एक वैरागी जिसने खेल के सारे नियम बदल डाले। वाकई राजनीति ऐसी ही रही। फिल्म की कहानी काफी कसी हुई लगी। शुरू से लेकर जब तक सूरज अपनी मां से नहीं मिलता तब तक आपको यह फिल्म इस कदर बांधे रहती है कि आप अंदाजा नहीं लगा सकते, फिल्म का सवा दो घंटा कैसे गुजर गया। कई लोगों ने फिल्म देखने के पहले बताया था कि आखिरी के आधे घंटे को छोड़ दें, तो फिल्म ऐतिहासिक हो सकती थी। मुझे भी ऐसा ही लगा। हालांकि प्रकाश झा की तारीफ इस मायने में की जानी चाहिए उन्होंने इतने बड़े स्कारकास्ट को लेकर पहली बार कोई फिल्म बनाई। सभी ने उम्मीद से बेहतरीन प्रदशर्न किया। पर मनोज वाजपेयी को ज्यादा तरजीह शायद इसलिए कि वह एक ऐसे पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं जहां, राजनीति कूट-कूट कर रगों में बसती है। उनसे बेहतर उनका कैरेक्टर कोई प्ले भी नहीं कर सकता था। हां, एक वामपंथी के तौर पर नसीरुद्दीन शाह का रोल काफी छोटा और पलायनवादी नजर आया। फिल्म उनकी भूमिका की और अधिक की अपेक्षा थी। नसीर साहब के अलावा अजय देवगन की दलित भूमिका यानी सूरज कुमार की फिल्म में इंट्री तो धांसू होती है, पर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, वह अपनी धार खोते जाते हैं। एक दलित कैरेक्टर के तौर उनका चरित्र और भी सशक्त होने की उम्मीद थी। फिर भी इतने बड़े स्टारकास्ट को देखते हुए वह आपको निराश कतई नहीं करते हैं। शायद वह प्रकाश की फिल्म के लकी मास्कट हैं। अर्जुन रामपाल का किरदार मजबूत और राजनीतिक हिंसा की असलियत को बताती है। सबसे दुखद लगा राजनीति में टिकटों के बंटवारा की सच्चाई को देखकर। महिलाएं राजनीति में क्या हैसियत रखती हैं और उनका इस्तेमाल किस तरह होता है, इसे देखना हो तो राजनीति देखिए। राजनीति में महिलाओं की असली तस्वीर पेश की गई है। वह समझौता भी करती है और शासन भी। वह मजबूर भी है और मजबूत भी। कुछ महिलाएं राजनीति या कहें की जीवन के हर क्षेत्र समझौतावादी होकर तरक्की करती हैं। पर कभी-कभी उनका यह रवैया उनपर भारी पड़ता है। हमारे वास्तविक जीवन की यह असलियत है। शायद यूपी के मधुमिता और अमरमणि त्रिपाठी की दास्तां। नाना पाटेकर अपने किरदार में बेस्ट रहे। पर्दे के पीछे का खिलाड़ी जमीनी हक़ीक़त को बखूबी पहचानता है। उसके बगैर मैदान का खिलाड़ी अपंग और अपाहिज है। राजनीति की रणनीति बनाने में उसकी भूमिका को नजरअंदाज करना राजनीतिक कैरियर को खत्म करने जैसा है। वही हैं, नाना पाटेकर। महाभारत के कृष्ण और शकुनी मामा। राजनीति में सही या गलत कुछ भी नहीं होता, बस सही होता है तो जीत। कैटरीना मोम की गुड़िया से परिपक्व एक्टर की ओर एक और कदम बढ़ाती हुई। उसके साथ कदमताल करते रणवीर। इन दोनों के अभिनय में निखार फिल्म दर फिल्म आता जा रहा है। रणवीर कपूर और कैटरीना कैफ दोनों ऐसे कलाकार रहे हैं, जो मुझे कभी पसंद नहीं आए। रणवीर को मैंने वेक अप सिड और रॉकेट सिंह में देखा, तभी लगा मैं गलत था। हालांकि कैटरीना के लिए इस फिल्म को करने को कुछ था नहीं फिर भी अपनमी भूमिका को ईमानदारी और निष्टा से निभाती नजर आईं। इसमें कोई शक नहीं वह काफी मेहनती हैं और अपने काम के प्रति समर्पित रहती है। मनोज दा का तो कहना ही क्या! छा गए सरजी। सिंगल प्वाइंट एजेंडा है और करारा जवाब मिलेगा। संगीतकार आदेश श्रीवास्तव की तारीफ न हो तो बेमानी है। मोरा पिया मो से बोलत नाहि, द्वार जिया के खोलत नाहि....
हमने भी देख ली...वाकई आखिरी के आधे घंटे लगाम छूट गई, वरना तो गजब बांधा है...
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