क्या मेरी सोच बैकवर्ड है

बैकवर्ड थिंकिंग यानी पिछड़ी सोच। आखिर यह बला है क्या? जहां तक मेरा सवाल है, मुझे लगता है आम आदमी के बारे में बात करना या उसके हक के लिए सवाल उठाना, चर्चा करना इसी दायरे में आता है। महानगरों की एसी वाले कमरों में बैठकर गर्मी से मरने वालों की चर्चा किया जाता है। लेकिन, आप इस विचार और उनकी योजनाओं से किसी को कोई फायदा नहीं होता, पर सवाल उठाते हैं, तो आप बैकवर्ड थिंकिंग वाले माने जाते हैं। हमारे मंत्री साहब के काफिले से गुजरते हैं या बड़े लोगों की वजह से ट्रैफिक जाम घंटों तक बना रहता है, इस पर सवाल उठाते हैं तो आप बैकवर्ड थिंकिंग वाल माने जाते हैं। क्योंकि उनके हिसाब से यह सही है। उनके पास गाड़ियां हैं तो वह चलाएंगे ही। ताबड़तोड़ विदेशी दौरा करने वाले मंत्री जब खर्च कटौती की बातें करते हैं तो हमारे सिविल सोसायटी वाले उस पर सवाल उठाते हैं तो सही है। लेकिन, वहीं सिविल सोसायटी वाले भी वही करते हैं और आप उन पर सवाल उठाते हैं तो यह बैकवर्ड थिंकिंग है। दिल्ली की आलीशान जगहों में बैठकर लोग बातें करते हैं किसानों की हालत दयनीय हैं। वह आत्महत्या कर रहे हैं। हमें कोई समाधान निकालना चाहिए। उनका समाधान यही होता है कि 10-15 लोगों को इक्ट्ठा कर लिया तरह-तरह के सुझाव दे दिए। मजे की बात जिसे सुझाव चाहिए उसमें से कोई भी या उसका प्रतिनिधि मौजूद ही नहीं रहता। इस तरह इनकी चर्चा वहीं तक सिमट कर रह जाती है। किसी को कुछ फायदा नहीं होता। होता भी है तो इतना कि असर नजर नहीं आता। ऐसे कई संगठन हैं देश में जो केवल देश की समस्याओं पर परिचर्चा आयोजित करते हैं। उनका समाधान बताते हैं। यह सारी समस्याएं आम आदमी यानी देश की 80 फीसदी आबादी से जुड़ी होती है। इन्हें पता ही नहीं होता कि हमारे बारे में दिल्ली में चंद लोग चिंतित हैं। हमारी परेशानी उनसे देखी नहीं जा रही है। शायद यही सोचकर कि कुछ लोग उनकी परेशानियों से परेशान हैं, 80 फीसदी लोगों की परेशानी दूर हो जाती है! मैं भी एसी में बैठकर काम करता हूं, हालांकि ऑफिस की एसी कभी खराब तो कभी सही होती है, पर बैठता तो एसी में ही हूं। फिर भी ऐसी बातें कर रहा हूं, पर मेरे पास कुछ न कर पाने की कुंठा से पीड़ित होकर लिखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन देखता हूं, इस तरह की बातें करना भी मेरी बैकवर्ड थिंकिंग मानी जाती है। मैं सही और डेवलप्ड थिंकिंग अपनाना चाहता हूं। पिछड़ा, बल्कि जाहिल आदमी हूं। 20 फीसदी लोग 80 फीसदी की मेहनत से अमीर बन रहे हैं। मैं भी बनना चाहता हूं। मैं भी प्रोग्रेसिव बनना चाहता हूं।

2 comments:

  1. Dhabe ki kuntha blog pad nikalana acchi parampara nahi hai.Muddo ko bade canvas pad dekhne ki adat dale.

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