ट्रेन से घर तक मेरा सफ़र

सबकुछ वैसा ही जैसे साल भर पहले था। शायद गांवों और शहरों में यही अंतर होता है। शहरों में विकास के लक्षण या बदलाव हररोज या हरपल नजर आता है, जबकि गांवों में नहीं। वर्षों गुजर जाते हैं तब कहीं जाकर विकास नजर आता है। इस बार घर करीब साल भर बाद गया। पिछले छह सालों से दिल्ली में हूं, पर पहली बार इतने दिनों तक घर से दूर रहा। इतने दिनों तक ट्रेन की लंबी सफर से भी दूर रहा। पर जो भी रहा, ट्रेन का यह सफर भी काफी यादगार रहा। इसलिए नहीं कि मुझे घर जाने के लिए टिकट नहीं मिल पाया। टिकट मैंने करीब 20 पहले करवाया था, कहीं भी नहीं मिला। फिर मैंने एसी-2 में वेटिंग 10 का रिजर्वेशन करवाया। यह सोचकर कि एसी में करवाया है और घर जाने में करीब 20 दिन बचा है तो कंफर्म हो जाएगा। पर आखिर दिन वेटिंग चार पर अटक गया। आप समझ सकते हैं कि जिस दिन आपको घर जाना है, उस दिन का टिकट मिलना कितना मुश्किल है। मुश्किल नहीं, नामुमकिन है। मेरे साथ भी यही हुआ। अब मेरे पास सिर्फ एक ही विकल्प बचा था। जेनरल से सफर करना। यह मेरे लिए कोई नई बात नहीं है। पहले भी कई मर्तबा जेनरल से सही भारत का दर्शन करते हुए करीब 1000 किलोमीटर की यात्रा कर चुका है। फिर जेनरल से सफर करने का जोश और तब बढ़ गया जब, एकबार एनडीटीवी इंडिया देख रहा था। कार्यक्रम था विनोद दुआ का। उन्होंने कहा था, यदि आपको सही भारत के दर्शन करने हैं, उनकी समस्याओं को समझना हो, देखना हो, किस तरह हमारा भारत इंडिया से काफी अलग उससे वाकिफ होने के लिए मैं कहीं भी जेनरल से सफर करता हूं। फिर मुझे भी लगा बात तो वाजिब है, हम एसी बोगी में बैठे जेनरल वालों को हिकारत की नजर से देखते हैं। वह लंबी-लंबी लाइनों में अपनी सीटों के लिए धक्का-मुक्की करते हुए बोगी में सवार होते हैं। बहुत ही विचित्र हालत देखने को मिलता है। वहां लोग सीटों के लिए आपस में झगड़ते, गाली-गलौज करते दिख जाएंगे। यदि आप भी साधू बनने की कोशिश करेंगे तो आपको अपने गंतव्य तक खड़े-खड़े ही पहुंचना पड़ेगा। हो सकता है आपको खड़े होने पर भी किसी को आपत्ति हो। पर एक बात यह भी सच है और आप पहली बार जेनरल सफर कर रहे हो तो ताज्जुब भी हो सकता है। दरअसल जो लोग आपस में सीटों के लिए लड़ रहे थे वहीं आपस में ताश खेल रहे हैं। एक खिलाड़ी कम पड़ गया तो नीचे फर्श पर बैठे शख्स को उठाया और अपनी सीट पर जगह देकर खेल शुरू कर दिया। इस बार मुझे भी घर कुछ इसी तरह जाना पड़ा। पर मैं यह नहीं कह रहा कि मेरी इच्छा थी कि मैं भी विनोद दुआ बनूं। लेकिन हां, मुझे अपनी इस पर मलाल भी नहीं है। मैं यह नहीं कहने जा रहा कि भारत में लोगों को बैठने, सफर करने की तमीज नहीं है। एकबार कुछ ऐसा ही हुआ था। कॉलेज की बात है। बस में काफी भीड़ थी, उनमें कई स्टूडेंट ते जो स्टाफ चलाकर फ्री में चल रहे थे। बस से उतरने के बाद सभी ने कहना शुरू किया कितनी गंदी भीड़ थी, किसी को बस में चलना भी नहीं आता। मजे की बात तो यह की सभी पत्रकारिता के स्टूडेंट थे।

2 comments:

  1. वाकई...दो अलग अलग दुनिया होती है जनरल और ए सी में..

    ReplyDelete