यौन दासियों की कहानी

हर समाज नैतिकता की बातें करता है। चाहे वह पश्चिम हो या पूरब। सभी के मुतिबक, उसका समाज बेहतर होता है। लेकिन, जब बात महिलाओं की आती है तो सारी हकीकत सामने आ जाती है। हाल के समय में सेक्स स्कैंडल की चर्चा कुछ ज्यादा रही है। बड़े-बड़े स्कैंडलों के सामने आने के कुछ समय बाद सब कुछ शांत हो जाता है। कभी नेताओं को इनमें फंसा हुआ बताया जाता है तो कभी बड़े अधिकायों के। तो कभी संन्यास लेने वाले बाबा भी महिलाओं की दलाली के व्यापार में शरीक पाए जाते हैं। पर, अंततः पकड़ा कोई नहीं जाता। सजा किसी को नहीं मिलती। हम अभी तक इन समस्याओं पर हंगामा, हिंसा और जनता को हाहाकार मचाते देखते आए हैं। पर, हममें से कोई इस समस्या की जड़ में जाता नहीं दिखता है। आज सेक्स का कारोबार इतना बढ़ गया है कि बाकायदा सेक्स टूरिज्म की शुरुआत भी हो गई है। यदि निचले स्तर पर देखें तो सेक्स और परिवार पुरुष के जीवन के दो अंग हैं। विवाह, बच्चे पैदा करना और परिवार आर्थिक एवं सामाजिक करार की तरह हैं। इस करार में सेक्स एक शर्त है। मगर जरूरी नहीं कि यह अच्छा या मनोरंजक हो। पर इससे फर्क तो पड़ता है। सेक्स एक मनोरंजन, एक खेल है। इसे पुरुष और केवल पुरुष विवाह के बाहर स्वीकार्य रूप से जारी रख सकता है। यानी, पुरुष सेक्स की खरीदारी करके बेदाग बचके बाहर निकल सकते हैं। सबसे अहम बात है कि इन पुरुषों को सेक्स के खेल के लिए स्त्रियों की कमी नहीं है। शरीर का सौदा करने को इच्छुक महिलाओं या लड़कियों की संख्या ज्यादा नहीं है। फिर भी, कुछ तो इसके लिए तैयार होती ही हैं। कुछ को जबरदस्ती इस सेक्स बाजार में शामिल किया ही जाता है। उन्हें यौन दासी बनने पर जबरन मजबूर किया ही जाता है। उन्हें वेश्यालयों में काम करने पर बाध्य होना पड़ता है। अब तो बदलते जमाने के हिसाब से इनका धंधा भी बदला है। कॉल गर्ल आदि इसी नए जमाने की देन है। अब एक नया चलन चल पड़ा है, सेक्स पर्यटन का। यह भ्रष्ट संस्कृति का सूचक है या खुले समाज का मुझे नहीं पता और न ही मैं इस पर कोई टिप्पणी करना चाहता हूं। क्योंकि इस तरह के बाजार में पुरुष और युवतियां दोनों अपनी मर्जी से शामिल होती हैं। उन पर किसी तरह का दबाव नहीं होता। युवतियां अपने आकर्षक हाव-भाव और शरीर की नुमाइश के जरिए पुरुषों (ग्राहकों) को लुभाती हैं। लेकिन, यह फिलहाल विशेष तौर पर पश्चिम में ही प्रचलन का हिस्सा है। हालांकि, कुछ एशियाई मुल्कों में यह बात अब आम हो चली है। बाकायदा सरकार इन पर टैक्स लगाती है। सरकार को उसके राजस्व का एक बड़ा हिस्सा इनसे भी मिलता होता है।

