर मैं नहीं दिखा सकता, यही मेरी कमजोरी है। लेकिन इस बार एक छोटी सी मिसाल लेकर आया हूं। झारखंड का किस्सा। देश के बड़े-बड़े नेताओं का किस्सा। किस्सा कुर्सी का। इससे मुझे पहली बार लगा कि मैं साबित कर पाउंगा कि नेता कैसे पीछे रह गए और आम आदमी आगे बढ़ गया। तो दोस्तों, जरा ध्यान से सुनिएगा। हुआ यह कि यहां लोकतंत्र के रास्ते पर आम आदमी तो आगे बढ़ गया, क्योंकि उसका ध्यान चलने पर ही है। मगर नेता पीछ रह गए। क्योंकि उनका ध्यान एक-दूसरे को लती मारकर गिराने पर ही रहा। यहां नेता गिरते हैं, फिर उठते हैं, अपनी चोट सहलाते हैं, एक-दूसरे पर थूकते हैं, फिर लात मारते हैं। तो हुआ न कि जो इंसान गिरगिर के चलेगा, वह तो नौ दिन में ढाई कोस ही चलेगा।
नेता जब मंच पर खड़ा होकर कहता है कि भाइयों, तुम्हें देश का निर्माण करना है तो लोग फुसफुसाते हैं- इसलिए कि तुमने देश का नाश कर दिया है। आजकल नेता छात्रों को राजनीति से जोड़ने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। एकबार यूं ही छात्रों को संबोधित करते हुए नेताजी कह रहे थे, युवकों, तुम्हें चरित्रवान होना है, तो बीच से एक लड़का उठा और कहा-इसलिए कि तुम चरित्रहीन हो और सुधर नहीं सकते। इस तरह दोस्तों साबित हुआ कि नहीं कि हम काफी आगे निकल आ गए और वो पीछे रह गए। यदि नहीं तो एक और मिसाल लीजिए। नेता आज जब भाषण देने खड़ा होता है तो वही कहता है, जो पांच साल पहले कह चुका होता है। वहीं आश्वासन लोगों को देता है, जो पांच-दस साल पहले दे चुका होता है। देखा वह आगे बढ़ता ही नहीं। नई चीज सोच ही नहीं पाता, जबकि हम कहीं आगे निकल चुके होते हैं। उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं देते।
नेताओं का मतलबी दौरा
मौत का यह सिलसिला
जिनका कोई कसूर नहीं,
मरने-मरने वालों का आपस में कोई नाता नहीं,
बह रहे फिर भी खून,
जैसे जीवन का कोई मोल नहीं
हर मौत के बाद मातम,
फिर मौत,
जनता के रखवाले कर रहे हैं ठेकेदारी,
छोड़ राजीनीति, कूद पड़े हैं धंधे में,
सिलसिला ये कब थमेगा,
आँखों में चिंगारी लिए,
पूछ रहा हरकोई यही सवाल,
कब थमेगी लाशों की राजनीति,
कब रुकेगा नक्सलवाद,
और कब बुझेगी असमान विकास की प्यास।