उसे गरीबी और इज्जत की जिंदगी पसंद नहीं थी।

उसे गरीबी और इज्जत की जिंदगी पसंद नहीं थी। गरीबी भगाने के लिए वह भाग गई......पिछले अंक में आपने यहाँ तक पढ़ा, अब आगे की कहानी आपके सामने है
फिर गांव में शादी थी। उसी के घर में थी। उसकी बहन की शादी। तीन बहन थी। बड़ी वाली तो वह खुद, जिसने भाग के शादी कर ली। मझली की शादी में वह नहीं आई थी। इस पर, उसकी मां पागलों की तरह हो गई थी। शायद, बड़ी बेटी के न होने का गम सालता हो। आखिर मां कैसे अपने कोख की औलाद को भुला दे। पर, बाप लोकलाज के डर से नहीं बुलाना चाहता था। मुझे अभी भी याद है, जब उनकी मझली लड़की के तिलक के रस्म में गया था तो चाचाजी ने मुझसे कहा था कि अगर कोई पूछे कि कितने बहन हैं तो कहना, दो। बड़ी वाली का नाम मत लेना। हालांकि मुझे किसी को कुछ बतलाने की नौबत नहीं आई। एक तो इसलिए कि किसी ने मुझसे पूछा ही नहीं या फिर दूसरी बात यह हो सकती है कि उन्हें सब पता हो और वह कोई बखेरा खड़ा करना नहीं चाहते थे। इस बार शादी चाचाजी के छोटी बेटी की थी। दो-चार दिन पहले से ही ऐसा माहौल था कि इस बार तो बड़ी बेटी जरूर आएगी। यदि ऐसा हुआ तो चाचाजी कुछ कर बैठेंगे या खुद भाग जाएंगे। यह बात मुझे शादी वाले दिन ही पता चली। नतीजतन मेरा सारा ध्यान चाचाजी पर था कि शुभ विवाह में कहीं अशुभ न हो जाए। दरवाजे पर बारात आए और लड़की का पिता भाग जाए या कुछ कर ले, इसकी भी जगहंसाई हो सकती थी। हम सभी इसी तरह लोगों को खिलाने-पिलाने और मेहमानों के स्वागत-सत्कार में लगे थे, तभी एक बोलेरो गाड़ी चाचाजी के दकवाजे पर आकर रूकी। एक खूबसूरत महिला उससे निकली और सभी को हाथ जोड़े सीधे घर में दाखिल हो गई। हाथ जोड़ते हुए वह सबकी ओर कनछपी निगाहों से देख रही थी, शायद सभी को पहचानने की कोशिश कर रही हो। उसके घर में प्रवेश करने के बाद एक हैंडसम सा 40 साल (हालांकि वह 40 का लग नहीं रहा था) का शख्स दो-तीन लोगों के साथ दरवाजे के सामने कुर्सी पर बैठ गया। समाज में इज्जत के तमाम ठेकेदार देखते रह गए या सन्न रह गए। दबी जुबान में भले ही सभी ने बहुत कुछ कहा हो, लेकिन किसी ने भी साफ तौर पर कुछ नहीं कहा। बाद में भी किसी ने कुछ नहीं कहा। उस वक्त जो लोग बड़े ताव में नजर आ रहे थे, इस वक्त उनक खून ठंडा पड़ा हुआ था। पहले सुना करता था कि ऐसा होने पर समाज के लोग उस परिवार को बहिष्कृत कर देते थे। शादी के कल होकर इस मसले पर थोड़ी-बहुत फुसफुसाहट सुनने को मिली। पर, सबकुछ शांत रहा।

मेरे चाचा की भागी हुई बेटी

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। वह कुछ बात क्या है, यह मत पूछिए। पर कुछ बात है जो हमारी हस्ती मिटने नहीं देती है। मुझे अभी भी याद है, हालांकि उस वक्त मै बहुत छोटा था। यही कोई 4-5 साल का। हमारे चाचा की लड़की घर से भाग गई थी। गांव में शादी थी। शादी के पहले रस्म को वह बुआ और बहन के साथ देखने गई थी। दूसरी दफा अकेली गई तो लौटी नहीं। सुबह ही पता चल सका कि वह तो राजपूत के लड़के के साथ भाग गई है। उस लड़के के साथ जिसके खानदान का सात पुश्त गुंडा यानी क्रिमिनल था। उसके भागने के बाद गांव में बहुत हंगामा हुआ था। हालात मारकाट के थे। चाचाजी इतने गुस्से में थे कि वह कुछ भी करने को तैयार थे। आखिर में गांव के बुद्धिजीवी और तथाकथित इज्जतदार लोगों ने एक सुझाव दिया। वह जिसके साथ भागी है, उसके पास जाया जाए। इन सबको लगता था कि वह भागी नहीं, बल्कि भगाई गई है। लेकिन, जब दो-चार लोग उसे बुलाने के लिए लड़के के ठिकाने पर गए तो लड़की ने अपने बाप यानी हमारे चाचाजी और अपने चाचाजी को पहचानने से ही इंकार कर दिया। बाद में मामला पुलिस तक पहुंचा। कुछ लोगों को चाचाजी ने बेटी को भगाने के जुर्म में फंसाया। उन पर मुकदमा दर्ज करवाया। पर, बाद में सुना गया कि चाचाजी का बेटा खुद अपनी भागी हुई बहन के यहां आता-जाता है। वहां से अपने घर के लिए धन लाता है। दकअसल, हमारे चाचा बहुत गरीब थे। सिंचाई विभाग में नौकरी करते थे। पर, बिहार सरकार की छंटनी के बाद बेकार हो गए थे। वह कहीं काम की तलाश में भी नहीं गए। घर पर निठल्लों की तरह बैठे फिर से बहाली की बाट जोहते रहते थे। इस तरह, घर की माली हालत बदतर होती गई। शायद इसीलिए बेटी भाग गई। क्योंकि उसे गरीबी और इज्जत की जिंदगी पसंद नहीं थी। गरीबी भगाने के लिए वह भाग गई, क्योंकि अक्सर सुना करता था कि जिस लड़के के साथ वह भागी है, उसके पास 4-5 किलो सोना और ढेर सारा रुपया है। वह बनारस में रहता है और वहां गांजा, चरस और अफीम वगैरह का कारोबार करता है। यह उसका पुश्तैनी बिजनेस था, क्योंकि पापा बताते थे कि उसके दादा भी यही काम करते थे। बाप तो इससे भी बढ़कर निकला। उसने पैसे की खातिर दो शादियां भी की थीं। पहले वाली शादी से समाज में नाम हुआ, दूसरे से बिजनेस में। बचपन के बाद एक बार फिर से 20 साल बाद चाचाजी की उसी बेटी को देखा।
                                                                                           अगले अंक में जारी...

फीफा का फीवर यानी फुटबॉल का खुमार

फीफा विश्वकप का खुमार सर चढ़ कर बोल रहा है। जब से दक्षिण अफ्रीका में फुटबॉल का यह महाकुंभ शुरू हुआ है, खेल की कई प्रतियोगिताएं भी साथ चल रही हैं। पर सभी का ध्यान तो फुटबॉल के रोमांचक मुकाबलों पर ही है। चाहे भारत-श्रीलंका-पाकिस्तान-बांग्लादेश के बीच खेला जाने वाला एशिया कप ही क्यों न हो? या फिर टेनिस का विंबलडन। एशिया कप में भारत-पाकिस्तान के बीच मुकाबला अरसे बाद हुआ। भारत जीता भी। यहां तक कि फाइनल में श्रीलंका को पटखनी देकर एशिया कप का सरताज भी बना। पर उतना हो-हल्ला या जोश क्रिकेट का इबादतगाह करे जाने वाले भारत में भी नहीं देख गया। क्रिकेटप्रेमियों की छोड़िए, जब खुद क्रिकेटर और उससे जुड़े तमाम चेहरे भी फुटबॉल फीवर में डूबे हों तो समझा जा सकता है इसकी दीवानगी किस हद तक लोगों के सर चढ़कर बोलती है। आखिर यूं ही नहीं यह खेल दुनिया का सबसे अधिक देखा जाने वाला खेल है। फुटबॉल के खेल में इतनी तेजी है कि युवाओं को यह सबसे अधिक लुभाती है। तेजरफ्तार पसंद युवा ही नहीं, बल्कि वैसे तमाम लोग जो खेलों के रोमांच, खिलाड़ियों की कुशलता और भरपूर मनोरंजन के कायल हैं वह भी पीछे नहीं हैं। शुक्रवार को इसके लीग दौर के सारे मैच खत्म हो गए। अब तक कई उलटफेर हमदेख चुके हैं। शुरुआत में खिताब का प्रबल दावेदार माना जा रहा फ्रांस पहले ही दौर से तो बाहर हुआ ही, पिछली बार की चैंपियन टीम इटली भी स्लोवाकिया जैसी टीम से हारकर अपने घर पहुंच चुकी है। इन दोनों टीमों के शुरुआती दौर में बाहर होने की कोई उम्मीद भी नहीं कर रहा था, पर फुटबॉल जैसे खेल की यही खासियत है। यहां उम्मीदों से नहीं खेल से टीमें जीतती हैं। जरा सी चूक यानी एक खिलाड़ी का लचर प्रदर्शन भी टीम के बाहर होने वजह बन जाती है। फ्रांस की टीम थिएरे हेनरी और एडम- पिएरे जैसे धुरंधरों से लैस थी, फिर भी उन्हें बेआबरू होकर बाहर होना पड़ा। यही कुछ हाल डिफेंडिंग चैंपियन इटली का रहा। हालांकि इटली के लिए सबसे बुरा यह रहा कि उसके तेजतर्रार मिडफील्डर आंद्रेया पिरलो चोट की वजह से दो मैच नहीं खेल पाए। यहां वल्डर्कप में भारत तो कहीं नहीं है, लेकिन एशियाई टीमों में दक्षिण कोरिया और जापान बेहतरीन प्रदर्शन कर रही हैं। मेरी फेवरेट टीम तो ब्राजील है, लेकिन अर्जेंटीना के खेल से ज्यादा प्रभावित नजर आ रहा हूं। एक ऐसा वक्त था जब अर्जेंटीना फीफा वर्ल्डकप के क्वालिफाइंग दौर से बाहर होने वाली थी। इसके चलते उसके कोच डिएगो माराडोना की बेहद आलोचना भी हो रही थी। पर अब उसके खेल में जबरदस्त का सुधार देखने को मिल है। लियोनेल मेसी तो कहर ढा रहे हैं। भले ही वह गोल न कर पाए हों, लेकिन गोल के लिए जो मूव वह बनाते हैं, उसकी तारीफ जितनी की जाए उतनी कम है। उधर पुर्तगाल की टीम भी अच्छी खेल रही है, पर क्रिस्टियानो रोनाल्डो में वह बात नजर नहीं आ रही है। हालांकि, वह किसी भी टीम को अकेले मात देने के लिए काफी है। पर, ब्राजील के साथ आखिरी लीग मैंच इतनी बोरिंग रही कि क्या कहूं। शायद दोनों टीमें बेहतरीन खेली। लेकिन भाई हमें तो गोल यानी फैसला चाहिए। खैर प्रतियोगिता के नॉक आउट दौर में पहुंचने से मेरी यह तमन्ना भी पूरी हो जाएगी। वहां इस तरह से गोल रहित मैच तो नहीं देखने पड़ेंगे। ब्रिटिशों ने भी अच्छा खेल दिखाया है, वेन रूनी से सभी को काफी उम्मीदें होंगी। इसके बावजूद मैं ब्राजील का ही सपोर्टर हूं और रहूंगा। अभी तक काका को नहीं देख पाया। अब जबिक मैच मॉक आउट दौर में पहुंच चुका है तो फैबियानो से भी उम्मीद काफी बढ़ गई है।

क्या मेरी सोच बैकवर्ड है

बैकवर्ड थिंकिंग यानी पिछड़ी सोच। आखिर यह बला है क्या? जहां तक मेरा सवाल है, मुझे लगता है आम आदमी के बारे में बात करना या उसके हक के लिए सवाल उठाना, चर्चा करना इसी दायरे में आता है। महानगरों की एसी वाले कमरों में बैठकर गर्मी से मरने वालों की चर्चा किया जाता है। लेकिन, आप इस विचार और उनकी योजनाओं से किसी को कोई फायदा नहीं होता, पर सवाल उठाते हैं, तो आप बैकवर्ड थिंकिंग वाले माने जाते हैं। हमारे मंत्री साहब के काफिले से गुजरते हैं या बड़े लोगों की वजह से ट्रैफिक जाम घंटों तक बना रहता है, इस पर सवाल उठाते हैं तो आप बैकवर्ड थिंकिंग वाल माने जाते हैं। क्योंकि उनके हिसाब से यह सही है। उनके पास गाड़ियां हैं तो वह चलाएंगे ही। ताबड़तोड़ विदेशी दौरा करने वाले मंत्री जब खर्च कटौती की बातें करते हैं तो हमारे सिविल सोसायटी वाले उस पर सवाल उठाते हैं तो सही है। लेकिन, वहीं सिविल सोसायटी वाले भी वही करते हैं और आप उन पर सवाल उठाते हैं तो यह बैकवर्ड थिंकिंग है। दिल्ली की आलीशान जगहों में बैठकर लोग बातें करते हैं किसानों की हालत दयनीय हैं। वह आत्महत्या कर रहे हैं। हमें कोई समाधान निकालना चाहिए। उनका समाधान यही होता है कि 10-15 लोगों को इक्ट्ठा कर लिया तरह-तरह के सुझाव दे दिए। मजे की बात जिसे सुझाव चाहिए उसमें से कोई भी या उसका प्रतिनिधि मौजूद ही नहीं रहता। इस तरह इनकी चर्चा वहीं तक सिमट कर रह जाती है। किसी को कुछ फायदा नहीं होता। होता भी है तो इतना कि असर नजर नहीं आता। ऐसे कई संगठन हैं देश में जो केवल देश की समस्याओं पर परिचर्चा आयोजित करते हैं। उनका समाधान बताते हैं। यह सारी समस्याएं आम आदमी यानी देश की 80 फीसदी आबादी से जुड़ी होती है। इन्हें पता ही नहीं होता कि हमारे बारे में दिल्ली में चंद लोग चिंतित हैं। हमारी परेशानी उनसे देखी नहीं जा रही है। शायद यही सोचकर कि कुछ लोग उनकी परेशानियों से परेशान हैं, 80 फीसदी लोगों की परेशानी दूर हो जाती है! मैं भी एसी में बैठकर काम करता हूं, हालांकि ऑफिस की एसी कभी खराब तो कभी सही होती है, पर बैठता तो एसी में ही हूं। फिर भी ऐसी बातें कर रहा हूं, पर मेरे पास कुछ न कर पाने की कुंठा से पीड़ित होकर लिखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन देखता हूं, इस तरह की बातें करना भी मेरी बैकवर्ड थिंकिंग मानी जाती है। मैं सही और डेवलप्ड थिंकिंग अपनाना चाहता हूं। पिछड़ा, बल्कि जाहिल आदमी हूं। 20 फीसदी लोग 80 फीसदी की मेहनत से अमीर बन रहे हैं। मैं भी बनना चाहता हूं। मैं भी प्रोग्रेसिव बनना चाहता हूं।

टाइटल मतलब जाति

जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान। न तो मै साधू हूँ और न ही कोई ज्ञान देने जा रहा हूँ। बस अपने साथ बीती कुछ बातें आपसे साझा करना चाहता हूँ। पिछले दिनों मैं घर गया था। इस दौरान कई शादियों में शिरकत करने का भी मौका मिला। पर यह किस्सा मुजफ्फरपुर का है। ममेरे भाई की शादी थी। भारत में शादी एक ऐसा समारोह है, जिस दौरान आपकी मुलाकात दूर के नाते-रिश्तेदारों से भी हो जाती है। लेकिन यहां मुलाकात ममेरे भाई के होने वाले ससुर जी से हुई। चूंकि मैं मामाजी के हर काम को कर रहा था तो उन्होंने अपने होने वाले समधीजी से मेरा परिचय कराते हुए कहा यह मीडिया फील्ड में काम करता है। फिर उन्होंने मेरा नाम पूछा। मैंने बताया चंदन कुमार। इसके बाद उनकी प्रतिक्रिया से मैं अचंभित नहीं तो थोड़ा से ताज्जुब मुझे जरूर हुआ। उन्होंने पूछा बस चंदन कुमार, टाइटल कुछ नहीं। मैंने बोला मुझे पसंद नहीं है टाइटल रखना। इस पर उनका जवाब था, नए जमाने का लड़का है, कोई बात नहीं। पर बाद में मामाजी ने मामला संभालते हुए टाइटल बताया तब तक मैं नहां से अपना काम करके दफा हो चुका था। मुझे पहली बार इस तरह के जातिगत सवालों से दा-चार होना पड़ा। पहले तो सुनता था कि जाति का कितना प्रभाव और असर है। पर पहली बार देख भी लिया। शादी वगैरह के टाइम में जाति का तो बोलबाला और भी बढ़ जाता है। बिहार में जब लोगों को एक साथ बैठकर बातें करना को कोई भी मौका मिलता है तो उनकी चर्चा का विषय खास तौर पर राजनीति होती है और राजनीति में जाति का समीकरण। किस कास्ट की पकड़ किस क्षेत्र में अधिक है और कम। करीब साल भर बाद घर गया था तो इन चीजों को और भी करीब से देखने को मिला। इस बार रूचि ज्यादा थी कि लोग कहते हैं, मीडिया में विशेषज्ञ लोग भी राजनीति में किसी उम्मीदवार के हार-जीत का समीकरण भी इन्हीं आधार पर तय करते हैं तो दिलचस्पी बढ़ी कि चलिए इस बार इस ऱैक्टर को भी समझ कर देख जाए। आने वाले दिनों में बिहार में चुनाव भी होना है तो इसमें मदद भी मिल जाएगी।

ट्रेन से घर तक मेरा सफ़र

सबकुछ वैसा ही जैसे साल भर पहले था। शायद गांवों और शहरों में यही अंतर होता है। शहरों में विकास के लक्षण या बदलाव हररोज या हरपल नजर आता है, जबकि गांवों में नहीं। वर्षों गुजर जाते हैं तब कहीं जाकर विकास नजर आता है। इस बार घर करीब साल भर बाद गया। पिछले छह सालों से दिल्ली में हूं, पर पहली बार इतने दिनों तक घर से दूर रहा। इतने दिनों तक ट्रेन की लंबी सफर से भी दूर रहा। पर जो भी रहा, ट्रेन का यह सफर भी काफी यादगार रहा। इसलिए नहीं कि मुझे घर जाने के लिए टिकट नहीं मिल पाया। टिकट मैंने करीब 20 पहले करवाया था, कहीं भी नहीं मिला। फिर मैंने एसी-2 में वेटिंग 10 का रिजर्वेशन करवाया। यह सोचकर कि एसी में करवाया है और घर जाने में करीब 20 दिन बचा है तो कंफर्म हो जाएगा। पर आखिर दिन वेटिंग चार पर अटक गया। आप समझ सकते हैं कि जिस दिन आपको घर जाना है, उस दिन का टिकट मिलना कितना मुश्किल है। मुश्किल नहीं, नामुमकिन है। मेरे साथ भी यही हुआ। अब मेरे पास सिर्फ एक ही विकल्प बचा था। जेनरल से सफर करना। यह मेरे लिए कोई नई बात नहीं है। पहले भी कई मर्तबा जेनरल से सही भारत का दर्शन करते हुए करीब 1000 किलोमीटर की यात्रा कर चुका है। फिर जेनरल से सफर करने का जोश और तब बढ़ गया जब, एकबार एनडीटीवी इंडिया देख रहा था। कार्यक्रम था विनोद दुआ का। उन्होंने कहा था, यदि आपको सही भारत के दर्शन करने हैं, उनकी समस्याओं को समझना हो, देखना हो, किस तरह हमारा भारत इंडिया से काफी अलग उससे वाकिफ होने के लिए मैं कहीं भी जेनरल से सफर करता हूं। फिर मुझे भी लगा बात तो वाजिब है, हम एसी बोगी में बैठे जेनरल वालों को हिकारत की नजर से देखते हैं। वह लंबी-लंबी लाइनों में अपनी सीटों के लिए धक्का-मुक्की करते हुए बोगी में सवार होते हैं। बहुत ही विचित्र हालत देखने को मिलता है। वहां लोग सीटों के लिए आपस में झगड़ते, गाली-गलौज करते दिख जाएंगे। यदि आप भी साधू बनने की कोशिश करेंगे तो आपको अपने गंतव्य तक खड़े-खड़े ही पहुंचना पड़ेगा। हो सकता है आपको खड़े होने पर भी किसी को आपत्ति हो। पर एक बात यह भी सच है और आप पहली बार जेनरल सफर कर रहे हो तो ताज्जुब भी हो सकता है। दरअसल जो लोग आपस में सीटों के लिए लड़ रहे थे वहीं आपस में ताश खेल रहे हैं। एक खिलाड़ी कम पड़ गया तो नीचे फर्श पर बैठे शख्स को उठाया और अपनी सीट पर जगह देकर खेल शुरू कर दिया। इस बार मुझे भी घर कुछ इसी तरह जाना पड़ा। पर मैं यह नहीं कह रहा कि मेरी इच्छा थी कि मैं भी विनोद दुआ बनूं। लेकिन हां, मुझे अपनी इस पर मलाल भी नहीं है। मैं यह नहीं कहने जा रहा कि भारत में लोगों को बैठने, सफर करने की तमीज नहीं है। एकबार कुछ ऐसा ही हुआ था। कॉलेज की बात है। बस में काफी भीड़ थी, उनमें कई स्टूडेंट ते जो स्टाफ चलाकर फ्री में चल रहे थे। बस से उतरने के बाद सभी ने कहना शुरू किया कितनी गंदी भीड़ थी, किसी को बस में चलना भी नहीं आता। मजे की बात तो यह की सभी पत्रकारिता के स्टूडेंट थे।

रिश्तों को कैसे समझे

जिंदगी का मकसद क्या होना चाहिए? इस विषय पर बहुत कम सोचता हूं। शायद इसलिए कि जीवन के प्रति पैशन नहीं रहा। यह अजीब या बकवास भी लग सकता है। भला इतनी कम उम्र में जब सभी मौज-मस्ती में रहते हैं, मैं निराशावादी बातें कर रहा हूं। दरअसल इंसान कभी अपने हिसाब से अपनी जिंदगी तय नहीं करता। परिस्थितियां और हालात हमारी जिंदगी का रुख तय करते हैं। यह सच है, सभी को अपने जीवन में आसरे की तलाश होती है। उसे तलाश होती है उस शख्स की, जिसके कंधे पर सर रखकर वह रो सके। उससे अपने दिल की बात बेझिझक कह सके। हर वह बात जिसे हम अपने सबसे करीबी दोस्त, मम्मी-पापा से नहीं कह सकता। अपने भाई से नहीं कह सकता और न ही अपनी बहन से साथ साझा कर सकता है। फिर ऐसे में सवाल उठता है कि वह कौन हो, जिससे हम अपने दिल की बातें बगैर किसी शर्मिंदगी और संकोच के कह सकें। अक्सर हम सभी को इस कैरेक्टर में प्रेमिका का अक्स नजर आता है। पर, मेरा मतलब प्रेमिका से नहीं है। आजकल प्रेमी-प्रेमिका के किस्से इस तरह सुनने को मिलने लगे हैं, जैसे हरकोई लैला-मजनू और हीर-रांझा की औलाद नजर आता है। यह प्यार बस पैसे का खेल हो चुका है। अब तो सवाल यह भी उठने लगा है कि क्या हम एक ही समय में दो इंसानों से मोहब्बत कर सकते हैं। यानी एक की मोहब्बत हमारे लिए कम पड़ जाती है। लगता है, हम सदियों से प्यार के भूखे हैं। अब जबकि मौका मिला है तो एकबार में ही सदियों की भूख मिटा लेनी है। तो किसी को सुबह से दोपहर, दूसरे को दोपहर से शाम और तीसरे को शाम से रात तक प्यार करते हैं। यानी सुबह से लेकर शाम तक, शाम से लेकर रात, फिर रात से लेकर सुबह तक मुझे प्यार करो। यह मोहरा फिल्म का गाना है। गीतकार ने भी क्या खूब लिखा। यूं ही कवि को भविष्यदृष्टा नहीं कहा जाता है।
खैर, फिर भी मेरा सवाल अब भी बरकरार है कि वह कौन हो सकता है, जिसे हम अपना समझ सकें। उससे हर बात कह सकें। मुझे लगता है वह एक इंसान ही हो सकता है। हम उसे दोस्त, प्रेमी, प्रेमिका या कुछ और नाम दे देते हैं। नाम इसलिए कि हर किसी को उसे खोने का डर रहता है। एक रिश्ते का नाम देकर हम उससे अपना व्यक्तिगत संबंध कायम करते हैं। संबंध को नाम शायद इसलिए भी देते हैं कि हमारे अंदर असुरक्षा की भावना रहती है। उसे खोने का भय रहता है।

रास आयी 'राजनीति'

एक वैरागी जिसने खेल के सारे नियम बदल डाले। वाकई राजनीति ऐसी ही रही। फिल्म की कहानी काफी कसी हुई लगी। शुरू से लेकर जब तक सूरज अपनी मां से नहीं मिलता तब तक आपको यह फिल्म इस कदर बांधे रहती है कि आप अंदाजा नहीं लगा सकते, फिल्म का सवा दो घंटा कैसे गुजर गया। कई लोगों ने फिल्म देखने के पहले बताया था कि आखिरी के आधे घंटे को छोड़ दें, तो फिल्म ऐतिहासिक हो सकती थी। मुझे भी ऐसा ही लगा। हालांकि प्रकाश झा की तारीफ इस मायने में की जानी चाहिए उन्होंने इतने बड़े स्कारकास्ट को लेकर पहली बार कोई फिल्म बनाई। सभी ने उम्मीद से बेहतरीन प्रदशर्न किया। पर मनोज वाजपेयी को ज्यादा तरजीह शायद इसलिए कि वह एक ऐसे पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं जहां, राजनीति कूट-कूट कर रगों में बसती है। उनसे बेहतर उनका कैरेक्टर कोई प्ले भी नहीं कर सकता था। हां, एक वामपंथी के तौर पर नसीरुद्दीन शाह का रोल काफी छोटा और पलायनवादी नजर आया। फिल्म उनकी भूमिका की और अधिक की अपेक्षा थी। नसीर साहब के अलावा अजय देवगन की दलित भूमिका यानी सूरज कुमार की फिल्म में इंट्री तो धांसू होती है, पर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, वह अपनी धार खोते जाते हैं। एक दलित कैरेक्टर के तौर उनका चरित्र और भी सशक्त होने की उम्मीद थी। फिर भी इतने बड़े स्टारकास्ट को देखते हुए वह आपको निराश कतई नहीं करते हैं। शायद वह प्रकाश की फिल्म के लकी मास्कट हैं। अर्जुन रामपाल का किरदार मजबूत और राजनीतिक हिंसा की असलियत को बताती है। सबसे दुखद लगा राजनीति में टिकटों के बंटवारा की सच्चाई को देखकर। महिलाएं राजनीति में क्या हैसियत रखती हैं और उनका इस्तेमाल किस तरह होता है, इसे देखना हो तो राजनीति देखिए। राजनीति में महिलाओं की असली तस्वीर पेश की गई है। वह समझौता भी करती है और शासन भी। वह मजबूर भी है और मजबूत भी। कुछ महिलाएं राजनीति या कहें की जीवन के हर क्षेत्र समझौतावादी होकर तरक्की करती हैं। पर कभी-कभी उनका यह रवैया उनपर भारी पड़ता है। हमारे वास्तविक जीवन की यह असलियत है। शायद यूपी के मधुमिता और अमरमणि त्रिपाठी की दास्तां। नाना पाटेकर अपने किरदार में बेस्ट रहे। पर्दे के पीछे का खिलाड़ी जमीनी हक़ीक़त को बखूबी पहचानता है। उसके बगैर मैदान का खिलाड़ी अपंग और अपाहिज है। राजनीति की रणनीति बनाने में उसकी भूमिका को नजरअंदाज करना राजनीतिक कैरियर को खत्म करने जैसा है। वही हैं, नाना पाटेकर। महाभारत के कृष्ण और शकुनी मामा। राजनीति में सही या गलत कुछ भी नहीं होता, बस सही होता है तो जीत। कैटरीना मोम की गुड़िया से परिपक्व एक्टर की ओर एक और कदम बढ़ाती हुई। उसके साथ कदमताल करते रणवीर। इन दोनों के अभिनय में निखार फिल्म दर फिल्म आता जा रहा है। रणवीर कपूर और कैटरीना कैफ दोनों ऐसे कलाकार रहे हैं, जो मुझे कभी पसंद नहीं आए। रणवीर को मैंने वेक अप सिड और रॉकेट सिंह में देखा, तभी लगा मैं गलत था। हालांकि कैटरीना के लिए इस फिल्म को करने को कुछ था नहीं फिर भी अपनमी भूमिका को ईमानदारी और निष्टा से निभाती नजर आईं। इसमें कोई शक नहीं वह काफी मेहनती हैं और अपने काम के प्रति समर्पित रहती है। मनोज दा का तो कहना ही क्या! छा गए सरजी। सिंगल प्वाइंट एजेंडा है और करारा जवाब मिलेगा। संगीतकार आदेश श्रीवास्तव की तारीफ न हो तो बेमानी है। मोरा पिया मो से बोलत नाहि, द्वार जिया के खोलत नाहि....

नेता पर भारी जनता बेचारी

हम भारतीय जनता बेवजह अपनी हालत पर रोते हैं। नेताओं पर लांछन लगाने की आदत हमारी गई नहीं। हमारा यह आरोप भी निराधार ही होता है कि नेताओं के पास बेइंतहा दौलत है। यह इल्जाम भी हमारा बेकार होता है कि नेता जनता के पैसे पर अय्याशी करते हैं। घोटाला वगैरह करके चंद दिनों में रोड पति से करोड़पति हो जाते हैं। इन सारे आरोपों और बातों का कोई तुक ही नहीं बनता। हमारे देश में नेता चाहे जितने घोटाले करें, अरबों रुपए जमा कर लें, स्विस बैंक भी काला धन के तौर पर क्यों न भर लें। आम आदमी की तरह वह विकास नहीं कर सकते। वह उससे हमेशा पीछे ही रहेंगे। लोकतंत्र इसी का तो नाम है। जब नेहरू भी लोकतंत्र के कमांडर बने तब भी कमोबश यही हालत थी, आज मनमोहन हैं तो भी वही। अक्सर लोगों को कहते सुनता हूं, जनता की वोटों से नेता मंत्री बन रात भर में अरबपति बन जाते हैं। उनके विकास की गति देश की विकास गति से भी कई गुणा अधिक होती है। मैं कहता हूं, ऐसा नहीं है। फिर लोग मुझसे सवाल करते हैं कि आपके पास क्या सबूत है? अब यही मैं मात खा जाता हूं। अक्सर मेरा सबूत चलता फिरता रहता है। उसे तुरंत पकड़ कर मैं नहीं दिखा सकता, यही मेरी कमजोरी है। लेकिन इस बार एक छोटी सी मिसाल लेकर आया हूं। झारखंड का किस्सा। देश के बड़े-बड़े नेताओं का किस्सा। किस्सा कुर्सी का। इससे मुझे पहली बार लगा कि मैं साबित कर पाउंगा कि नेता कैसे पीछे रह गए और आम आदमी आगे बढ़ गया। तो दोस्तों, जरा ध्यान से सुनिएगा। हुआ यह कि यहां लोकतंत्र के रास्ते पर आम आदमी तो आगे बढ़ गया, क्योंकि उसका ध्यान चलने पर ही है। मगर नेता पीछ रह गए। क्योंकि उनका ध्यान एक-दूसरे को लती मारकर गिराने पर ही रहा। यहां नेता गिरते हैं, फिर उठते हैं, अपनी चोट सहलाते हैं, एक-दूसरे पर थूकते हैं, फिर लात मारते हैं। तो हुआ न कि जो इंसान गिरगिर के चलेगा, वह तो नौ दिन में ढाई कोस ही चलेगा।
नेता जब मंच पर खड़ा होकर कहता है कि भाइयों, तुम्हें देश का निर्माण करना है तो लोग फुसफुसाते हैं- इसलिए कि तुमने देश का नाश कर दिया है। आजकल नेता छात्रों को राजनीति से जोड़ने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। एकबार यूं ही छात्रों को संबोधित करते हुए नेताजी कह रहे थे, युवकों, तुम्हें चरित्रवान होना है, तो बीच से एक लड़का उठा और कहा-इसलिए कि तुम चरित्रहीन हो और सुधर नहीं सकते। इस तरह दोस्तों साबित हुआ कि नहीं कि हम काफी आगे निकल आ गए और वो पीछे रह गए। यदि नहीं तो एक और मिसाल लीजिए। नेता आज जब भाषण देने खड़ा होता है तो वही कहता है, जो पांच साल पहले कह चुका होता है। वहीं आश्वासन लोगों को देता है, जो पांच-दस साल पहले दे चुका होता है। देखा वह आगे बढ़ता ही नहीं। नई चीज सोच ही नहीं पाता, जबकि हम कहीं आगे निकल चुके होते हैं। उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं देते।

नेताओं का मतलबी दौरा

हाथ की पांचों अंगुलियां एक जैसी नहीं होती हैं। यही बात हमारे देश भारत पर भी लागू होती है। कानून की नजर में सभी प्रदेश और नागरिक समान हैं। पर हक़ीक़त ऐसी नहीं है। यह शासक-प्रशासक और जनता अच्छी तरह जानती है। हमारे पूर्वोत्तर राज्यों में क्या हो रहा है किसी को कुछ पता नहीं चल पाता है। बजाय इसके कहीं चीन ने हमारे इलाकों पर अतिक्रमण तो नहीं कर लिया है। पूर्वोत्तर में चीनी अतिक्रमण के अलावा कोई दूसरी बड़ी खबर सुर्खियों में नहीं आ पाती है। हमारे पीएम से लेकर बड़े नेता तक कश्मीर की ही यात्रा, सैर या दौरे पर जाते हैं। पूर्वोत्तर जाने से भला उनको फायदा भी क्या हो सकता है? तभी तो हमारे प्रधानमंत्री भी कश्मीर की अहमियत समझते हैं और वहां का दौरा करते हैं। लाखों की परियोजना की घोषणा करते हैं। सरकार की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी भी जाती हैं और विकास परियोजनाओं का एलान करती हैं। हाल के समय में मुझे काफी जोर देने पर भी याद नहीं आता कि सरकार का कोई बड़ा नेता या मंत्री पूर्वोत्तर की खोजखबर लेने गया हो। जम्मू-कश्मीर में अक्सर हिंसक आग उठती रहती है। पिछले साल वहां काफी हो-हल्ला मचा। जम्मू पर आरोप लगा कि उसने कश्मीर के लिए दैनिक जरूरतों के सामानों को ब्लॉक कर दिया है। उसे कश्मीर नहीं पहुंचने दिया जा रहा है। कश्मीर जाने वाली गाड़ियों को तोड़ा-फोड़ा जा रहा है। इसके बाद कश्मीरियों ने पाकिस्तान से व्यापार की मांगे उठाई। ताकि भविष्य में जम्मू के लोग इस तरह के कदम उठाए तो उन्हें खाने के लाले नहीं पड़े। वह पाकिस्तान से रसद वगैरह मंगा सकें। यह सभी को मालूम है कि पाकिस्तान रसद के नाम पर क्या व्यापार करता है। वहीं अब हम पर्वोत्तर की बात करें तो करीब 50 दिनों से मणिपुर में आर्थिक नाकाबंदी जारी है। लोगों तक जरूरी चीजें नहीं पहुंच पा रही हैं। यह ब्लॉकेड केंद्र और एनएससीएन (आईएम) के बीच बातचीत को लेकर है। मसला कोई भी हो पर हमारी सरकार इस मामले में उतनी उतावली नहीं दिखती, जितनी वह जम्मू या फिर उसके वोट बैंक से जुड़े मुद्दे पर नजर आती है। पूर्वोत्तर के राज्य जैसे उनके लिए अछूते हैं। वहीं के लोगों की समस्याएं मानों, उनके लिए भारत की समस्या नहीं दिखती। यहां रसद की ब्लॉकेड होने पर लोग चीन से व्यापार की बात नहीं करते। पर हमें समझना चाहिए कि काफी लंबे अरसे से पूर्वोत्तर का मसला टालते आ रहे हैं। हर बात की हद होती है। पानी तो सर से पहले ही गुजर चुका है। शायद सरकार यह सोच रही है कि कुछ समस्याएं खुद-ब-खुद निपट जाती हैं। इसलिए लोगों को उनके हाल पर छोड़ना ही बेहतर है। यह लापरवाही एक दिन चिंगारी बन दिल्ली की बारूदी सत्ता में भयंकर आग लगाने की तैयारी है।

मौत का यह सिलसिला

ये मौत है उनकी,
जिनका कोई कसूर नहीं,
मरने-मरने वालों का आपस में कोई नाता नहीं,
बह रहे फिर भी खून,
जैसे जीवन का कोई मोल नहीं
हर मौत के बाद मातम,
फिर मौत,
जनता के रखवाले कर रहे हैं ठेकेदारी,
छोड़ राजीनीति, कूद पड़े हैं धंधे में,
सिलसिला ये कब थमेगा,
आँखों में चिंगारी लिए,
पूछ रहा हरकोई यही सवाल,
कब थमेगी लाशों की राजनीति,
कब रुकेगा नक्सलवाद,
और कब बुझेगी असमान विकास की प्यास।